गाँधी: महात्मा एवं सत्यधर्मी

 

आजकल भारतीय लोकतंत्र में एक नई प्रवृत्ति देखने को मिल रही है। यानी हमारा लोकतंत्र लगातार परिपक्व होता जा रहा है। देशद्रोह के मामले में सुप्रीम कोर्ट का रुख़ साफ़ होने के बाद और स्पष्ट परिपक्वता सामने आ गई है। जुलाई 2011 में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ऐन.वी. रमना ने खुले तौर पर कहा कि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की विवादास्पद धारा 124 ए का जीवनकाल समाप्त हो गया है। जिससे भारतीय बौद्धिक वातावरण में हलचल-सी मच गई। लोकतंत्र में मतभेद अवश्य होते हैं, जिनका सम्मान किया जाना चाहिए। तर्क संगत असहमति और मतभेद होना लोकतंत्र के अभिन्न अंग हैं। लेकिन मतभेद के आधार पर ‘देशद्रोह अधिनियम’ के तहत विरोधी प्रदर्शनकारियों को गिरफ़्तार कर उन्हें परेशान करने की घटना ने सर्वोच्च न्यायालय का ध्यान आकर्षित किया है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि ‘देशद्रोह अधिनियम’ ब्रिटिश सरकार द्वारा गाँधीजी को परेशान करने के लिए बनाया गया था और अब स्वतंत्र भारतीय लोकतंत्र में इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं बची है। 

सन्‌ 1920 में जब गाँधीजी ने ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ अपने अहिंसक संघर्ष को तेज़ किया, तो ब्रिटिश सरकार ने गाँधीजी के ख़िलाफ़ राजद्रोह अधिनियम का प्रयोग किया था। सन्‌ 1921 में गाँधीजी ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को निर्णायक रूप देने के लिए ख़ुद को पूरी तरह से समर्पित कर दिया था, उन्होंने उस समय अर्थात् यंग इंडिया पत्रिका के 29 सितंबर, 1921 के अंक में ब्रिटिश सरकार की आलोचना करते हुए “टेम्परिंग विद लॉयल्टी” नामक एक शानदार लेख लिखा था। [1] 

गाँधीजी ने लिखा था, “अत्याचार के ख़िलाफ़ लड़ना सभी का धार्मिक और नैतिक कर्त्तव्य है . . . हर सत्याग्रही अत्याचारी शासन  के ख़िलाफ़ अवश्य लड़ना चाहिए।” 

इस आलेख और दो अन्य आलेखों के लिए गाँधीजी को ब्रिटिश सरकार द्वारा ‘देशद्रोह अधिनियम’ के तहत गिरफ़्तार किया गया था। गाँधीजी ने अँग्रेज़ सरकार के ‘देशद्रोह अधिनियम’ के बारे में कहा था, “भारतीय दंड संहिता की सभी धाराओं में धारा 124-ए आम नागरिकों की स्वतंत्रता के अधिकार को दबाने के लिए तैयार किया गया ‘राजकुमार’ क़ानून है।”

1921 से 2021

गाँधीजी कथित ‘राजकुमार क़ानून’ वाली धारा 124-ए ने सौ वर्ष पूरे कर लिए है। इस क़ानून की शताब्दी पूर्ण होने के अवसर पर फिर से यह मूल प्रश्न उठ खड़ा हुआ है कि पराधीन भारत और स्वतंत्र भारत में 124-ए धारा का प्रभाव अभी भी वैसा ही है। विगत सौ वर्षों में, भारतीय लोकतंत्र में आम नागरिक या आम व्यक्ति के स्वतंत्र भाषण देने के अधिकार का कितना विस्तार हुआ है या फिर कितना संकुचन हुआ है? उस पर एक दृष्टि डालें। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, 2016 और 2019 के बीच, भारत में धारा 124-ए के तहत दर्ज मामलों की संख्या में 160% की वृद्धि हुई। और यह महत्त्वपूर्ण बात है। सन्‌ 2016 में धारा 124-ए के तहत दोषियों की संख्या कुल मामलों में से 337 थी, जबकि यह संख्या 2019 में मात्र 3.3 प्रतिशत घटी है। दूसरे शब्दों में कहें तो 2016 से 2019 के बीच ‘राजकुमार क़ानून’ यानी 124-ए के तहत बहुत सारे मामले दर्ज किए गए हैं, जबकि दोषियों की संख्या कम है। यह भारतीय लोकतंत्र की प्रकृति पर विशेष प्रश्न उठाता है। 

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार सन्‌ 2019 में देशद्रोह के आरोप में 96 लोगों को गिरफ़्तार किया गया था और इन 96 लोगों में से केवल 2 लोगों पर आरोप सिद्ध हुए थे। वे दोनों केवल पुरुष थे और महिला कोई नहीं थी। 

‘देशद्रोह के मामलों’ की संख्या को देखते हुए एक और महत्त्वपूर्ण पहलू सामने आता है। वह है इन मामलों में गिरफ़्तार किए गए लोगों की उम्र को लेकर। सन्‌ 2019 में देशद्रोह के मामले में गिरफ़्तार लोगों की उम्र 18 से 30 साल के बीच थी। कुल 55 लोग थे, जिनकी उम्र 18 से 30 साल के बीच थी। इन 55 लोगों में सिर्फ़ एक महिला थी। उम्र और ‘देशद्रोह के मामलों’ के बीच सम्बन्ध का थोड़ा और विश्लेषण करने पर पता चलता है कि

