त्रेता: एक सम्यक मूल्यांकन (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
पच्चीसवाँ सर्ग: मैं जननी शम्बूक की: दलित विमर्श की महागाथा
अधिकांश पाठकों को शम्बूक के बारे में जानकारी नहीं है। शम्बूक रामकथा का एक काला अध्याय है। जो तत्कालीन समाज की जाति-प्रथा पर सवाल उठाता है कि अयोध्या के महाराज रामचन्द्र के आदि पुरखे स्वायंभुव-मनु ने मनुसंहिता लिखी और उसके अनुसार समाज-रूपी पुरुष का मुख ब्राह्मण, हाथ क्षत्रिय, उदर वैश्य और जाँघ शूद्र है। ब्राह्मणों के कर्म में वेदाध्ययन, तपश्चर्या, राजदरबारों के कारोबार, पंडिताई और दक्षिणा लेकर जीवनयापन करना, क्षत्रियों को राजा के हित में तलवार उठाना तथा वैश्य को व्यापार एवं शूद्र को समाज की गंदगी साफ़ करने का निर्देश दिया गया था। शम्बूक की माँ शूद्र थी। वह ऊँची जातियों के साथ बैठ नहीं सकती थी, वैवाहिक सम्बन्ध तो दूर की बात, साथ में बैठकर भोजन करने का भी अधिकार नहीं था, मंदिर जाने में भी प्रतिबंध था। ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य दूर-दूर से खड़े होकर बातें करते हैं। तथा अस्पृश्यता तो इतनी भयानक थी कि उनके लिए पानी की व्यवस्था भी अलग से की जाती थी। इस तरह का सामाजिक विभाजन देखकर दस ग्यारह वर्षीय शम्बूक सदियों से चली आ रही भेद-भाव की रीति पर सवाल पूछता तो उसकी माँ या तो चुप रहकर या फिर हँसी-मज़ाक में टाल देती थी। शम्बूक का पिता अपने जाति-भाइयों के साथ सिर झुकाकर अपने को तुच्छ समझे जाने वाले काम करता जाता था। भले ही उसे गंदी-गंदी गालियाँ या झिड़कियाँ क्यों न मिले। रामराज्य में ये सारी विसंगतियाँ विडम्बनाएँ भरी हुई थीं।
मगर शम्बूक बचपन से गंभीर, अपने आप में खोया हुआ, ऋषि आश्रम में वेदाध्ययन करते बच्चों को देख भावपूर्ण होकर एकांत में वेदों की वाणी सुना करता था। शम्बूक की यह क्रिया–कल्पना देखकर उसकी माँ मन ही मन काँपने लगती थी और उसे भयभीत होकर समझाने का प्रयास करती कि वह इस तरह का “असामाजिक दृष्टि वाला जघन्य कर्म न करे।” शम्बूक जिज्ञासा-वश अपनी माँ से सवाल करता था कि अगर समाज का मुख ब्राह्मण है तो उसे पेट भरने की क्या ज़रूरत है? उनकी सारी रुचि, क्रियाएँ जब हमारी तरह ही हैं तो हमारे और उनके बीच में यह अंतर क्यों है? जब हमारे मुख, आँख, नाक, कर्ण, उदर, पाँव, जननेन्द्रिय सभी ऐसी ही हैं जैसे ब्राह्मणों के, तब हमें मंदिर में जाने से क्यों रोका जाता है? अगर हमारे पाँव हैं, तो क्या अगड़ी जतियों के लोगों के पाँव नहीं हैं? क्या ब्राह्मण मंदिरों में, क्षत्रिय युद्ध भूमि में और वैश्य व्यापार करने के लिए जिन पाँवों का सहारा लेते हैं, क्या वे पाँव हमारे नहीं है? अगर हमारी हमारी मदद से उनके कर्मों का सफल सम्पादन होता है तो फिर हम किस तरह से हीन है? जिस तरह सारी इंद्रियों के पारस्परिक सामंजस्य होने के बाद ही छोटे से छोटे कार्य को संपादित किया जाता है। इसी तरह मनुष्य के सारे अंग एक दूसरे से सामंजस्य बैठाकर अपने कार्य का निष्पादन करते हैं। हमारे शरीर का मस्तिष्क शरीर के समस्त अंगों को विधि पूर्वक काम करने के लिय निर्देश देता है, तो क्या उन अंगों की अनुशासनप्रियता को मानदंड मानकर क्या हीन समझा जाएगा? क्या यह एक संस्कार नहीं है? रामराज्य में इन चीज़ों को सम्मान नहीं मिलना चाहिए?
