गाँधी: महात्मा एवं सत्यधर्मी (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
5. “चलो, फुटबॉल खेलते हैं” : गांधीजी
जून, 2010।
पूरे विश्व में एक असाधारण उत्साह और उमंग की लहर चल रही थी। वजह थी कि 2010 में फुटबॉल वर्ल्ड कप होने वाला था। दक्षिण अफ़्रीका में पहली बार आयोजित विश्व कप फुटबॉल ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था। उद्घाटन समारोह का आयोजन जोहान्सबर्ग में किया गया था। आयोजन संस्था फ़ीफ़ा ने इस अवसर पर एक विशेष स्मारिका का अनावरण किया। उस ख़ूबसूरत स्मारिका के अंदर, पहले पृष्ठ पर, विश्व नायक की छवि, जिन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की गई थी।
वह विश्व नायक थे महात्मा गाँधी। इस असाधारण घटना से पूरी दुनिया स्तब्ध और आश्चर्यचकित थी। सभी के मन में एक जिज्ञासा जन्म ले रही थी कि महात्मा गाँधी का फुटबॉल से क्या सम्बन्ध है? मोहन दास करमचंद गाँधी सन् 1893 में दक्षिण अफ़्रीका के डरबन के निकट पोर्ट नेटाल पहुँचे थे। उस समय वह इंग्लैंड से पढ़कर लौटने वाले बैरिस्टर थे। आयु थी चौबीस साल। दादा अब्दुल एंड कंपनी ने 105 पाउंड के पारिश्रमिक पर दक्षिण अफ़्रीका में केस लड़ने के लिए मोहन दास करमचंद गाँधी को नियोजित किया था। मोहन दास करमचंद गाँधी ने वहाँ रंगभेद नीति का विकराल रूप देखा। वहाँ उन्होंने अपनी आँखों से दक्षिण अफ़्रीका में भारतीयों के दुख और अपमान को देखा। गाँधीजी ने अपनी आत्मकथा में इसका वर्णन किया है यह लिखते हुए, “जब मैं पोर्ट नेटाल पहुँचा तो मैंने देखा कि कई भारतीय अपने दोस्तों, रिश्तेदारों, परिचितों और परिजनों के स्वागत के लिए वहाँ आ रहे थे, लेकिन भारतीयों के साथ तिरस्कार और अनादर का व्यवहार किया जा रहा था।”
1893 में दक्षिण अफ़्रीका पहुँचने के बाद, मोहनदास करमचंद गाँधी को नस्लवाद और पक्षपात का शिकार होना पड़ा। सेंट पीटर्स मोरित्ज़बर्ग स्टेशन पर उन्हें प्रथम श्रेणी के रेल के डिब्बे से नीचे फेंक दिया गया था। एक घनघोर अँधेरी रात और हाड़-कँपाती शीत में मोहन दास करमचंद गाँधी ने सारी रात जागते हुए काटी थी। और भारतीयों की वास्तविक और अकथनीय दुर्दशा को हृदयंगम किया। उस दिन उन्होंने अहिंसक तरीक़े से नस्लवाद के ख़िलाफ़ लड़ने का दृढ़ निर्णय लिया। दृढ़संकल्प वाले मोहनदास करमंद गाँधी ने सोचा कि दक्षिण अफ़्रीका में सभी भारतीयों को कैसे संगठित किया जाए?