(ए) 18-30 साल की उम्र के बीच गिरफ़्तार किए गए लोगों में से 54 पुरुष और एक महिला थी, 
(बी) 30-45 साल की उम्र के बीच गिरफ़्तार किए गए लोगों में से 33 पुरुष और शून्य महिला थीं
(सी) 45 और 60 वर्ष की आयु के बीच गिरफ़्तार किए गए लोगों में से 08 पुरुष और शून्य महिला थीं। 

सन्‌ 2019 के देशद्रोह मामलों के आँकड़े एक और बेहद संवेदनशील पहलू की ओर इशारा करते हैं। वह है कोर्ट में लंबित राजद्रोह मामले के फ़ैसलों की दिशा और गति। 2019 में केवल 2 मामलों का फ़ैसला किया गया था और 69.4% मामले की सुनवाई लंबित हैं, फ़ैसला रहित। एक भारतीय नागरिक के लिए न्याय या सजा पाने की प्रक्रिया में जितना अधिक विलंब होगा, न्याय पाने वाला नागरिक उतना ही अधिक वंचित होगा। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पहलू को अहमियत दी है। 

स्वाधीनता परवर्ती समय में भारत में द्वैत शासन  प्रणाली का प्रचलन हैं। इसे संघीय व्यवस्था भी कहते है। नियम-क़ानून व्यवस्था हमेशा से स्पर्शकातर विषय रहा है। नियम-क़ानून की व्यवस्था में राज्य-प्रशासन  की प्रमुख भूमिका होती है। सन्‌ 2019 में ‘राजकुमार’ वाली धारा 124 ए के तहत दर्ज मामलों की संख्या का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि उस वर्ष दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य में सबसे अधिक 22 मामले दर्ज किए गए थे। कर्नाटक के बाद दूसरे स्थान पर असम में 17 राजद्रोह के मामले दर्ज किए गए। तीसरे स्थान पर जम्मू-कश्मीर में 11 राजद्रोह के मामले दर्ज किए गए और चौथे स्थान पर उत्तर प्रदेश में कुल 10 राजद्रोह के मामले दर्ज किए गए। 

ऐसी पृष्ठभूमि के मद्देनज़र सर्वोच्च न्यायालय ने स्वतंत्र भारत की लोकतांत्रिक स्वरूप को महत्त्व दिया है। लोकतंत्र में, किसी भी आम नागरिक का यह मौलिक कर्त्तव्य है कि वह सरकार की तर्क-संगत और शालीनता के समालोचना करे। साथ ही यह ज़रूरी है कि शासन  प्रणाली में समालोचना सुनने का धैर्य और साहस हो। यह लोकतंत्र की परिपक्वता को दर्शाता है। छह दशक पहले 1962 की प्रसिद्ध केदारनाथ सुनवाई में, सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 124-ए को बरक़रार रखा। लेकिन 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने 124-ए की स्थिति पर सवाल उठाते हुए भारतीय लोकतंत्र को एक नई पहचान देने का बहुत बड़ा प्रयास शुरू कर दिया है। 

लोकतंत्र में विचारों की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इसके दो द्युतिमान रत्न हैं। हालाँकि, इसका अत्यधिक दुरुपयोग एक अस्वस्तिकर स्थिति को पैदा करता है। स्वाधीन भारत में 1990 के बाद विदेशी आक्रमणों, आतंकवाद और हिंसक राजनीति की प्रचंडता देखी गई है। देश की आंतरिक सुरक्षा में बड़ा बदलाव आया है। और लोकतांत्रिक परंपरा में भी क्रांतिकारी परिवर्तन हुए है। इसलिए व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य और ज़िम्मेदारी का सवाल महत्त्वपूर्ण हो गया है। नागरिकों के अधिकारों और कर्त्तव्यों और ज़िम्मेदारियों के बीच सम्बन्धों पर विशेष ज़ोर दिया गया है। इस सम्बन्ध में 2018 में विधि आयोग की एक रिपोर्ट बहुत गंभीरता से अपने तर्क प्रस्तुत करती है कि, “देश की अखंडता और संप्रभुता नितांत अपरिहार्य और सर्वोपरि है। इसके आधार पर नागरिकों को प्रताड़ित नहीं किया जा सकता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के ख़िलाफ़ क़ानूनों को भी बहुत सावधानी से लागू किया जाना चाहिए। क्योंकि स्वस्थ समालोचना लोकतांत्रिक प्रक्रिया को समृद्ध करती है।”

भारतीय लोकतंत्र इन दो बिंदुओं पर ध्यान रखते हुए परिपक्वता प्रदर्शित करेगा और अपनी विशिष्ट पहचान बनाकर नई ऊँचाइयों को छूएगा। 

सकाल
31 अगस्त 2021

[1] महात्मा गाँधी (1921) “टेंपरिंग विद लॉयलिटी” ‘यंग इंडिया’ 29 सितंबर। 

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