गाँधी: महात्मा एवं सत्यधर्मी

 

1922 के फाल्गुन का शुभारंभ। 

पश्चिमी भारत में गुजरात के शबरकांठा ज़िले के आदिवासी बहुल दो छोटे गाँवों, पाल चितरिया और पल-दाढ़भाव में पर्व का माहौल चल रहा था। होली के आगमन के साथ-साथ गाँधीजी के नेतृत्व ने ख़ुशी और आशा की एक नई लहर का संचार किया था। सबसे बड़ी बात थी, होली से पहले सबसे आमलकी एकादशी का पर्व, जो स्थानीय आदिवासी समुदाय के लिए एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण त्योहार है। हीर नदी का पानी भी झिलमिला रहा था। हीर नदी के तट पर पार्श्ववर्ती क्षेत्र के भील समुदाय के आदिवासी जमा हो गए थे। एक साथ जमा होने का कारण यह था कि सभी “एकी आंदोलन” में शामिल हुए थे। इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे मोतीलाल तेजावत नामक एक आदिवासी नेता। सभी के मन में था अराजकता फैलाने वाले ब्रिटिश शासन के प्रति तीव्र आक्रोश। 

आदिवासी नेता मोतीलाल तेजावत के नेतृत्व में शुरू हुआ था “एकी आंदोलन” जिसका मक़सद था आदिवासी भूमि पर ब्रिटिश सरकार द्वारा लगाए गए अनुचित करों का विरोध करना। इसके ख़िलाफ़ गुजरात और राजस्थान के कई इलाक़ों से बड़ी संख्या में भील आदिवासी आकर हीर नदी के किनारे जमा हुए थे। उस समय राजस्थान के अधिकांश अंचल में गढ़जात राजा हुआ करते थे। ठीक उसी तरह गुजरात के कुछ हिस्सों में राजा-रजवाड़ों का शासन था। और वह गढ़जात और राजा-रजवाड़ों का शासन ब्रिटिश सरकार की कठपुतली बनकर काम कर रहा था। 

मोतीलाल तेजावत का जन्म राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र में हुआ था। उनके नेतृत्व को ब्रिटिश सरकार और उसके सहयोगी राजतंत्रीय शासन ने आसानी से स्वीकार नहीं किया था। इसलिए, उनके आंदोलन को बलपूर्वक दबाने के लिए, अँग्रेज़ों ने मेवाड़ भील सेना नामक एक दुर्दांत सेना का गठन किया था। ”एकी आंदोलन” में हज़ारों भील आदिवासी हीर नदी के तट पर एकत्र हुए थे, यह जानकर ब्रिटिश सरकार ने तुरंत दुर्दांत मेवाड़ भील सेना को वहाँ भेज दिया। 

हीर नदी के किनारे जमा आदिवासी अपने नेता मोतीलाल तेजावत का इंतज़ार कर रहे थे। उनके पक्ष में नारेबाज़ी भी शुरू हो गई थी। असामयिक तूफ़ान की तरह मोतीलाल तेजावत वहाँ पहुँचे। उनके सिर पर बँधी हुई थी पगड़ी और सीने में भरा हुआ था अदम्य साहस। उन्होंने भले ही, सिर कट जाए, मगर सिर झुकेगा नहीं, का प्रण ले लिया था। और फिर, मन में निहित थी अन्याय और अराजकता का विरोध करने की दृढ़ इच्छाशक्ति। उनके अडिग सोच और निखरे व्यक्तित्व ने उन्हें एक लोकप्रिय नेता की गरिमामय पहचान दिलाई थी। ब्रिटिश शासन के विरुद्ध में निर्विवाद आदिवासी नेता तेजावत पहले से ज़्यादा सक्रिय हो गया था। तेजावत के आह्वान किया, “ज़मीन हमारी है . . . मिट्टी हमारी है . . . इस पर कोई भी टैक्स लगाना अनुचित और अन्यायपूर्ण है . . . हम लड़ेंगे . . .” 

