त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन 

त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन   (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

छठा सर्ग: सुमित्रा की दूरदर्शिता 

 

जैन ‘पाऊमचरीय’ के अनुसार कमाल संकुलपुरा के राजा सुबंधु तिलक की पुत्री सुमित्रा थी। कौशल्या और कैकेयी से अलग उसका नाम रखा गया था। शायद वह किसी राजघराने से सम्बन्ध नहीं रखती होगी। जबकि कौशल्या का सम्बन्ध कौशल राज्य तथा कैकेयी का सम्बन्ध कैकेय राज्य से था। सुमित्रा नाम सुमंत्र से मिलता-जुलता है, इसलिए यह अनुमान लगाया जाता है कि वह सुमंत्र की पुत्री रही होगी। 

प्रात सुमित्रा नाम जग जे तिय लेहिं सनेम। 
तनय लखन रिपुदमन सं पावहिं पति पद प्रेम। 

गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित नारी-अंक (बाइसवें वर्ष का विशेषांक) के अनुसार महाराज दशरथ की रानियों की संख्या कहीं तीन सौ साठ और कहीं सात सौ बतायी जाती है। जो भी हो महारानी कौशल्या पट्टमहिषी थीं और महारानी कैकेयी महाराज को सर्वाधिक प्रिय थीं। शेष में सुमित्रा ही प्रधान थी। महाराज छोटी महारानी के भवन में ही प्रायः रहते थे। सुमित्रा जी ने उपेक्षिता-प्रायः महारानी कौशल्या के समीप रहना ही उचित समझा। वे बड़ी महारानी को ही अधिक मानती थीं। 

कवि उद्भ्रांत के अनुसार सुमित्रा ने अपने दोनों पुत्रों—लक्ष्मण और शत्रुघ्न को माँ की भावनाओं से दूर रखने का निर्णय लिया। शायद उसे अपनी उपेक्षित अवस्था का पूरी तरह आभास हो गया था कि कौशल्या की तरह न तो वह राजमाता बन सकती है और न ही वह कैकेयी की तरह कूटनीतिज्ञ भी। शायद इसी नियति को भाँपकर उसने अपने बड़े पुत्र लक्ष्मण के सामने राम को आदर्श मानने तथा शत्रुघ्न को भरत की हर बात को शिरोधार्य करने का आदेश दिया। तभी तो उन्होंने लिखा है:

“मैंने सायास अपने पुत्रों को
दूर रखा
माँ की भावनाओं से; 
लक्ष्मण के सामने
राम को आदर्श मानने का मंत्र रखा और
शत्रुघ्न को
भरत से संत भ्राता का हर वचन
शिरोधार्य करने का
माता की सीख को
दोनों भाइयों ने
ग्रहण किया अंतरात्मा से।” 

जबकि कथा के अनुसार यह कहा जाता है, पुत्रेष्टि यज्ञ समाप्त होने पर अग्नि के द्वारा प्राप्त चारु का प्रथम भाग महाराज ने कौशल्या को दे दिया। शेष का आधा भाग कैकेयी जी को प्राप्त हुआ। चतुर्थांश जो शेष था, उसके दो भाग करके एक भाग कौशल्या और दूसरा कैकेयी के हाथों में रख दिया। दोनों महारानियों ने अपने-अपने वे भाग सुमित्रा को दे दिए। समय पर माता सुमित्रा ने दो तेजस्वी पुत्रों को जन्म दिया। उनमें से कौशल्या जी के दिए गए भाग के प्रभाव से लक्ष्मण जी श्री राम के तथा कैकेयी के दिए गए भाग के प्रभाव से शत्रुघ्न भरत के अनुगामी हुए। इस प्रसंग की तुलना में कवि उद्भ्रांत के द्वारा सुमित्रा की मनोस्थिति का आकलन ज़्यादा सटीक व उपयुक्त प्रतीत होता है। क्योंकि उन्हें अपने आपको आधुनिक युग की नारीगत अवधारणओं को अपने भीतर अनुभव कर उस अंतर्द्वन्द्व को प्रकट करना था। इसलिए उसकी महत्वाकांक्षाएँ फलीभूत होती नज़र आती देख दोनों रानियों से किस तरह सही-सही व्यवहार बना रहे हैं। भले ही, कैकेयी और कौशल्या के प्रति मन में दबी हुई ईर्ष्या के भाव क्यों न हो। कवि उद्भ्रांत ने अपनी दूरदर्शिता के आधार पर सुमित्रा के इस निर्णय को सही ठहराने की कोशिश अवश्य की है कि चाहे अयोध्या का महाराज राम बने या भरत बने, दोनों ही अवस्थाओं में उनका एक पुत्र अवश्य महाराज का परम विश्वसनीय होगा और वह उसके दूसरे सहोदर का अनिष्ट नहीं होने देगा, किसी भी परिस्थिति में। इस तरह वह राजमाता भले ही न बने मगर राजमासी तो अवश्य बनी रहेगी। मगर उसे पता नहीं था कि कैकेयी की कुत्सित कूटनीति और लक्ष्मण के अटूट भ्रातृप्रेम के कारण उसकी बहू उर्मिला को चौदह वर्षों का एक लंबा एकांत वास भोगना होगा। इसका एक और दुष्परिणाम यह सामने आया कि राम के वनवास के प्रारम्भिक वर्षों में प्रजा जनों में भरत के प्रति तीव्र आक्रोश व असंतोष की लहर फैली, वरन् अपने प्राणों से भी प्रिय भाई से लंबे बिछोह के साथ-साथ राजलिप्सा के व्यर्थ आरोप का सामना करना पड़ा। इस तरह विश्लेषण करके कवि उद्भ्रांत ने तत्कालीन सामाजिक व्यवस्थाओं के साथ-साथ मानवीय सम्बन्धों पर भी दृष्टिपात किया है। मगर सुमित्रा के संदर्भ में एक बात फिर भी उनसे छूट गई लगती है क्योंकि सुमित्रा पूरी तरह से असमंजस की स्थिति में थीं। राम के साथ लक्ष्मण के वन में जाने की अनुमति के समय राम-चरित मानस में सुमित्रा के विशाल हृदय का विशद वर्णन देखने को मिलता है। 

