गाँधी: महात्मा एवं सत्यधर्मी

गाँधी: महात्मा एवं सत्यधर्मी  (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

14. पार्वती गिरि: ‘बाएरी’ से ‘अग्नि-कन्या’

 

सन्‌ 1942 की बात है, सम्लेईपदर गाँव की एक चौदह वर्षीय लड़की अपने बेपरवाह रवैये और ज़िद्दी स्वभाव के कारण ‘बाएरी’ (बाऊरी) के नाम से जानी जाती थी। सम्लेईपदर तत्कालीन संबलपुर और अधुना बरगढ़ ज़िले में बीजेपुर के पास एक अख्यात गाँव था। अपनी मातृभूमि को आज़ाद देखने के लिए किशोरी ‘बाएरी’ का मन तड़प रहा था। उस समय महात्मा गाँधी के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन का नारा उसके कानों तक पहुँच गया था। मन में अदम्य साहस और हृदय में भारत को स्वतंत्र देखने की इच्छा लिए वह गाँव के पास स्थित क़स्बे बरगढ़ चली गई। 

बरगढ़ में एक तरफ़ जीरा नदी बारिश के पानी से उफान पर थी। उसकी परवाह किए बिना ही वह उफनती जीरा नदी को पार करते हुए बरगढ़ शहर के एसडीओ कार्यालय में पहुँची। ब्रिटिश शासन काल में एसडीओ के कार्यालय में हर समय नौकरी पाने वालों की भीड़ लगी रहती थी। भीड़ को काटते हुए वह एसडीओ श्री बी मुखर्जी के सरकारी कार्यालय में पहुँची। ‘बाएरी’ ने एसडीओ की सरकारी कुर्सी पर बैठकर उसके सरकारी कार्यालय को दख़ल कर दिया। अपना परिचय देते हुए कहने लगी, ‘मैं महात्मा गाँधी की सैनिक हूँ।’ उसके बाद ‘बाएरी’ ने उपस्थित पुलिसकर्मियों को एसडीओ को बाँधकर लाने का निर्देश दिया। 

उस दिन ‘बाएरी’ की विशिष्ट पहचान बनी, “अग्नि-कन्या” पार्वती गिरि के रूप में। 

पार्वती गिरि का जन्म 19 जनवरी, 1926 को धनंजय गिरि के घर सम्लेईपदर गाँव में हुआ था। गिरि चौदह वर्ष की आयु से ही स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेना शुरू कर दिया था। उतनी कम उम्र में स्वतंत्रता संग्राम और रचनात्मक कार्यों का प्रशिक्षण लेने हेतु पुण्यपीठ वरी आश्रम में योगदान देने लगी। 

वरी आश्रम से संबलपुर जेल। वहाँ से रिहा होने के बाद पार्वती गिरि महाराष्ट्र के वर्धा में महात्मा गाँधी द्वारा परिकल्पित आश्रम सेवाग्राम पहुँची। पार्वतीगिरि को उनके दृढ़ संकल्प, त्याग, कड़ी मेहनत और अथक परिश्रम और सेवाभाव के कारण सभी प्यार करते थे। उन्होंने सेवाग्राम में सेवा और रचनात्मक कार्य का प्रशिक्षण प्राप्त किया, नि:स्वार्थ भाव वाले सेवा के मंत्र से उद्बुद्ध होकर। 

सन्‌ 1949 में डॉ. हरेकृष्ण महताब से प्रेरणा पाकर उच्च शिक्षा हेतु प्रयाग महिला विद्यापीठ में भर्ती हुई। वहाँ उन्हें हिन्दी साहित्य की अनुपम कवयित्री महादेवी वर्मा का सान्निध्य लाभ हुआ। पार्वतीगिरि के सेवाभाव, अथक और दृढ़ परिश्रम और असीम साहस ने कवि महादेवी वर्मा को बहुत प्रभावित किया। कालांतर में देश की आज़ादी के बाद पार्वतीगिरि ने गोपबंधु चौधरी और रमादेवी की सलाह पर असहायों की मदद और सेवा को अपने जीवन में व्रत के रूप में स्वीकार कर लिया। 