उनका आह्वान सुनकर 2000 से अधिक एकत्रित हुए आदिवासियों ने समवेत स्वर में नारे लगाए, “. . . हम टैक्स नहीं देंगे, नहीं देंगे” सभी ने अपने पारंपरिक हथियार धनुष और कटार को ऊपर उठाकर तेजावत का समर्थन किया। 

मोतीलाल तेजावत का असाधारण समर्थन देखकर ब्रिटिश सरकार भयभीत और उत्क्षिप्त हो गई। मेवाड़ भील सेना का नेतृत्व कर रहे थे एच.जी. सटन। “गोली चलाओ . . .” क्रोधित सटन ने सख़्त निर्दय आदेश दिया। गोलियाँ बरसने लगी। एकत्रित हुए आदिवासी एक के बाद एक ज़मीन पर गिरकर मरने लगे इस बर्बर हमले से। मोतीलाल तेजावत को भी दो गोलियाँ लगी और वह धराशायी होकर ज़मीन पर गिर पड़े। लेकिन कुछ आदिवासियों ने उन्हें उठा लिया। इस आक्रमण में 1200 से ज़्यादा आदिवासियों की जानें चली गई। बर्बर ब्रिटिश शासन के क्रूर इतिहास में एक और काला पन्ना जुड़ गया। 1200 से ज़्यादा आदिवासी अपनी जान गंवाकर हमेशा के लिए भारत माता की गोद में सो गए, अन्याय के ख़िलाफ़ बहादुरी से लड़ते हुए। अँग्रेज़ों के ख़िलाफ़ संगठित मुक्ति संग्राम की आग में घी डाल दिया। आज भी लोग सामाजिक अवसरों पर पल-दाढ़लाव नरसंहार का स्मरण कर लोकगीतों में गाते हैं।”मेरी आत्मा दुखी, दुनिया दुखी ” और मोतीलाल तेजावत की स्मृति में लोग लोक गीत गाते हैं “कोलियारी नू बनियो गाँधी . . .”

सन्‌ 1922 में भारत के पश्चिमी गुजरात के पल-दाढ़लाव में आदिवासी नरसंहार हुआ था। ठीक वैसा ही भारत के पूर्वी हिस्से में एक और भीषण आदिवासी नरसंहार हुआ-आध्यात्मिक चेतना की भूमि ओड़िशा में। जगह का नाम था आमको-सिमको, सुंदरगढ़ ज़िला। 

एक छोटा-सा आदिवासी गाँव आमको-सिमको। गाँव के चारों तरफ़ घने जंगल और निरीहता का वलय। ज़मीन और जंगल के प्रति आमको-सिमको के आदिवासियों का जीवन सरल या प्राणवंत था। सन्‌ 1939 के अप्रैल के अंत में जंगल में पलाश के फूल खिलकर फागुन की विदाई का संकेत दे रहे थे। आमको-सिमको था गांगपुर राजत्व में मुंडा संप्रदाय के सरल और निरीह आदिवासियों की छोटी-छोटी झोपड़ियों का समुच्चय। मुंडा समुदाय के पारंपरिक अधिकार “खूँटीकाटी” प्रथा पर आधारित थे।”खूंटी” शब्द यानी “वंश” और “कटी” शब्द का अर्थ “पुनः अधिग्रहण” होता है। खूँटीकाटी परंपरा से मुंडा आदिवासियों को उनके वंशानुगत जल, जंगल और ज़मीन पर अधिकार मिलता है। किन्तु ब्रिटिश सरकार ने उनसे उन पारंपरिक अधिकारों को छीन लिया और भूमि पर कर लगा दिया। इसके ख़िलाफ़ भारी जन-आक्रोश था, सुंदरगढ़ ज़िले में। 

सन्‌ 1938 में स्वाभिमानी आदिवासी नेता निर्मल मुंडा कर नहीं देने के लिए अभियान चला रहे थे। निर्मल और सरल हृदय के धनी थे निर्मल मुंडा और अदम्य साहसी भी। ब्रिटिश सरकार और गांगपुर राजत्व की आँखें उन पर तरेरने लगी थीं। निर्मल मुंडा का गाँव था बारटोली। उनके साथ कुछ प्रमुख बहादुर आदिवासी युवक भी थे। वे थे वोरदा मुंडा, मनसीद टपनों, बहादुर भगत, याकूब गुड़िया और टिंटूस मुंडा आदि। सन्‌ 1938 में आदिवासियों के सर्वमान्य नेता जसपाल सिंह मुंडा से मिलने के लिए वे रांची गए और “खूँटीकाटी” प्रथा को फिर से शुरू करने और आदिवासियों को पारंपरिक अधिकार देने की माँग की। इससे गांगपुर की रानी जानकीरत्ना क्रुद्ध हो गई। 

