गाँधी: महात्मा एवं सत्यधर्मी

गाँधी: महात्मा एवं सत्यधर्मी  (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

6. सौ वर्ष में दो अनन्य घटनाएँ


सितंबर 1921

यह भारतवर्ष के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन की घटनाओं का एक अनूठा महीना था। इस ऐतिहासिक महीने में भारतीय दृश्यपटल पर दो महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घटीं। ऊपरी दृष्टि से देखने पर लगता है, दोनों घटनाएँ अत्यंत साधारण थी, जबकि उस महीने इतिहास ने एक विशेष निर्णायक मोड़ लिया था। इन दोनों असाधारण घटनाओं के महानायक थे—गाँधी ‘महात्मा’। बापू ने दोनों ही घटनाओं में प्रत्यक्ष रूप से निर्णायक रूप से भूमिका अदा की थी। 

घटनाएँ दो थीं:

1) उस महीने महात्मा गाँधी ने आम भारतीय नागरिक की पोशाक “धोती” को पहनना शुरू किया।

2) उस महीने महात्मा गाँधी ने “यंग इंडिया” पत्रिका में एक लेख लिखा, जिसने “देशद्रोह” की चर्चा को निश्चित आकार प्रदान किया।

सितंबर 1921 में गाँधीजी को दक्षिण अफ़्रीका से भारत लौटे हुए छह साल पूरे हो चुके थे। दक्षिण अफ़्रीका में इंग्लैंड से बैरिस्टरी की पढ़ाई पूरी कर गए मोहन दास करमचंद गाँधी सन्‌ 1914-15 तक ‘महात्मा’ गाँधी के रूप में रूपांतरित हो चुके थे। उसी महान प्रकरण का दूसरा अध्याय भारत में शुरू हुआ। गाँधीजी ने भारतीय जन-जीवन को ठीक ढंग से हृदयंगम करने और आम आदमी के मन की कथा और हृदय की व्यथा को बारीक़ी से जानने के लिए पूरे भारत का भ्रमण कर लिया था। उन्होंने बिहार के चंपारण में गन्ना किसानों के दुख और दुर्दशा को व्यक्तिगत रूप से महसूस किया। पुरी ज़िले के उडार गाँव में दुर्भिक्ष की कराल तस्वीरों ने महात्मा गाँधी को ओड़िशा की ओर आकर्षित किया। 21-22 सितंबर, 1921 को गाँधीजी तमिलनाडु के मदुरै पहुँचे। वहाँ उन्होंने देखा कि एक आम आदमी बड़ी मुश्किल से अपनी धोती से अपना शरीर ढँक रहा था। गाँधीजी ने उस दिन मदुरै में दृढ़ संकल्प किया। अपने पारंपरिक गुजराती कुर्ते और पायजामा को तजकर ‘धोती’ को अपनी पोशाक के रूप में पहनना शुरू कर दिया। 

गाँधी जी की ‘धोती’ थी ‘बिना घुटनों को ढकने वाली धोती’। गाँधी जी ने ‘दरिद्र नारायण’ की वेशभूषा को सँभाल लिया। व्यक्तिगत रूप से यह गाँधीजी की ‘चेतना उन्नयन’ की प्रक्रिया का बहुत बड़ा उदाहरण था। और फिर, इस प्रक्रिया ने गाँधीजी को साधारण भारतीय मनुष्य के साथ मानसिक स्तर पर जड़ित कर दिया। इसके अलावा, गाँधीजी की इस अनन्य ऐतिहासिक निष्पत्ति ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें प्रतिष्ठित कर दिया। देखते-देखते गाँधीजी अरबों पराधीन भारतीयों के आशा और विश्वास के नए प्रकाश स्तंभ बनकर उभरे। 

राजनीतिक तौर पर पूरे भारत में एक अदृश्य अभूतपूर्व उन्माद की लहर फैल गई। मनोवैज्ञानिक तौर पर सभी भारतीय एकता की अदृश्य रज्जुओं में बँध गए थे। असहयोग आंदोलन के समय गाँधीजी ने अपनी नई वेशभूषा पर व्यापक चर्चा की थी। तमिलनाडु में मदुरै जाने से पहले गाँधीजी ने बरिसाल (अब बांग्लादेश में) में घोर ग़रीबी और इसके विकराल रूप को अपनी आँखों से देखा। लोगों के चेहरों पर न हँसी थी और न ही शरीर ढकने के लिए पर्याप्त कपड़ा। अपनी कुर्ते-पायजामे की वेशभूषा को त्यागकर ‘धोती’ वाली वेशभूषा अपनाने पर उन्होंने ‘नवजीवन’ के 2 अक्टूबर, 1921 के अंक में लिखा, “धोती पहनने का निर्णय अचानक नहीं बल्कि व्यापक चिंतन और मंथन के बाद लिया गया था . . . ।”[1] 

मदुरै में धोती पहनने के बाद गाँधीजी ने (23 सितंबर 1921 को) अपने निजी सचिव महादेव देसाई को लिखा, “मैं अब लोगों की पीड़ा और नहीं देख सकता . . . तुम्हें मेरी वेशभूषा में अवश्य विराट परिवर्तन नज़र आएगा . . .”