सन् 1896 उनके दक्षिण अफ़्रीका के प्रवास का यह तीसरा वर्ष था। उस वर्ष मोहन उन्होंने आश्चर्यजनक रूप से एक फुटबॉल क्लब की स्थापना की थी!!! कुछ दोस्तों के साथ ट्रांसवाल इंडियन फुटबॉल एसोसिएशन की शुरूआत की थी, गाँधीजी को ख़ुद को फुटबॉल बहुत पसंद था। इससे उन्हें शारीरिक परिश्रम के साथ-साथ ख़ुद को अनुशासित करने में मदद मिलती थी। इसके अलावा, फुटबॉल खेलना ‘स्पोर्ट्समैनशिप’ मानसिकता को भी पुष्ट करता है, “स्पोर्ट्समैनशिप’ मानसिकता का मतलब जीवन में प्रतिद्वंद्वी संघर्ष को उदार हृदय से स्वीकार करने और उन्हें सम्मान देने के मनोभाव गाँधीजी ने अपने सम्पूर्ण जीवन और राजनीतिक गतिविधियों में हमेशा बनाए रखा।
1896 में फुटबॉल क्लब की स्थापना के समय गाँधीजी ने महसूस किया कि फुटबॉल क्लबों और खेलों के माध्यम से दक्षिण अफ़्रीका में भारतीयों के बीच समानता के अधिकार और एकता के सिद्धांत को लोकप्रिय बनाया जा सकता है। और फुटबॉल खेलने से आने वाले ‘शृंखला ज्ञान द्वारा अहिंसा’ नीति को व्यावहारिक रूप से लागू किया जा सकता है। और यह 'व्यक्तिगत हित' से ऊपर उठकर 'सामूहिक हित' के लिए सभी को शामिल करने में मददगार सिद्ध होगा।
गाँधीजी दूरदर्शिता सम्पन्न एक असाधारण नेता थे। गाँधीजी ने दक्षिण अफ़्रीका में डरबन, जोहान्सबर्ग और प्रिटोरिया में तीन फुटबॉल क्लब स्थापित किए थे। 1896 में गैर-गोरों द्वारा स्थापित ट्रांसवाल इंडियन फुटबॉल एसोसिएशन दक्षिण अफ़्रीका का पहला फुटबॉल संघ था। डरबन, जोहान्सबर्ग और प्रिटोरिया में स्थापित तीन फुटबॉल क्लबों को 'पैसिव रजिस्टर्स' नाम दिया गया था। फुटबॉल क्लब का इस्तेमाल गाँधी के सत्याग्रह और असहयोग जैसे उच्च चेतना के सिद्धांतों को प्रचारित करने के लिए किया गया था। गाँधी जी का यह कृत्य एक अभूतपूर्व और असाधारण 'राजनीतिक अस्त्र' था। गाँधीजी ने फुटबॉल क्लब का इस्तेमाल ब्रिटिश सरकार की अलगाव-विरोधी और यहूदी-विरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ किया। इसलिए 1896 तक गाँधीजी एक समझदार राजनीतिक नेता बन गए थे। इसके साथ ही गाँधीजी एक दृढ़ और मज़बूत दिमाग़ वाले सेनानी के रूप में उभरे। मुँह के स्वभावगत और आंतरिक सिद्धांतों के ख़िलाफ़। इसलिए 1896 तक गाँधीजी एक विचक्षण राजनीतिक नेता बन चुके थे। इसके साथ ही गाँधीजी एक दृढ़ और स्थिरचित्त वाले सेनानी के रूप में उभरे।
सन् 2021 में सद्यः प्रकाशित महात्मा गाँधी के पोते गोपालकृष्ण गाँधी की पुस्तक “गाँधी: रेस्टलेस एज़ मर्करी” प्रकाशित हुई थी। इसमें लेखक गोपाल कृष्ण गाँधी लिखते हैं कि गाँधी जी की एक बहन थी, जिसका नाम था रालियत। उनके शब्दों में, “मोनिया (गाँधीजी के घर वाले सम्मान और स्नेह से गाँधीजी को मोनिया कहकर पुकारते थे) पारा की तरह बेचैन थे . . . एक पल भी शांत स्थिर होकर नहीं बैठ पाते थे।”1 बचपन से ही उनके मन में कुछ नया करने के लिए बेचैन रहता था।
गाँधीजी 18 साल की उम्र में क़ानून की पढ़ाई के लिए पोरबंदर से लंदन गए थे। वहाँ उन्होंने सराय के सर्किल टेम्पल में रहकर क़ानून की पढ़ाई पूरी की। लंदन प्रवास के दौरान गाँधीजी ने फुटबॉल के खेल और इसके विभिन्न नियमों और पहलुओं को क़रीब से देखा और समझा। उस समय फुटबॉल बहुत कम लोगों द्वारा खेला जाता था।
