गाँधी: महात्मा एवं सत्यधर्मी (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
17. अँग्रेज़ पुलिस को पीटने वाली बरगढ़ की सेनानी बहू: देमती देई शबर
सन् 2002। सावन महीना ख़त्म होते समय स्वाधीनता दिवस पालन के लिए बरगढ़ ज़िले के पुरैना गाँव में उत्साह और उत्सव का माहौल था। इधर समाप्त हो रहे सावन के काले बादलों में बिजली चमक रही थी, उधर पुरैना गाँव की एक 90 साल की महिला के हृदयाकाश में स्वाधीनता-संग्राम की उज्जवल स्मृतियाँ चमक रही थीं। दुर्बल, जीर्ण-शीर्ण शरीर और बाधित दृष्टि शक्ति वाली उस 90 वर्ष की वृद्धा की आँखों में भारत की स्वाधीनता दिवस मनाने का प्रबल नशा को कोई रोक नहीं पा रहा था। गोबर और मिट्टी से लेपन किए हुए अपने छोटे घर के आँगन में पैर फैलाकर बाँस से बनी हुई सूप में चावल से कंकड़ चुनने के दौरान एक लड़की ने आकर उसकी कान में कहा, “दादी, हमारे स्कूल में आज तिरंगा फहरा रहा है।”
इतना सुनना था कि उस 90 वर्षीय वृद्धा के चेहरे पर ख़ुशी की लहर दौड़ आई। बड़ी मुश्किल से नीचे से उठकर खड़ी होकर आसमान की तरफ़ देखते हुए अपने हाथ जोड़कर माथे पर स्पर्श करते हुए दिखाई न देने वाले तिरंगे को प्रणाम किया।
भले ही, शरीर दुर्बल था, मगर धमनियों में बह रहा था शौर्य भरा रक्त तथा हृदय में असीम देश-प्रेम, पुरैना गाँव की उस 90 साल की बुज़ुर्ग महिला के पास। वह थी, स्वाधीनता सेनानी देमती देई शबर सालिहा। जन्म हुआ था आज के नुआ पाड़ा ज़िले में, लेकिन बहू बनकर आई थी बरगढ़ ज़िले के पुरैना गाँव में।
सन् 1930 में अविभक्त कालाहांडी ज़िले के नुआपाड़ा अंचल में अँग्रेज़ शासन के विरुद्ध में एक जन-आंदोलन तेज़ हो उठा था। उस समय नुआपाड़ा शहर के निकट सालिहा गाँव में अँग्रेज़ शासन के अन्यायपूर्ण ‘लकड़ी कर’ अथवा ‘काठ टैक्स’ के कारण वहाँ के आदिवासियों के बीच विद्रोह की आग भभक उठी थी। यह कर लागू होने पर सालिहा गाँव के आदिवासी शबर संप्रदाय के लोगों का जंगल पर अपने अधिकार से वंचित हो गए थे। फिर उसके अलावा, गोचर ज़मीन पर कुछ काम करना पड़े तो ‘गोचर कर’ अलग से लगाकर अँग्रेज़ सरकार अपनी अराजक मानसिकता का प्रदर्शन कर रही थी। साथ ही साथ, आदिवासियों को परेशान और भयभीत करने की यह साज़िश थी। अँग्रेज़ों के इस अन्याय पूर्ण शासन के दृढ़ विरोध के लिए सालिहा गाँव में एक आदिवासी सम्मेलन हुआ था।
वह दिन था 30 सितंबर 1930। सालिहा गाँव में अंदरूनी उत्तेजना। गाँव की भोलीभाली षोडशी देमती अपनी वेणी में लाल गुड़हल के फूल लगाकर हरे-भरे धान के खेतों को निहार रही थी। हाथों में थीं दो लाठियाँ, शायद किसी वन्य-जीव-जंतु से अपनी सुरक्षा के लिए। उस समय देमती को सुनने को मिला कि उसके पिताजी को पुलिस मार रही है। आँख झपकते ही देवती दोनों लाठियाँ हाथों में लिए दौड़ी चली आई, अपने गाँव सालिहा के मैदान में, जहाँ अँग्रेज़ विरोधी सम्मेलन हुआ था। वहाँ पहुँचकर उसने देखा कि उसके पिताजी को ब्रिटिश पुलिस की गोली लगी है और रक्त से लथपथ होकर नीचे गिरे हुए हैं।
सोलह वर्षीय देमती ने एक ब्रिटिश पुलिस को ग़ुस्से से दो-तीन मुक्के मारकर अपने हाथ की लाठी से पीटना प्रारंभ कर दिया। देमती के नेतृत्व में हुए इस लाठी चार्ज से ब्रिटिश पुलिस भयभीत होकर वहाँ से भागने के लिए बाध्य हो गई। देमती गोली से बिंधे अपने पिताजी को कंधे पर उठाकर घर लाकर उनकी सेवा करने लगी। बदले की भावना से ब्रिटिश पुलिस टीम ने उसके पिताजी को गिरफ़्तार कर रायपुर जेल में भेज दिया। सालिहा गाँव के आदिवासियों के घरों और खेतों में आग लगा दी गई।
उस दिन से सोलह वर्षीय युवती देखते-देखते स्वतंत्रता संग्राम में अद्वितीय शौर्य का प्रतीक बन गई, परन्तु अवदमित साहस के अधिकारी संग्रामी देमती का जीवन कटा था, बरगढ़ ज़िले के पुरैना गाँव के दरिद्रता के भीतर। फिर भी 90 वर्ष तक परिस्थितियों के विरुद्ध संग्राम करते हुए देमती ने जारी रखा था।