सम्लेईपदर से आरंभ कर पार्वतीगिरि ने ओड़िशा और महाराष्ट्र के कई हिस्सों का दौरा किया। उन्होंने ग़रीबी के क़हर को बहुत क़रीब से देखा। ग़रीबी से त्रस्त छोटे बच्चों, असहाय महिलाओं के दयनीय जीवन से वह परिचित हुई। ममतामयी पार्वतीगिरि का दिल कराह उठता था अनाथ नन्हे बच्चों, असहाय महिलाओं की आँखों में आँसू देखकर। उनकी सहायता के लिए आश्रम की स्थापना करने का निर्णय लिया। श्री नृसिंहनाथ के निकट पाइकमाल में कस्तूरबा गाँधी मातृ निकेतन की स्थापना कर अनाथ बच्चों और असहाय महिलाओं के लिए आशा और विश्वास की प्रतीक बनीं। सम्लेईपदर की ‘बाएरी’ अपने अंतर्मन की चेतना की प्रेरणा से रूपांतरित हो गई थी करुणामयी ‘बड़ी माँ' के रूप में। महात्मा गाँधी की बहादुर सैनिक पार्वती गिरि देखभाल करने वाली माँ के रूप में असहाय महिलाओं और बच्चों के लिए सम्मानजनक जीवन सुनिश्चित करने लगी थी। 

पाइकमाल में उन्होंने अपने हाथों से जंगली झाड़ी साफ़ कर कस्तूरबा गाँधी मातृ निकेतन की स्थापना की। इससे पहले 1954-55 की एक घटना पार्वतीगिरि की निःस्वार्थ सेवा और बलिदान की ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत करती है। उस समय पार्वतीगिरि बारपाली परियोजनाओं में सेवाएँ प्रदान कर रही थीं। एक मेघाच्छादित शाम में पार्वतीगिरि को ख़बर मिली कि एक मफसली गाँव में एक महिला को आसन्न प्रसव के लिए मदद और दवा की ज़रूरत है। आसमान में घने काले बादलों की घड़घड़ाहट के साथ बहुत ज़ोर बिजली चमक रही थी। जल्द से जल्द मदद पहुँचाने की ज़रूरत थी। जंगल के रास्ते से तेज़ बारिश के भीतर वह मफसली बंदपाली गाँव पहुँच गई। छोटी-सी झोंपड़ी के अंदर रस्सी वाले खाट पर प्रसूता महिला बिस्तर पर सोई हुई थी। चेहरे पर पसीना और विवशता के भाव झलक रहे थे। पास में एक डिबरी जल रही थी। डिबरी की मंद रोशनी में पार्वती गिरि ने कुटिया में चारों तरफ़ देखा। पार्वतीगिरि ने देखा, प्रसूता स्त्री के घर में दारिद्रय का कराल रूप। बच्चे के प्रसव के लिए आवश्यक चीज़ें तो दूर की बात कपड़े का एक टुकड़ा भी वहाँ नज़र नहीं आया। पार्वती गिरि ने तुरंत अपनी पतली बुनी हुई खादी साड़ी को दो टुकड़ों में फाड़ दिया। फाड़ी हुई साड़ी से प्रसव करवाया। और फिर पार्वती ने नव जननी के नवजात बच्चे को उसमें लपेटकर अपने बसेरे में लौटने के लिए तैयार हो गई। निःस्वार्थ भाव से परोपकार का व्रत धारण करने वाली पार्वतीगिरि के प्रति नवजननी की आँखों से कृतज्ञतावश आँसू छलक पड़े। प्रकृति कवि गंगाधर मेहर की भाषा में:

‘परोपकार पुण्यमय व्रत, पालते हैं महतजन
उर्वी दिवाकर परोपकारार्थ, देते हैं शस्य किरण’ [1] 
(महिमा 1896) 

झोंपड़ी के बाहर अँधेरा, चमकती बिजली, बारिश की बड़ी-बड़ी बूँदें। फटी साड़ी को सँभालते हुए बहुत कष्ट से वह अपने बसेरे में लौटी। बारिश में भीगकर अँधेरे में लौटने वाली कभी ‘बाएरी’ रही से बनी ‘अग्नि-कन्या’ रूपांतरित क्षीणकाय ‘महतजन’ करुणामयी पार्वती गिरि का चेहरा दीप्तिमान दिखाई दे रहा था। 

युगश्री युगनारी, बालेश्वर, मई, 2021
 [1] 1. स्वभावकवि गंगाधर ग्रंथावली (1998) ग्रंथमंदिर, कटक

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