गाँधीजी उसी घुटनों को नहीं ढकने वाली धोती की वेशभूषा में इंग्लैंड के बकिंघम पैलेस गए। और इस तरह गाँधी जी ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा। 

यद्यपि धोती पहनना गाँधीजी का व्यक्तिगत निर्णय था, मगर आश्चर्यजनक रूप से वह एक अनन्य घटना बनकर सामने उभरी। 

दूसरी घटना यह है कि गाँधीजी ने 1921 की ‘यंग इंडिया’ पत्रिका के 29वें अंक में ‘टेम्परिंग विद लॉयल्टी’ शीर्षक नामक एक लेख प्रकाशित किया था।[2] 

इस लेख को 2021 में सौ वर्ष पूरे हो गए। सन्‌ 1921 तक गाँधीजी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सर्वमान्य नेता बन चुके थे। ब्रिटिश सरकार गाँधीजी को राजनीतिक रूप से परास्त करने के लिए नए-नए तरीक़े तलाश रही थी और भारतीय अहिंसक संग्राम को पथ से विचलित करने की भरसक कोशिश कर रही थी। ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ विरोधी विचारधारा और गतिविधियों का दमन करने के लिए ब्रिटिश सरकार संकल्पबद्ध थी। 

उस समय बॉम्बे के राज्यपाल ने जनता को ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ कुछ नहीं कहने की भी धमकी दी थी। कुछ लोगों को ‘देशद्रोह’ अधिनियम के तहत गिरफ़्तार करने की धमकी भी दी गई थी। गाँधीजी ने उन पर साधारण जनता के मत व्यक्त करने के अधिकार के उल्लंघन करने का आक्षेप लगाया। और उन्होंने इसे ‘आनुगत्य को क्षुर्ण करना’ यानी ‘टेम्परिंग विद लॉयल्टी’ कहा। 

गाँधीजी के मतानुसार राष्ट्र के प्रति या शासन व्यवस्था के प्रति ‘वफादारी’ को हमेशा ‘राष्ट्र की जिम्मेदारी’ से जोड़कर देखा जाना चाहिए। यदि राष्ट्र या शासन प्रणाली आम नागरिकों के हितों की रक्षा नहीं कर सकती है या उन्हें अराजकता की ओर धकेल देती है, तो उन्हें राष्ट्र या शासन के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का अधिकार है। यह मौलिक अधिकार है और सदैव अक्षुण्ण है। यही एक आदर्श लोकतांत्रिक राष्ट्र की सबसे बड़ी पहचान है। गाँधीजी के विचार में, ‘आनुगत्य’ में समय समय पर बदलाव आ सकता है। 

“यंग इंडिया” 29 सितंबर 2021 (पृष्ठ 309-10) वाले अंक में प्रकाशित गाँधीजी के लेख “टैम्परिंग विद लॉयल्टी” ने भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के मनोबल को मज़बूत किया।[3] 

साथ ही, राजनीति विज्ञान, दर्शनशास्त्र और न्यायशास्त्र में ‘आनुगत्य’ और ‘देशद्रोह’ के विषय पर नई बहस को जन्म दिया। आज भी गाँधीजी के इस आलेख को को राजनीतिक दर्शन और क़ानूनी दर्शन में एक युगांतरकारी प्रभाव डालने वाला आलेख माना जाता है। 

गाँधीजी उच्च चेतना के मनुष्य थे। साधारण विषय को समझकर अपनी लेखनी के माध्यम से अस्त्र के रूप में उपयोग करने में गाँधीजी सिद्धहस्त थे। यह थी उनके अहिंसक नेतृत्व की विशिष्टता। 1921 के इस सामान्य आलेख ने ब्रिटिश सरकार को विचलित कर दिया था और साथ ही साथ इस आलेख ने भारत के तत्कालीन राजनीतिक परिदृश्य को हिलाकर रख दिया और एक नई दिशा की आवाज़ बुलंद की। इस तरह अराजकतापूर्ण ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ दबी हुई आवाज़ को नई ताक़त मिली। 

1921 से 2021 के सौ साल के लंबे सफ़र में भारत के परिप्रेक्ष में कई राजनीतिक और सामाजिक बदलाव हुए हैं। फिर भी, गाँधीजी के उन दो साधारण निर्णयों और उनके लेखन की प्रासंगिकता आज भी विद्यमान हैं। 

सकाल
25 अक्टूबर 2021

संदर्भ:

[1] ‘नवजीवन’ का 2 अक्टूबर 1921 का अंक
[2] ‘यंग इंडिया’ का 29 सितंबर 1921 का अंक
[3] ‘यंग इंडिया’ का 29 सितंबर 2021 का अंक

<< पीछे : 5.  “चलो, फुटबॉल खेलते हैं” :… आगे : 7. महात्मा गाँधी की क़लम >>

लेखक की कृतियाँ

साहित्यिक आलेख
पुस्तक समीक्षा
बात-चीत
ऐतिहासिक
कार्यक्रम रिपोर्ट
अनूदित कहानी
अनूदित कविता
यात्रा-संस्मरण
रिपोर्ताज
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में