गाँधी: महात्मा एवं सत्यधर्मी (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)
2. मोहन दास से महात्मा गाँधी: चेतना के ऊर्ध्वगामी होने की यात्रा
सन् 1893।
भारत की आध्यात्मिक भूमि के सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक इतिहास में एक अनूठा वर्ष। इस वर्ष, तीन दिव्य पुरुषों की यात्रा ने न केवल भारतवर्ष को, बल्कि अखिल मानव जाति और पूरी दुनिया के इतिहास को एक निर्णायक मोड़ प्रदान किया। इसके अलावा, पूरे विश्व में भारत की एक गौरवशाली और अनूठी पहचान बनी।
प्रथम दिव्यपुरुष थे श्री अरविन्द घोष।
उन्होंने 1893 में इंग्लैंड में अपने ज्ञान, बुद्धि और विद्वता का परिचय देते हुए फिर भारत लौट आए। श्री अरविन्द घोष अपनी चेतना में दिव्यता और आध्यात्मिकता के स्पर्श से प्रेरित होकर भारत लौटकर आए थे। उस वर्ष से, श्री अरविन्द घोष के जीवन में एक महान परिवर्तन शुरू हुआ और परवर्ती काल में, वे एक योगी और साधक श्री अरविन्द के रूप में प्रसिद्ध हुए।
दूसरे दिव्यपुरुष थे श्री नरेंद्रनाथ दत्त।
उस वर्ष श्री नरेंद्रनाथ दत्त ने स्वामी विवेकानंद के रूप में सुदूर शिकागो शहर की यात्रा की। और वहाँ, उस वर्ष आयोजित विश्वधर्म महासम्मेलन में अपने अनूठे उद्बोधन से उन्होंने भारतीय आध्यात्मिकता और सनातन धर्म पर प्रकाश डालते हुए भारत का एक गौरवमय परिचय प्रदान किया था।
और तीसरे दिव्य पुरुष थे मोहनदास करमचंद गाँधी, जो युवा बैरिस्टर थे, जो इंग्लैंड से अध्ययन कर अफ़्रीका जा रहे थे। उम्र थी चौबीस साल। वह भारत से दक्षिण अफ़्रीका जा रहे थे। उनकी 1893 की यात्रा बहुत साधारण थी। मगर दूसरे शब्दों में, यह यात्रा अत्यंत महत्त्वपूर्ण थी। क्योंकि उनकी वह युगांतरकारी ऐतिहासिक और असाधारण यात्रा थी, जिसने दुनिया और पूरी मानव जाति के सामाजिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक इतिहास को बदल दिया। मोहनदास करमचंद गाँधी की अपनी जन्मभूमि भारत से कर्मभूमि दक्षिण अफ़्रीका की यात्रा उनके अपने जीवन में चेतना के उन्नयन यात्रा की शुभ शुरूआत थी। दक्षिण अफ़्रीका पहुँचकर गाँधी जी ने रंगभेद, नस्लवाद, अन्याय और पराधीनता के क्रूर-कराल रूपों को अपनी आँखों से प्रत्यक्ष देखा।
उनके हाथों में वकील बनकर पैसा कमाने का मौक़ा था। मोहनदास करमचंद गाँधी को 12 महीने का काम मिला था और वकील के रूप में 105 पाउंड का पारिश्रमिक। किन्तु, मोहनदास करमचंद गाँधी के मन में उठ रहे थे अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के स्वर। एक तरफ़ अपार धनोपार्जन कर जीवन की सारी ख़ुशियों और स्वच्छंदता को भोगने के सुनहरे अवसर और दूसरी ओर अन्याय और रंगभेद के अमानवीय स्वरूप के ख़िलाफ़ लड़ने की हृदय में भभकती आग।
1893 में मोहनदास करमचंद गाँधी नटाल प्रांत (वर्तमान क्वाज़ुलु-नटाल) के डरबन पहुँचने के बाद उनके जीवन में घटी एक घटना ने उनके मनोबल को मज़बूत किया। मोहनदास करमचंद गाँधी स्वयं प्रिटोरिया के सेंट पीटरमरिज़्बर्ग स्टेशन पर रेल के प्रथम श्रेणी के डिब्बों में यात्रा करते समय अन्याय और रंग-भेदभाव के शिकार हुए थे। गाँधीजी को उनके सामानों के साथ इस डिब्बे से नीचे फेंक दिया गया था। घनघोर अँधेरी रात में ठिठुरते हुए गाँधीजी ने सेंट पीटरमरिज़्बर्ग स्टेशन पर अपमान का घूँट पीकर सारी रात जागते हुए काटी थी। गाँधीजी के अपने शब्दों में, “वह सर्दी की कड़कड़ाती रात थी . . . मैं पूरी रात काँपता रहा और आत्मसात करता रहा कि भारत लौटने के बजाय अफ़्रीका में रहना और अपने ‘अधिकारों’ की रक्षा के लिए लड़ना मेरा प्रमुख ‘कर्तव्य’ है . . .। मुझ पर किया गया अत्याचार वर्ण वैषम्यता के कराल रूप का अंश-मात्र है . . .।”