रानी जानकीरत्ना और ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ जनता में असंतोष तेज़ होने लगा था। निर्मल मुंडा कमान सँभाल रहे हैं। निर्मल मुंडा लोगों को गाँव-गाँव जाकर टैक्स न देने के लिए समझा रहे थे। रानी जानकीरत्ना ने संबलपुर के ब्रिटिश राजनीतिक एजेंट से विद्रोह को दबाने के लिए मदद माँगी। बातचीत करने के बहाने पहुँच गई आमको सिमको। दिन था 25 अप्रैल 1939। निर्मल मुंडा के नेतृत्व में हज़ारों आदिवासी कर न देने के पक्ष में वहाँ इकट्ठे हुए थे। गांगपुर राज और ब्रिटिश सरकार का ज़ोरदार विरोध कर रहा था आमको सिमको गाँव। रानी जानकीरत्ना ब्रिटिश असिस्टेंट पॉलिटिकल एजेंट लेफ्टिनेंट ई.डब्ल्यू. मेर्गर के साथ वहाँ पहुँची। उनके साथ ब्रिटिश पुलिस की दो प्लाटून थीं। योजना थी निर्मल मुंडा को गिरफ़्तार करने की। उसके ख़िलाफ़ लगाया गया था देशद्रोह का आरोप। 

रानी और अँग्रेज़ अधिकारी जब निर्मल मुंडा को गिरफ़्तार करने गए तो सभी ने अपने आपको निर्मल मुंडा बताया!!! इससे क्रोधित होकर जब ब्रिटिश अधिकारी लेफ्टिनेंट मेर्गर एक घर में घुस रहे थे तो एक अवयस्क बच्चे मनिया मुंडा ने उसका रास्ता रोक दिया। मेर्गर के राइफ़ल की बिनोट की मार से मनिया मुंडा नीचे गिर गया और उसकी घटना-स्थल पर मौत हो गई। उत्तेजित लोगों ने ब्रिटिश अधिकारी का विरोध किया। इसी दौरान आमको सिमको गाँव में मासूम आदिवासियों पर बर्बरता पूर्वक गोली चलाई गई। ब्रिटिश पुलिस की अमानवीय गोलीबारी से आमको सिमको गाँव रक्त-रंजित हो गया था। कई निर्दोष आदिवासी मौत का शिकार हो गए। आमको सिमको गाँव के पास के जंगल में प्लाश पेड़ के फूल लाल-लाल नज़र आ रहे थे, तो उस गाँव की मिट्टी वीरपुत्रों के ख़ून से रक्तिम लाल। सरकारी आँकड़ों के अनुसार केवल 50 लोगों की जान चली गई थी, लेकिन इतिहासज्ञ डॉ. हरेकृष्ण महताब ने अपनी आत्मकथा ‘साधना पथे’ में उल्लेख किया कि इस कांड में 300 से अधिक आदिवासियों ने जान गँवायी। 

ओड़िशा के सुंदरगढ़ ज़िले के एक छोटे से गाँव आमको सिमको के इस नरसंहार को आज भी खडिया भाषा के लोक गीत “आमको सिमको पो दाते” में याद किया जाता है। 

आदिवासी नेता निर्मल मुंडा को गिरफ़्तार कर लिया गया। कई वीरों के शवों को बीरमित्रपुर के चूना भट्टों में फेंक दिया गया। 25 अप्रैल, 1939 को ब्रिटिश सरकार ने अपने इतिहास में बर्बरता का एक नया अध्याय जोड़ा और वीरभूमि आमको सिमको ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में शौर्य और अदम्य साहस का एक उज्ज्वल प्रकरण। 

सकालप
14, जून 2022

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