1930 की घटना को याद कर 90 वर्षीय देमती ने कहा, “मार दिए थे, दो-तीन मुक्के मैंने ब्रिटिश पुलिस की पीठ पर। धड़ाक से नीचे गिर गए था। उसके बाद हाथों में रखी हुई दोनों लाठियों से पीट-पीट कर भगा दिया था, ब्रिटिश पुलिस को।” मन में क्रोध के भाव कुछ कम हुए थे। देमती के मन में स्वाभिमान मिश्रित आत्म-संतोष के भाव झलक रहे थे।
बरगढ़ के पुरैना गाँव की बहू और लाठी चलाने वाली स्वाधीनता संग्रामी देमती देई शबर सालिहा को मिश्रित श्रद्धायुक्त प्रणाम।
विषय सूची
- समर्पित
- कई सवालों के बीच महात्मा गाँधी
- गाँधी: एक अलीक योद्धा
- मोहनदास से महात्मा की यात्रा
- 1. गाँधीजी: सत्यधर्मी
- 2. मोहन दास से महात्मा गाँधी: चेतना के ऊर्ध्वगामी होने की यात्रा
- 3. सत्यधर्मी गाँधी: शताब्दी
- 4. गाँधीजी: अद्वितीय रचनाकार
- 5. “चलो, फुटबॉल खेलते हैं” : गांधीजी
- 6. सौ वर्ष में दो अनन्य घटनाएँ
- 7. महात्मा गाँधी की क़लम
- 8. गाँधीजी और डॉ. कालेनबेक: अध्यात्म-रज्जु पर चलने वाले दो पथिक
- 9. इज़राइल में गाँधी की दोस्ती का स्मृति-चिह्न
- 10. मंडेला की धरती पर भीम भोई एवं गाँधी जी
- 11. एक किताब का जादुई स्पर्श
- 12. गाँधीजी के तीन अचर्चित ओड़िया अनुयायी
- 13. लंडा देहुरी, फ़्रीडा और गाँधीजी
- 14. पार्वती गिरि: ‘बाएरी’ से ‘अग्नि-कन्या’
- 15. गाँधीजी के आध्यात्मिक शिष्य: विनोबा
- 16. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम: विदेशी संग्रामी
- 17. अँग्रेज़ पुलिस को पीटने वाली बरगढ़ की सेनानी बहू: देमती देई शबर
- 18. ‘विद्रोही घाटी' के सेनानी चन्द्रशेखर बेहेरा के घर गाँधी जी का रात्रि प्रवास
- 19. रग-रग में शौर्य:गाँधीजी के पैदल सैनिक और ग्यारह मूर्तियाँ
- 20. पल-दाढ़भाव और आमको-सिमको नरसंहार: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक अनन्य घटना
- 21. “राजकुमार क़ानून” और परिपक्व भारतीय लोकतंत्र
- 22. गंगाधर की “भारती भावना“: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का सारस्वत आलेख
- 23 अंतिम जहलिया: जुहार
लेखक की कृतियाँ
- साहित्यिक आलेख
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- अमेरिकन जीवन-शैली को खंगालती कहानियाँ
- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की ‘विज्ञान-वार्ता’
- आधी दुनिया के सवाल : जवाब हैं किसके पास?
- कुछ स्मृतियाँ: डॉ. दिनेश्वर प्रसाद जी के साथ
- गिरीश पंकज के प्रसिद्ध उपन्यास ‘एक गाय की आत्मकथा’ की यथार्थ गाथा
- डॉ. विमला भण्डारी का काव्य-संसार
- दुनिया की आधी आबादी को चुनौती देती हुई कविताएँ: प्रोफ़ेसर असीम रंजन पारही का कविता—संग्रह ‘पिताओं और पुत्रों की’
- धर्म के नाम पर ख़तरे में मानवता: ‘जेहादन एवम् अन्य कहानियाँ’
- प्रोफ़ेसर प्रभा पंत के बाल साहित्य से गुज़रते हुए . . .
- भारत के उत्तर से दक्षिण तक एकता के सूत्र तलाशता डॉ. नीता चौबीसा का यात्रा-वृत्तान्त: ‘सप्तरथी का प्रवास’
- रेत समाधि : कथानक, भाषा-शिल्प एवं अनुवाद
- वृत्तीय विवेचन ‘अथर्वा’ का
- सात समुंदर पार से तोतों के गणतांत्रिक देश की पड़ताल
- सोद्देश्यपरक दीर्घ कहानियों के प्रमुख स्तम्भ: श्री हरिचरण प्रकाश
- पुस्तक समीक्षा
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- उद्भ्रांत के पत्रों का संसार: ‘हम गवाह चिट्ठियों के उस सुनहरे दौर के’
- डॉ. आर.डी. सैनी का उपन्यास ‘प्रिय ओलिव’: जैव-मैत्री का अद्वितीय उदाहरण
- डॉ. आर.डी. सैनी के शैक्षिक-उपन्यास ‘किताब’ पर सम्यक दृष्टि
- नारी-विमर्श और नारी उद्यमिता के नए आयाम गढ़ता उपन्यास: ‘बेनज़ीर: दरिया किनारे का ख़्वाब’
- प्रवासी लेखक श्री सुमन कुमार घई के कहानी-संग्रह ‘वह लावारिस नहीं थी’ से गुज़रते हुए
- प्रोफ़ेसर नरेश भार्गव की ‘काक-दृष्टि’ पर एक दृष्टि
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- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 2
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