दक्षिण अफ्रीकीन और गाँधीवादी दर्शन की प्रवक्ता रेबेका नायडू के अनुसार, “गाँधीजी अक़्सर फुटबॉल मैच देखने और आनंद लेने के लिए फुटबॉल क्लबों में जाते थे। और खेल से पहले और खेल के बाद वे उपस्थित सभी लोगों को रंगभेद और पक्षपात नीति के ख़िलाफ़ शांतिपूर्ण अहिंसक दृष्टिकोण और असहयोग नीति की आवश्यकता और उपयोगिता के बारे में सरल भाषा में समझाते थे।”
गाँधी जी दक्षिण अफ़्रीका में भारतीयों लोगों को संगठित करने में काफ़ी हद तक सफल रहे। इसमें फुटबॉल खेल और फुटबॉल क्लब ने अहम भूमिका निभाई। दक्षिण अफ़्रीका में गाँधीजी का जीवन बहुत संघर्षमय था। वे ख़ुद रंगभेद नीति के शिकार हुए थे। फिर भारतीयों को संगठित कर एक शक्तिशाली गोष्ठी का गठन कर ब्रिटिश शासन् के विरुद्ध लड़ने के लिए तैयार करना उनकी सांगठानिक दक्षता और साधारण मनुष्य के मन की व्यथा और कथा को समझने की असाधारण शक्ति को दर्शाती है।
ट्रांसवाल इंडियन फुटबॉल एसोसिएशन के अलावा एक और संस्था गाँधीजी के प्रत्यक्ष तत्वावधान में बनी थी। जिसका नाम था क्लिप रिवर डिस्ट्रिक्ट इंडियन फुटबॉल एसोसिएशन। केवल भारतीयों को संगठित करने में गाँधीजी के ये फ़ुटबाल क्लब सहायक सिद्ध हुए थे। 1910 में जोहान्सबर्ग में ‘पैसिव रजिस्टरों’ के बीच एक फुटबॉल खेल आयोजित किया गया था। ये फुटबॉल खिलाड़ी भेदभावपूर्ण नीतियों के विरोध में एक अभिनव पहल के रूप में विश्व के सम्मुख उभरे। साथ ही, दर्शकों से कुछ पैसे एकत्र किए गए, जो जेल गए भारतीयों के परिवारों को आर्थिक सहायता के रूप में प्रदान किए गए थे।
दक्षिण अफ़्रीका एक ऐसी दिव्यभूमि थी, जहाँ मोहनदास करमचंद गाँधी महात्मा गाँधी में रूपांतरित हुए थे। कमज़ोर कदकाठी के महात्मा गाँधी ने फुटबॉल खेलों और क्लबों के माध्यम से पूरे मानव समाज को एक बलिष्ठ दिग्दर्शन देने के साथ-साथ अँग्रेज़ सरकार की अराजकता, पक्षपात और रंगभेद की नीतियों पर सशक्त प्रहार कर विजय प्राप्त की।
गाँधीजी थे सच में एक महान ‘खिलाड़ी’।
सकाल,
1 दिसंबर 2021
(विशेष वार्षिक अंक)
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गाँधी, गोपालकृष्ण (2022); गाँधी: रेस्टलेस एज मर्करी, आलेफ, नई दिल्ली।
विषय सूची
- समर्पित
- कई सवालों के बीच महात्मा गाँधी
- गाँधी: एक अलीक योद्धा
- मोहनदास से महात्मा की यात्रा
- 1. गाँधीजी: सत्यधर्मी
- 2. मोहन दास से महात्मा गाँधी: चेतना के ऊर्ध्वगामी होने की यात्रा
- 3. सत्यधर्मी गाँधी: शताब्दी
- 4. गाँधीजी: अद्वितीय रचनाकार
- 5. “चलो, फुटबॉल खेलते हैं” : गांधीजी
- 6. सौ वर्ष में दो अनन्य घटनाएँ
- 7. महात्मा गाँधी की क़लम
- 8. गाँधीजी और डॉ. कालेनबेक: अध्यात्म-रज्जु पर चलने वाले दो पथिक
- 9. इज़राइल में गाँधी की दोस्ती का स्मृति-चिह्न
- 10. मंडेला की धरती पर भीम भोई एवं गाँधी जी
- 11. एक किताब का जादुई स्पर्श
- 12. गाँधीजी के तीन अचर्चित ओड़िया अनुयायी