इस तरह के तर्क सुनकर शम्बूक की निरक्षर माता कुछ समझ नहीं पाती थी। मगर उसे लगता था कि वह छोटा–सा बालक ग़लत नहीं बोल रहा है, कहीं ऐसा तो नहीं है कि गुरुकुल आश्रम के पीछे छुपकर जो वह सुनता है, उसी शिक्षा की प्रतिक्रिया तो नहीं है? सदियों से चले आने वाले सूर्यवंशियों के सर्वश्रेष्ठ राजा राम के अयोध्या के शासन में अगर जात-पाँत, भेद-भाव, छुआ-छूत, आर्य-अनार्य के झगड़े नित्य गली-मुहल्ले, गाँव-नगर में देखने को मिलते हैं, तो रामराज्य का क्या अर्थ रह जाता है? क्या शूद्रों को विकसित जतियों की तरह सोचने का अधिकार भी नहीं है? शम्बूक का यह अंतर्द्वंद्व, उसके मस्तिष्क में उठ रहे झंझावात, किसी नए समाज की रचना हेतु स्वस्थ संविधान के रूप में मनुस्मृति को हटाकर शम्बूक-संहिता रचने का इरादा तो नहीं है? शम्बूक समाज की मुख्य धारा में जुड़ना चाहता था और उसके यह क्रांतिकारी विचार माँ-पुत्र की उग्र मनस्थिति को दर्शाते थे। एक बार जब अयोध्या में अकाल पड़ा, दूर-दूर तक बादल दिखाई देने का नाम नहीं ले रहे थे, जो बादल गरजते थे, भी बरसते नहीं थे। किसानों के घर के चूल्हे उदास थे। गायें कृशकाय हो गई थीं और मवेशी काल के कराल-गाल में समाते जा रहे थे। तब इन्द्र को दंडित करने के लिए ध्यान लगाकर कठिन तपस्या करने लगे। वे दिन राम राज्य के लिए अत्यन्त ही भयानक दिन थे। शम्बूक का परिवार भी अकाल की चपेट में आ गया। ऋण लेकर वे अपना घर परिवार पालने लगे। उस दौरान शम्बूक सुबह जल्दी निकल जाता था और रात को देर से आता था। जब उसे इस बारे में पूछा जाता था तो वह कुछ भी उत्तर नहीं देता था। एक बार उसके पिता ने उसे बड़े वटवृक्ष के नीचे पद्मासन लगाकर ॐ का सघोष उच्चारण करते हुए तपस्या में लीन देखा, तो उनके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी। शम्बूक की समाधि का यह समाचार जंगल की आग की तरह समाज के कोने-कोने में पहुँच गया और तत्कालीन समाज के समक्ष एक प्रश्नवाचक बनकर पुनः उठाने लगा कि त्रेता के इस युग में जब एक शूद्र तप करेगा, तो सारी सृष्टि उलट-पुलट क्यों नहीं होगी? जल की जगह बादल अग्नि-स्फुलिंग की वर्षा करेंगे। नदियों में आग बहेगी, हिमालय में ज्वालामुखी फूटेगी, रामराज्य में रावण के राज का आधिपत्य होगा। कारण-एक शूद्र जंगल में तप कर रहा है, तो मनुस्मृति से संरक्षित महान भारत देश को पतन के गर्त में गिरने से कौन रोक पाएगा? ‘मनुस्मृति’ की निरर्थकता को कवि उद्भ्रांत जी अपने शब्दों में लिखते हैं:
“मनुस्मृति कहती है—
हम ही वे पाँव हैं, तो—
बाम्हन के, क्षत्रिय और वैश्य के
निर्धारित कर्म,
होते संपन्न क्या—
हमारे ही द्वारा नहीं?”