सेंट पीटरमरिज़्बर्ग की अँधेरी रात अन्याय की प्रतीक थी और इसके ख़िलाफ़ गाँधीजी का संघर्ष पूरी मानव जाति के लिए उज्ज्वल प्रकाश का स्रोत था। परवर्ती समय में दक्षिण अफ़्रीका ने इस ऐतिहासिक यात्रा के महत्त्व को समझते हुए सेंट पीटरमरिज़्बर्ग स्टेशन का नाम बदलकर महात्मा गाँधी स्टेशन रखकर अपने आप को गौरवान्वित किया।
गाँधी जी के जीवन घटी एक और अनोखी यात्रा। जिससे उनके भीतर सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक और आध्यात्मिक चेतना का प्रस्फुटन हुआ। सन् 1904 में गाँधीजी जोहान्सबर्ग से डरबन की यात्रा कर रहे थे। गाँधीजी को विदा करने के लिए जोहान्सबर्ग रेलवे स्टेशन पर उनके दक्षिण अफ़्रीका से उनके मित्र हेनरी पोल्क आए थे। विदा देते समय हेनरी पोलक ने गाँधीजी को जॉन रस्किन द्वारा लिखित ‘ऑन टू द लास्ट’ नामक एक मूल्यवान और अद्भुत पुस्तक पढ़ने के लिए उपहार स्वरूप प्रदान की। ट्रेन में रात भर जागते हुए गाँधी जी ने एक ही बैठक में उसे पढ़ लिया था। जॉन रस्किन की इस पुस्तक में दर्शाए ‘श्रम का मूल्य’, ’सामाजिक कल्याण द्वारा सभी का मांगलिक उन्नयन’ आदि विचारों को व्यावहारिक अनुप्रयोग में लाने के लिए गाँधीजी दृढ़ संकल्पित थे।
शारीरिक श्रम की महत्ता और ’समान समय के श्रम का समान पारिश्रमिक’ नीति को गाँधीजी के अर्थनैतिक चिंतन और सामाजिक समानता की दिशा में अन्यतम योगदान के बारे में विवेचना की जाती है। परवर्ती समय में, गाँधीजी ने अपने द्वारा स्थापित ‘फीनिक्स सेटलमेंट’ में इन सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप से अपने जीवन में लागू करने के लिए आश्रमवासियों को निर्देश दिए। इसके साथ ही इस पुस्तक की मार्मिक भावनाओं का ‘सर्वोदय’ नामक गुजराती पुस्तक में स्वयं गाँधीजी ने अनुसृजन किया था। रस्किन की पुस्तक उनकी चेतना के उन्नयन के लिए कितनी मूल्यवान थी, इस बारे में गाँधीजी ने अपनी आत्मकथा के एक परिच्छेद में ‘एक पुस्तक का जादुई स्पर्श’ के रूप में उल्लेख किया है।
इन दोनों घटनाओं में मोहनदास करमचंद गाँधी से महात्मा गाँधी बनने की शुभ प्रक्रिया का शुभारंभ देखा जा सकता है। गाँधी ने स्वयं 1933 में ‘हरिजन’ पत्रिका में इस सम्बन्ध में लिखा था; सत्य की खोज में मैंने अनेक विचारों और आदर्शों को त्याग कर कुछ नये विचारों को अपनाया है। मेरे भीतर आंतरिक चेतना विकसित हुई है और विकसित होती रहेगी।
मोहनदास करमचंद गाँधी से महात्मा गाँधी होने की चेतना का उनमें उन्नयन हुआ था। उनकी अन्यतम पवित्र स्थली थी, गाँधी के द्वारा परिकल्पित और प्रतिष्ठित फीनिक्स सेटलमेंट यानी फीनिक्स बस्ती। यहाँ पर गाँधी जी ने ‘अहिंसा’ और ‘सत्याग्रह’ पर प्रयोग कर उन्हें व्यावहारिक रूप प्रदान किया था। 