“तात तुम्हारी मातु बैदेही। पिता रामू सब भाँति सनेही॥
अवध तहाँ जहाँ राम निवासु। तहहूँ दिवसु जहें आनु प्रकासु॥
जौ पै सीय रामू बन जाहीं। अवध तुम्हार काजु कछु नाहीं॥
गुरु पितृ माह बंधु सुर साईं। सेईअहिं सकल प्रान की नाई॥” 

इसके अतिरिक्त सुमित्रा जी के व्यक्तित्व के कुछ अनछुए पहलुओं पर कवि उद्भ्रांत जी का ध्यान नहीं गया है। जैसे:

 चित्रकूट में माता सुमित्रा कैकेयी पर अपार रोष में जल रही जनक की महारानी अर्थात्‌ सीता की माँ महारानी सुनैना के मन को ‘देवी जाम जुग जामिनी जीती’ कहकर उसके उद्विग्न मन को शांत कर उस प्रसंग को वही समाप्त कर देती है, जबकि कौशल्या यह काम नहीं कर पाती है। और ‘सुनैना सुनिअ सुधा, देखी गरल’ के समान, कटु उक्तियाँ सुनाती जाती हैं। जब लक्ष्मण के मूर्छित होने की ख़बर सुमित्रा को मिलती है और उनकी जान बचाने के लिए संजीवनी लेकर जाते हुए हनुमान जी को भरत के बाण से आहत होकर गिरना पड़ता है, उस समय सुमित्रा की विचित्र मनोदशा का वर्णन कवि की कल्पना से पता नहीं क्यों परे रह गया। “छिन-छिन गात-सुखात मातुके छिन-छिन होत हरे हैं।” अर्थात्‌ सुमित्रा यह सुनकर प्रसन्नता से खिल उठती है कि मेरे पुत्र लक्ष्मण राम के लिए युद्ध में वीरता पूर्वक लड़ते हुए बेहोश हो गए हैं। इनके इस कृत्य पर राम को एकाकी पाकर उनका मुख सूख जाता है। पर यह सोचकर, क्या चिंता, अभी शत्रुघ्न तो है ही। वह अपने पुत्र को “तात जाहु कपि संग” कहकर आज्ञा दे देती हैं। यह तो अच्छा हुआ कि महर्षि वशिष्ठ ने उन्हें लंका भेजने से रोक दिया।

इस प्रसंग को नज़र अंदाज़ कर नारी के मन की संवेदना को स्पर्श नहीं कर पाए। 

लक्ष्मण को आज्ञा देते समय सुमित्रा ने कहा था, “राम सीय सेवा सूची है हो, तत्र जानिहों सही सुत मेरे।” और इस सेवा की अग्नि में तपकर जब उनका लाल कंचन की भाँति अधिक उज्ज्वल होकर लौटा, तभी उन्होंने उसे हृदय से लगाया। 

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