“और अगर हमारी ही मदद से
कर्मों का होता सफल संपादन,
तो फिर हम—
हीन किस तरह से है?”
शम्बूक की साधना देखकर गाँव वाले लोग उसकी माँ पर भी व्यंग्यबाण छोड़ने से नहीं चूकते थे। वे कहते थे—तेरे बेटे की साधना से इन्द्र का आसन हिल रहा है, तेरा बेटा भी विश्वामित्र की राह पर चल पड़ा है। लोग तुझे अब शूद्र की माँ न कहकर इन्द्र की माँ कहेंगे। तेरे नाम का डंका चारों ओर बजेगा। इस तरह-तरह वेधक तीर जैसी बातों दवारा शम्बूक के माता-पिता पर आक्रमण किया जाता था। इन आक्षेपों से बचने के लिए एक दिन शम्बूक की माँ ने निर्णय लिया कि राम के दरबार में गुहार लगाई जाए कि एक दलित जाति के बच्चे को अपने बाल-मन के अनुसार जीवन जीने का भी अधिकार नहीं है? उसने ऐसा क्या भीषण अपराध कर लिया कि उसकी अभागी माता को समाज के लोगों द्वारा व्यंग्योक्तियों और लोकोक्तियों का शिकार होना पड़ा। इससे बेहतर तो उसके लिए ज़हर खाकर मरना ज़्यादा उचित है। जब शम्बूक की माँ ने इस सामाजिक अन्याय के विरोध में राम के दरबार में गुहार लगाई तो उसे प्रतीक्षा करने के लिए कहा गया। उसे लगने लगा ‘क्या राम भी बलवान लोगों का साथ देते हैं, निर्बलों का नहीं? क्या रामराज्य में भी उसे न्याय नहीं मिल पाएगा?’ अन्ततः जब उसे राम जी के सभाकक्ष में बुलाया गया तो उस समय सभा में वशिष्ठ, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न, हनुमान, मंत्री सुमन्त मौजूद थे। इसके अतिरिक्त, गाँव के बाहुबली, ब्राह्मण, मुखिया, व्यापारी, सेठ, मौजूद थे, मगर सीता अनुपस्थित थी। इससे पहले कि शम्बूक कि माँ अपनी बात रखती उससे पूर्व ही गाँव के मुखिया ब्राह्मण ने बोलना शुरू कर दिया कि यह तो शम्बूक की ही माँ है, जिसके पुत्र द्वारा समाज विरोधी कार्य किया जा रहा है। जिसके कारण राज्य में दुर्भिक्ष फैला है। बारिश नहीं हो रही है, राम-राज्य की उदारता का लाभ उठाकर अगर कोई शूद्र तपस्या करेगा तो ब्राह्मण क्या करेंगे? व्यापारियों का व्यापार ठप्प हो जाएगा, क्योंकि उनके अधिकांश ग्राहक तो ब्राह्मण और क्षत्रिय ही हैं। शम्बूक के कारण समाज का प्रगति चक्र रुक जाएगा। तरह-तरह की दलीलें देने के बाद समाज के तीनों वर्ग के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के स्वयंभू प्रभुओं ने आधी रात को गुपचुप मंत्रणा कर नमक-मिर्च लगाकर राम के चिंतन को पूर्वाग्रह से युक्त करने का सफल प्रयास किया। तब राम ने अपनी मधुर वाणी में शम्बूक की माँ को कहा कि मुझे कई विश्वसनीय सूत्रों से पता चला है कि तुम्हारा बेटा कोई अपवित्र यज्ञ कर रहा है, जिसके कारण समाज में बवंडर उठने वाला है। इसलिए इस विषय पर विस्तार से चर्चा करने के लिए मैंने मंत्री-परिषद की आपात बैठक बुलाई है, ताकि समूचे समाज का हित किया जा सके। शम्बूक की माँ अपना पक्ष रखती हुई कहने लगी कि गाँव का मुखिया तो मुझे शम्बूक को जन्म देने के लिए आपके समक्ष दोषी सिद्ध कर चुका है। मेरा बेटा शम्बूक जिज्ञासु प्रवृत्ति का है। समाज की दुविधाओं, विडम्बनाओं और विचित्रताओं को देखकर उसके