5, 000 पाउंड की लागत से बस्ती या आश्रम का नाम गाँधीजी ने स्वयं ‘फीनिक्स’ रखा था। फीनिक्स एक ऐसा पक्षी है, जो अपनी मृत्यु का समय जानकर सूर्य की ओर उड़ने लगता है। सूर्य की ओर उड़ने के बाद वह सूर्य की किरणों से जलकर राख होकर ज़मीन पर गिर जाता है। और उसी राख से पैदा होते हैं फीनिक्स के बच्चे। मृत्यु पर जीवन और चिर शाश्वत जीवन-दर्शन के प्रतीक के रूप में स्वीकार करते हुए, गाँधीजी ने शाश्वत जीवन के लिए ’अहिंसा’ और ‘सत्याग्रह’ में दृढ़ आस्था रखी। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि गाँधी जी के ’अहिंसा’ और ‘सत्याग्रह’ सम्बन्धी चिंतन मानव समाज के लिए आशा और विश्वास का चिरंतन स्रोत बना रहेगा।
गाँधीजी की चेतना के उन्नयन का प्रतिफलन उनके द्वारा स्थापित फीनिक्स बस्ती में शुरू की गई पत्रिका ‘इंडियन ओपिनियन’ में सहज देखा जा सकता है। विचक्षण सशक्त लेखन और संपादन के कारण गाँधीजी साधारण लोगों की बातों और समस्याओं को सरल और प्रभावी ढंग से प्रस्तुत कर जन मानस को प्रभावित करने में सक्षम थे। गाँधीजी नियमित रूप से अंग्रेज़ी, हिंदी, तमिल और गुजराती भाषाओं में ‘इंडियन ओपिनियन’ प्रकाशित करते थे। ‘इंडियन ओपिनियन’ गाँधीजी में चेतना के उन्नयन का पहला स्मारक है और साथ ही साथ, उनके मौलिक निबंधों का संग्रह भी।
रूसी लेखक लियो टॉल्स्टॉय ने गाँधीजी की चेतना को प्रभावित किया था। टॉल्स्टॉय के साथ आदान-प्रदान हुई चार चिट्ठियों से गाँधीजी को प्रेरणा मिली। साथ ही, लियो टॉल्स्टॉय की महान विचारधारा और लेखन ने गाँधीजी को काफ़ी प्रभावित किया। दक्षिण अफ़्रीका में गाँधीजी ने अपने दूसरे आश्रम का नाम ‘टॉल्स्टॉय फार्म’ रखा। वहाँ भी गाँधीजी ने ‘अहिंसा’, ‘सविनय अवज्ञा’ आदि के उच्च आदर्शों को परखा और प्रयोग में लाया।
मोहनदास करमचंद गाँधी को महात्मा गाँधी बनाने वाली चेतना जगाने की पृष्ठभूमि को अत्यंत नज़दीक से देखने का सौभाग्य मिला, उनकी पत्नी कस्तूरबा, उनके क़रीबी दोस्त हेनरी पोल्क और उनकी पत्नी मिली और डॉ. हरमन कालेनबेक इत्यादि को।
गाँधीजी की चेतना के उत्तरण की एक और यात्रा थी, 1914 में दक्षिण अफ़्रीका से भारत की यात्रा। अपने भूमिपुत्र को उत्साह, उमंग और स्नेह से गले लगाने के लिए आतुर थी भारत माता। दक्षिण अफ़्रीका की प्रसिद्ध लेखिका फातिमा मीर के शब्दों में, “सन 1914 में जब गाँधीजी भारत लौटे, तो उनमें एक संत के सारे उज्ज्वल लक्षण विद्यमान थे। जैसे जीसस क्राइस्ट मसीहा का प्रतीक और गौतम बन गए थे बुद्ध; ठीक वैसे ही शर्मीला और अँधेरे से डरने वाला छोटा लड़का महात्मा में रूपांतरित हो गया था।”
प्रगतिवादी
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विषय सूची
- समर्पित
- कई सवालों के बीच महात्मा गाँधी
- गाँधी: एक अलीक योद्धा
- मोहनदास से महात्मा की यात्रा
- 1. गाँधीजी: सत्यधर्मी
- 2. मोहन दास से महात्मा गाँधी: चेतना के ऊर्ध्वगामी होने की यात्रा
- 3. सत्यधर्मी गाँधी: शताब्दी
- 4. गाँधीजी: अद्वितीय रचनाकार
- 5. “चलो, फुटबॉल खेलते हैं” : गांधीजी
- 6. सौ वर्ष में दो अनन्य घटनाएँ
- 7. महात्मा गाँधी की क़लम
- 8. गाँधीजी और डॉ. कालेनबेक: अध्यात्म-रज्जु पर चलने वाले दो पथिक
- 9. इज़राइल में गाँधी की दोस्ती का स्मृति-चिह्न
- 10. मंडेला की धरती पर भीम भोई एवं गाँधी जी
- 11. एक किताब का जादुई स्पर्श
- 12. गाँधीजी के तीन अचर्चित ओड़िया अनुयायी
- 13. लंडा देहुरी, फ़्रीडा और गाँधीजी