- 13. लंडा देहुरी, फ़्रीडा और गाँधीजी
- 14. पार्वती गिरि: ‘बाएरी’ से ‘अग्नि-कन्या’
- 15. गाँधीजी के आध्यात्मिक शिष्य: विनोबा
- 16. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम: विदेशी संग्रामी
- 17. अँग्रेज़ पुलिस को पीटने वाली बरगढ़ की सेनानी बहू: देमती देई शबर
- 18. ‘विद्रोही घाटी' के सेनानी चन्द्रशेखर बेहेरा के घर गाँधी जी का रात्रि प्रवास
- 19. रग-रग में शौर्य:गाँधीजी के पैदल सैनिक और ग्यारह मूर्तियाँ
- 20. पल-दाढ़भाव और आमको-सिमको नरसंहार: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक अनन्य घटना
- 21. “राजकुमार क़ानून” और परिपक्व भारतीय लोकतंत्र
- 22. गंगाधर की “भारती भावना“: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का सारस्वत आलेख
- 23 अंतिम जहलिया: जुहार
लेखक की कृतियाँ
- साहित्यिक आलेख
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- अमेरिकन जीवन-शैली को खंगालती कहानियाँ
- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की ‘विज्ञान-वार्ता’
- आधी दुनिया के सवाल : जवाब हैं किसके पास?
- कुछ स्मृतियाँ: डॉ. दिनेश्वर प्रसाद जी के साथ
- गिरीश पंकज के प्रसिद्ध उपन्यास ‘एक गाय की आत्मकथा’ की यथार्थ गाथा
- डॉ. विमला भण्डारी का काव्य-संसार
- दुनिया की आधी आबादी को चुनौती देती हुई कविताएँ: प्रोफ़ेसर असीम रंजन पारही का कविता—संग्रह ‘पिताओं और पुत्रों की’
- धर्म के नाम पर ख़तरे में मानवता: ‘जेहादन एवम् अन्य कहानियाँ’
- प्रोफ़ेसर प्रभा पंत के बाल साहित्य से गुज़रते हुए . . .
- भारत के उत्तर से दक्षिण तक एकता के सूत्र तलाशता डॉ. नीता चौबीसा का यात्रा-वृत्तान्त: ‘सप्तरथी का प्रवास’
- रेत समाधि : कथानक, भाषा-शिल्प एवं अनुवाद
- वृत्तीय विवेचन ‘अथर्वा’ का
- सात समुंदर पार से तोतों के गणतांत्रिक देश की पड़ताल
- सोद्देश्यपरक दीर्घ कहानियों के प्रमुख स्तम्भ: श्री हरिचरण प्रकाश
- पुस्तक समीक्षा
-
- उद्भ्रांत के पत्रों का संसार: ‘हम गवाह चिट्ठियों के उस सुनहरे दौर के’
- डॉ. आर.डी. सैनी का उपन्यास ‘प्रिय ओलिव’: जैव-मैत्री का अद्वितीय उदाहरण
- डॉ. आर.डी. सैनी के शैक्षिक-उपन्यास ‘किताब’ पर सम्यक दृष्टि
- नारी-विमर्श और नारी उद्यमिता के नए आयाम गढ़ता उपन्यास: ‘बेनज़ीर: दरिया किनारे का ख़्वाब’
- प्रवासी लेखक श्री सुमन कुमार घई के कहानी-संग्रह ‘वह लावारिस नहीं थी’ से गुज़रते हुए
- प्रोफ़ेसर नरेश भार्गव की ‘काक-दृष्टि’ पर एक दृष्टि
- वसुधैव कुटुंबकम् का नाद-घोष करती हुई कहानियाँ: प्रवासी कथाकार शैलजा सक्सेना का कहानी-संग्रह ‘लेबनान की वो रात और अन्य कहानियाँ’
- सपनें, कामुकता और पुरुषों के मनोविज्ञान की टोह लेता दिव्या माथुर का अद्यतन उपन्यास ‘तिलिस्म’
- बात-चीत
- ऐतिहासिक
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- अनूदित कविता
- यात्रा-संस्मरण
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- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 2
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