मन से हज़ारों सवाल उठते हैं। वह दूसरों का कष्ट देखकर ख़ुद दुःखी हो जाता है। उसका बेचैन हृदय समाज के कठिन प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए तड़पता है। ऐसा मेरे बेटे ने क्या अक्षम्य अपराध कर लिया? उसे दंड देने से पूर्व आप मुझे दंड दें। शम्बूक की माँ का पक्ष सुनने के बाद राम ने उसे आश्वासन देकर घर लौटा दिया कि उसके साथ किसी भी तरह का कोई अन्याय नहीं होगा। इससे पूर्व कि वह अपनी कुटिया में पहुँचती उससे पहले ही गाँव के बलिष्ठ, हृष्ट-पुष्ट ऊँची जाति के लोगों ने लाठियाँ बरसा कर उसके पति की नृशंस हत्या कर दी। इस नृशंस दृश्य का आँखों देखा वर्णन कवि की निम्न पंक्तियों से झलकता है:
“पहुँची जब कुटिया में अपनी तो
देखा शंबूक के पिता को
रक्त से लथपथ;
मेरी जाति के अनेक लोग वहाँ
उपस्थित थे आसपास,
जिन्होंने बताया मुझे—
‘गांव के बलिष्ठ हृष्ट-पुष्ट कई लोग ऊँची जातियों के
आए थे थोड़ी देर पहले ही
लाठियों से लैस हो,
और उन्होंने उसकी
कर दी हत्या नृशंस
बिन कहे-सुने कुछ भी!”
क्या वह वापस राम के दरबार जाएगी? शम्बूक को जन्म देने के लिये उसके पति को अपराधी मानकर मार दिया गया। जैसे–तैसे पति की लाश को श्मशान घाट में चिता पर जला रही थी, वैसे-वैसे उसे न्याय की आशा भी आग की लपटों में जलते हुए नज़र आती थी। इस बात की सूचना कैसे अपने ही बेटे को दे पाती और कैसे समझा पाती कि तप-वप में क्या रखा है, यह तो पूर्ण अन्यापूर्ण कार्य है। तुम तो युवा हो और तुम्हें अपनी युवाशक्ति का रचनात्मक सदुपयोग करना चाहिये। कोई कार्य तुच्छ माने जाने पर भी तुच्छ नहीं होता, जब तक उसे तन्मय होकर एकनिष्ठ भाव से नहीं किया जाता है। दूसरी तरफ़ माँ की ममता उसे समझाने लगती है कि जब बालक ने कुछ करने का ठान ही लिया है तो उसे क्यों रोका जाए? जिसकी वजह से किसी का अहित तो नहीं होता, वह तो अपनी आत्म-शुद्धि करना चाहता है और आख़िर कब तक करेगा वह? वह नई ऊर्जा, नए तेज और नव्यतम स्वर के साथ स्वप्नलोक में लौट आएगा और अनुत्पादक, अनुपयोगी, असफल सिद्ध हो चुकी तथा-कथित तपस्या से कुछ सार्थक संकेत ग्रहण करेगा। यह सोचते-सोचते जब वह श्मशान घाट से घर लौटी तो एकाकीपन की अनुभूति उसके ऊपर क्रूर संघात करने लगी और उसके समाज के निर्बल लोग आँखों में आँसू लिए, कतराते और असहायता के साथ गोल घेरा बनाकर खड़े थे, उनके चेहरे की हवाइयाँ उड़ी हुई थीं। तभी एक वृद्ध पड़ोसी ने उसे कहा कि राम के मंत्री परिषद ने शम्बूक को एक स्वर में समाजद्रोही घोषित किया है कि उसे बिना किसी को बताए सामाजिक विनियमों का उल्लंघन कर शिव की तपस्या के पावनतम कर्म को पूजन-अर्चन की मान्य विधियों से दूर रहकर, अपवित्र करने का अभूतपूर्व अपराधी घोषित किया है और उसके इस अपराध के कारण समाज में हर जगह अव्यवस्था, अशांति और अपरिपक्व क्रांति का ख़तरा मँडरा रहा है। मंत्री-परिषद की इस संस्तुति को मानकर राम ने भयंकर अपराध के लिए कठोरतम दंड देने का निर्णय लिया है। शम्बूक की माँ अविलम्ब किंकर्तव्यविमूढ़ होकर उस जगह