- 14. पार्वती गिरि: ‘बाएरी’ से ‘अग्नि-कन्या’
- 15. गाँधीजी के आध्यात्मिक शिष्य: विनोबा
- 16. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम: विदेशी संग्रामी
- 17. अँग्रेज़ पुलिस को पीटने वाली बरगढ़ की सेनानी बहू: देमती देई शबर
- 18. ‘विद्रोही घाटी' के सेनानी चन्द्रशेखर बेहेरा के घर गाँधी जी का रात्रि प्रवास
- 19. रग-रग में शौर्य:गाँधीजी के पैदल सैनिक और ग्यारह मूर्तियाँ
- 20. पल-दाढ़भाव और आमको-सिमको नरसंहार: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक अनन्य घटना
- 21. “राजकुमार क़ानून” और परिपक्व भारतीय लोकतंत्र
- 22. गंगाधर की “भारती भावना“: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का सारस्वत आलेख
- 23 अंतिम जहलिया: जुहार
लेखक की कृतियाँ
- साहित्यिक आलेख
-
- अमेरिकन जीवन-शैली को खंगालती कहानियाँ
- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की ‘विज्ञान-वार्ता’
- आधी दुनिया के सवाल : जवाब हैं किसके पास?
- कुछ स्मृतियाँ: डॉ. दिनेश्वर प्रसाद जी के साथ
- गिरीश पंकज के प्रसिद्ध उपन्यास ‘एक गाय की आत्मकथा’ की यथार्थ गाथा
- डॉ. विमला भण्डारी का काव्य-संसार
- दुनिया की आधी आबादी को चुनौती देती हुई कविताएँ: प्रोफ़ेसर असीम रंजन पारही का कविता—संग्रह ‘पिताओं और पुत्रों की’
- धर्म के नाम पर ख़तरे में मानवता: ‘जेहादन एवम् अन्य कहानियाँ’
- प्रोफ़ेसर प्रभा पंत के बाल साहित्य से गुज़रते हुए . . .
- भारत के उत्तर से दक्षिण तक एकता के सूत्र तलाशता डॉ. नीता चौबीसा का यात्रा-वृत्तान्त: ‘सप्तरथी का प्रवास’
- रेत समाधि : कथानक, भाषा-शिल्प एवं अनुवाद
- वृत्तीय विवेचन ‘अथर्वा’ का
- सात समुंदर पार से तोतों के गणतांत्रिक देश की पड़ताल
- सोद्देश्यपरक दीर्घ कहानियों के प्रमुख स्तम्भ: श्री हरिचरण प्रकाश
- पुस्तक समीक्षा
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- उद्भ्रांत के पत्रों का संसार: ‘हम गवाह चिट्ठियों के उस सुनहरे दौर के’
- डॉ. आर.डी. सैनी का उपन्यास ‘प्रिय ओलिव’: जैव-मैत्री का अद्वितीय उदाहरण
- डॉ. आर.डी. सैनी के शैक्षिक-उपन्यास ‘किताब’ पर सम्यक दृष्टि
- नारी-विमर्श और नारी उद्यमिता के नए आयाम गढ़ता उपन्यास: ‘बेनज़ीर: दरिया किनारे का ख़्वाब’
- प्रवासी लेखक श्री सुमन कुमार घई के कहानी-संग्रह ‘वह लावारिस नहीं थी’ से गुज़रते हुए
- प्रोफ़ेसर नरेश भार्गव की ‘काक-दृष्टि’ पर एक दृष्टि
- वसुधैव कुटुंबकम् का नाद-घोष करती हुई कहानियाँ: प्रवासी कथाकार शैलजा सक्सेना का कहानी-संग्रह ‘लेबनान की वो रात और अन्य कहानियाँ’
- सपनें, कामुकता और पुरुषों के मनोविज्ञान की टोह लेता दिव्या माथुर का अद्यतन उपन्यास ‘तिलिस्म’
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- अनूदित कविता
- यात्रा-संस्मरण
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- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 2
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 3
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 4
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 5
- पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु ‘जगन्नाथ-पुरी’: यात्रा-संस्मरण - 1
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