त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
छब्बीसवाँ सर्ग: उपसंहार: त्रेता में कलि
कवि ने त्रेता काव्य का ‘उपसंहार’ कविता के रूप में किया है, कि सत्ययुग से प्रारम्भ हुई मानवीय विकास की यात्रा त्रेता युग में आते-आते अपनी निकृष्टतम परिणति अथवा उच्चतम सोपान तक पहुँची, यह कहा नहीं जा सकता। मगर त्रेता ने सत्य की कठिन परीक्षा लेते हुए अग्नि देव की लपटों में उसे तपाकर संतति के रूप में द्वापर को जन्म दिया।
“सत्य ने
जन्म दिया था
त्रेतायुग को,
त्रेता ने
सत्य की कठिन परीक्षा ली
अग्निदेव की लपटों में
उसे तपाकर”
जिसने सत्य असत्य की महाभारत को देखा और असत्य को जीत कर अट्टहास करते एवं सत्य को लहू-लुहान होते देखा। पहली बार रक्त-सम्बन्ध क्रय-विक्रय के सामान बने और मनुस्मृति का तीसरा वर्ण वैश्य संस्कृति के रूप में चारों दिशाओं में पाँव पसारने लगा। उद्भ्रांत जी कहते हैं:
“रक्त सम्बन्ध बने
पहली बार
क्रय-विक्रय का सामान!
मनुस्मृति के
तृतीय वर्ण की
वैश्य संस्कृति ने
अपने पसारे पाँव चतुर्दिक”
काल का सुदर्शन चक्र वायुवेग से चलता रहा। द्वापर के अंत में काल के व्याघ्र द्वारा कृष्ण के सुकोमल तलवे को बेधते ही कलि का प्रादुभाव होता है अर्थात् कलि युग में ईश्वर की मृत्यु होने के साथ-साथ भयानक नर-संहार, नारी लज्जा का हरण, पिता द्वारा पुत्री पर यौन आक्रमण, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर की दुष्प्रवृत्तियाँ इस युग के प्रभाव से ही दिखने लगी। ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय ने शासन की बागडोर अपने हाथ में सँभाल कर चौथे वर्ण को सदैव अपेक्षित किया, हाशिये पर रखा और पाँवों तले कुचला, दबाया। ऐसा ही व्यवहार स्त्रियों के साथ भी हुआ।
“चौथे वर्ण को
किया प्रताड़ित सतत,
उसकी उपेक्षा की,
हाशिए पर
उसे सदा ही रखा;
दबाया और-
कुचला पाँवों के तले!
तीनों युगों ने
तीनों वर्णों ने
स्त्री-प्रकृति के संग भी
किया वैसा ही व्यवहार!”
त्रेता ने जहाँ मर्यादा की सीमा का उल्लंघन कर एक सुहागिन की अग्नि परीक्षा तथा लोक अपवाद से बचने के लिए गर्भवती पत्नी के निष्कासन के उदाहरण द्वापर को महायुद्ध के महासागर में धकेलने के सिवाय क्या कर सकता था? जिसमें स्त्री प्रकृति के साथ पितामह, दादा और पिता जैसे सम्मानीय पुरुषों की उपस्थिति में क्रूरतम एवं दानवी व्यवहार हुआ। मगर कवि उद्भ्रांत को उम्मीद है कि कलियुग ही ऐसा युग है, जिसमें समाज का वंचित, उपेक्षित, अंतिम और असहाय, शोषित, पीड़ित वर्ग को आख़िरकार समानता के अधिकार के माध्यम से प्राकृतिक न्याय मिलेगा और समाज से हमेशा–हमेशा के लिये विषमता का अँधेरा समाप्त हो जाएगा।
“ताकि इस जगत का
हर शोषित, पीड़ित
और उपेक्षित प्राणी-
अंततोगत्वा पा सके न्याय,
गर्व से उठाकर सिर
चल सके।
सरपट दौड़ने वाले
घोड़े पर बैठकर-
हाथ में लिए
समानता की तेग
विषमता के अँधेरे का
नाश कर सके
समूल!”
विषय सूची
- कवि उद्भ्रांत, मिथक और समकालीनता
- पहला सर्ग: त्रेता– एक युगीन विवेचन
- दूसरा सर्ग: रेणुका की त्रासदी
- तीसरा सर्ग: भवानी का संशयग्रस्त मन
- चौथा सर्ग: अनुसूया ने शाप दिया महालक्ष्मी को
- पाँचवाँ सर्ग: कौशल्या का अंतर्द्वंद्व
- छठा सर्ग: सुमित्रा की दूरदर्शिता
- सातवाँ सर्ग: महत्त्वाकांक्षिणी कैकेयी की क्रूरता
- आठवाँ सर्ग: रावण की बहन ताड़का
- नौवां सर्ग: अहिल्या के साथ इंद्र का छल
- दसवाँ सर्ग: मंथरा की कुटिलता
- ग्यारहवाँ सर्ग: श्रुतिकीर्ति को नहीं मिली कीर्ति
- बारहवाँ सर्ग: उर्मिला का तप
- तेरहवाँ सर्ग: माण्डवी की वेदना
- चौदहवाँ सर्ग: शान्ता: स्त्री विमर्श की करुणगाथा
- पंद्रहवाँ सर्ग: सीता का महाआख्यान
- सोलहवाँ सर्ग: शबरी का साहस
- सत्रहवाँ सर्ग: शूर्पणखा की महत्त्वाकांक्षा
- अठारहवाँ सर्ग: पंचकन्या तारा
- उन्नीसवाँ सर्ग: सुरसा की हनुमत परीक्षा
- बीसवाँ सर्ग: रावण की गुप्तचर लंकिनी
- बाईसवाँ सर्ग: मन्दोदरी:नैतिकता का पाठ
- तेइसवाँ सर्ग: सुलोचना का दुख
- चौबीसवाँ सर्ग: धोबिन का सत्य
- पच्चीसवाँ सर्ग: मैं जननी शम्बूक की: दलित विमर्श की महागाथा
- छब्बीसवाँ सर्ग: उपसंहार: त्रेता में कलि