पहुँची, जहाँ उसका बेटा वटवृक्ष के नीचे बैठकर तप कर रहा था। जिसके चारों ओर अयोध्या के विशिष्ट नागरिक, सम्भ्रान्त व्यक्ति, समूचा मंत्री परिषद, सशस्त्र सैनिक, घुड़ सवार, महर्षि वशिष्ठ, लक्ष्मण, शत्रुघ्न, सुमन्त सभी खड़े थे और शम्बूक के सामने इस युग के सर्वश्रेष्ठ मानव, सूर्यवंश के गौरव, मर्यादा पुरषोत्तम राम अपने दायें हाथ में तलवार तानकर खड़े थे, जिन्हें रावण पर विजय के उपरांत बढ़ती लोकप्रियता को देखकर लोगों ने भगवान तक कहना शुरू कर दिया था।
“खड़े थे तपस्या-लीन
शंबूक के समक्ष
दाएँ हाथ में खींचे तलवार—
इस योग के सर्वश्रेष्ठ मानव,
सूर्यवंशियों के गौरव
मर्यादा पुरुषोत्तम राम;
जिनकी रावण पर विजय के उपरांत
बढ़ी थी जनप्रियता इतनी—
कि उनको लोगों ने
शुरू कर दिया था कहना—
भगवान ही!”
शम्बूक कहता था—मनुस्मृति के अनुसार राजा, प्रजा के लिए भगवान का स्वरूप ही होता है, जिस तरह पिता के लिए एक पुत्र। भगवान राम उसे वर देने के लिए वहाँ नहीं खड़े थे, वरन् ॐ नमः शिवाय का जप करनेवाले उसके अपवित्र शीश को धड़ से पृथक करने के लिए खड़े थे। भगवान राम अपने राज्य में ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों को अभयदान देकर अपनी मर्यादा की स्थापना करने तथा शम्बूक की माँ की तरह निर्बल, असहाय, अनगिनत शूद्रों को अपनी सीमा में रहने की अपरोक्ष चेतावनी दे रहे थे। आख़िरकार त्रेता युग में जो कुछ भी राम कहेंगे वे भगवान के वचन होंगे। उनका यश सभी दिशाओं में फैलेगा। जिसके तप में शम्बूक की माँ की आत्मा झुलसकर हमेशा-हमेशा बंद हो जाएगी और आने वाले किसी युग में खुलने का इंतज़ार करेगी।
“शंबूक ने बताया था
‘मनुस्मृति कहती है-
अपनी प्रजा के लिए
राजा तो होता भगवान का स्वरूप ही;
पिता-
पुत्र के लिए
होता जिस तरह से।’
साधना में,
चिंतन में आत्मलीन
अपनी ही प्रजा एक बेसुध जन,
एक पुत्र
एक भक्त के समक्ष”
शम्बूक की कथा वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड में मिलती है। शम्बूक की कथा भवभूति जैसे प्राचीन संस्कृत नाटककारों की रचनाओं में तथा मध्ययुगीन क्षत्रिय रामायण में मिलती है। इन नाटकों में राम के इस कार्य को राजकीय कर्त्तव्य के रूप में निष्पादित करते हुए सही ठहराया है। भक्ति साहित्य में शम्बूक को भगवान के हाथों द्वारा मारे जाने के कारण जन्म–मरण के बंधनों से मुक्त होते दर्शाया गया है। आधुनिक समय में रामायण की यह कहानी तत्कालीन घोर जातिवाद के पक्षपात के रूप में देखी जाती है। ई.व. रामस्वामी (E.V. Ramaswami) के अनुसार यह कथा बताती है कि राम इतने अच्छे राजा नहीं थे, जितना उनके बारे में बताया जाता है। डॉ. भीमराव अंबेडकर का मानना है, यह कथा राम के चरित्र का न केवल उल्लेख करती है, बल्कि उस युग में जाति-प्रथा को जीवित रखने के लिए हिंसा के प्रयोग पर बल देती है। रामायण न केवल जातीय समुदाय का पक्ष लेती है बल्कि उसे बनाए रखने का भी प्रयास करती है। क्योंकि पारंपरिक तौर पर जातियों में अदल-बदल होने का अर्थ सामाजिक स्थायित्व को नष्ट करना है। यहाँ तक कि जातीय स्तर भारतीय इतिहास में विभिन्न जातीय समुदायों के ब्राह्मणों में परिवर्तित होती रही है। न केवल ब्राह्मण बल्कि ज़मींदार जातियाँ भी सामाजिक रूप से स्वीकृत जैसे शाकाहार को मानने लगी। भारतीय समाज शास्त्र विशेषज्ञ के अनुसार इसे संस्कृतिकरण कहते हैं। मगर पाश्चात्य विद्वान इसे ब्राह्मणीकरण कहना ज़्यादा पसंद करते हैं। रामायण में समाज के नीचे तबक़े के सदस्यों का भी संदर्भ मिलता है। जैसे केवट गुह, आदिवासी, शबरी और कुछ लोग वाल्मीकि, वानर और राक्षस का भी उल्लेख करते हैं। राम का सम्बन्ध हर किसी के साथ अलग-अलग है। क़ानून से हटकर भावनात्मक स्थल पर। राम के राजा बनने के बाद शम्बूक की घटना एक घोर अपवाद है। उद्भ्रांतजी की मर्मस्पर्शी पंक्तियाँ इसकी व्याख्या करती हैं:
“खड़े थे भगवान-
उसे वर देने नहीं-
‘ओम नमः शिवाय’
का जाप करने वाले
उसके अपवित्र शीश को
उसके धड़ से
पृथक करने!
सुस्थापित करने मर्यादा,
और भी सुदृढ़ करने रामराज्य,
ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों को देने अभयदान
और मेरे जैसे निर्बल, असहाय
अनगिनती शूद्रों को
देते हुए
-परोक्ष नहीं-
प्रत्यक्ष चेतावनी-
अपनी सीमा में रहने के लिए!
अंततः यह त्रेतायुग
राग का;
इस युग में
राम जो करेंगे
नीति-सम्मत वही होगा,
कहेंगे जो कुछ भी-
वह भगवान के वचन होंगे!
उनके चक्रवर्ती यश का सूर्य
चमक रहा सब दिशाओं में,
जिसके प्रचंड ताप से
झुलसती मेरी आत्मा;
और जिसके तीव्र प्रकाश से चौंधियाकर
बंद हो चुकीं आँखें मेरी
सदा के लिए-
खुलने के लिए
किसी आने वाले युग में।”
विषय सूची
- कवि उद्भ्रांत, मिथक और समकालीनता
- पहला सर्ग: त्रेता– एक युगीन विवेचन
- दूसरा सर्ग: रेणुका की त्रासदी
- तीसरा सर्ग: भवानी का संशयग्रस्त मन
- चौथा सर्ग: अनुसूया ने शाप दिया महालक्ष्मी को
- पाँचवाँ सर्ग: कौशल्या का अंतर्द्वंद्व
- छठा सर्ग: सुमित्रा की दूरदर्शिता
- सातवाँ सर्ग: महत्त्वाकांक्षिणी कैकेयी की क्रूरता
- आठवाँ सर्ग: रावण की बहन ताड़का
- नौवां सर्ग: अहिल्या के साथ इंद्र का छल
- दसवाँ सर्ग: मंथरा की कुटिलता
- ग्यारहवाँ सर्ग: श्रुतिकीर्ति को नहीं मिली कीर्ति
- बारहवाँ सर्ग: उर्मिला का तप
- तेरहवाँ सर्ग: माण्डवी की वेदना
- चौदहवाँ सर्ग: शान्ता: स्त्री विमर्श की करुणगाथा
- पंद्रहवाँ सर्ग: सीता का महाआख्यान
- सोलहवाँ सर्ग: शबरी का साहस
- सत्रहवाँ सर्ग: शूर्पणखा की महत्त्वाकांक्षा
- अठारहवाँ सर्ग: पंचकन्या तारा
- उन्नीसवाँ सर्ग: सुरसा की हनुमत परीक्षा
- बीसवाँ सर्ग: रावण की गुप्तचर लंकिनी
- बाईसवाँ सर्ग: मन्दोदरी:नैतिकता का पाठ
- तेइसवाँ सर्ग: सुलोचना का दुख
- चौबीसवाँ सर्ग: धोबिन का सत्य
- पच्चीसवाँ सर्ग: मैं जननी शम्बूक की: दलित विमर्श की महागाथा
- छब्बीसवाँ सर्ग: उपसंहार: त्रेता में कलि
लेखक की कृतियाँ
- साहित्यिक आलेख
-
- अमेरिकन जीवन-शैली को खंगालती कहानियाँ
- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की ‘विज्ञान-वार्ता’
- आधी दुनिया के सवाल : जवाब हैं किसके पास?
- कुछ स्मृतियाँ: डॉ. दिनेश्वर प्रसाद जी के साथ
- गिरीश पंकज के प्रसिद्ध उपन्यास ‘एक गाय की आत्मकथा’ की यथार्थ गाथा
- डॉ. विमला भण्डारी का काव्य-संसार
- दुनिया की आधी आबादी को चुनौती देती हुई कविताएँ: प्रोफ़ेसर असीम रंजन पारही का कविता—संग्रह ‘पिताओं और पुत्रों की’
- धर्म के नाम पर ख़तरे में मानवता: ‘जेहादन एवम् अन्य कहानियाँ’
- प्रोफ़ेसर प्रभा पंत के बाल साहित्य से गुज़रते हुए . . .
- भारत के उत्तर से दक्षिण तक एकता के सूत्र तलाशता डॉ. नीता चौबीसा का यात्रा-वृत्तान्त: ‘सप्तरथी का प्रवास’
- रेत समाधि : कथानक, भाषा-शिल्प एवं अनुवाद
- वृत्तीय विवेचन ‘अथर्वा’ का
- सात समुंदर पार से तोतों के गणतांत्रिक देश की पड़ताल
- सोद्देश्यपरक दीर्घ कहानियों के प्रमुख स्तम्भ: श्री हरिचरण प्रकाश
- पुस्तक समीक्षा
-
- उद्भ्रांत के पत्रों का संसार: ‘हम गवाह चिट्ठियों के उस सुनहरे दौर के’
- डॉ. आर.डी. सैनी का उपन्यास ‘प्रिय ओलिव’: जैव-मैत्री का अद्वितीय उदाहरण
- डॉ. आर.डी. सैनी के शैक्षिक-उपन्यास ‘किताब’ पर सम्यक दृष्टि
- नारी-विमर्श और नारी उद्यमिता के नए आयाम गढ़ता उपन्यास: ‘बेनज़ीर: दरिया किनारे का ख़्वाब’
- प्रवासी लेखक श्री सुमन कुमार घई के कहानी-संग्रह ‘वह लावारिस नहीं थी’ से गुज़रते हुए
- प्रोफ़ेसर नरेश भार्गव की ‘काक-दृष्टि’ पर एक दृष्टि
- वसुधैव कुटुंबकम् का नाद-घोष करती हुई कहानियाँ: प्रवासी कथाकार शैलजा सक्सेना का कहानी-संग्रह ‘लेबनान की वो रात और अन्य कहानियाँ’
- सपनें, कामुकता और पुरुषों के मनोविज्ञान की टोह लेता दिव्या माथुर का अद्यतन उपन्यास ‘तिलिस्म’
- बात-चीत
- ऐतिहासिक
- कार्यक्रम रिपोर्ट
- अनूदित कहानी
- अनूदित कविता
- यात्रा-संस्मरण
-
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 2
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 3
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 4
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 5
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 1
- रिपोर्ताज
- विडियो
-
- ऑडियो
-