गाँधी: महात्मा एवं सत्यधर्मी

गाँधी: महात्मा एवं सत्यधर्मी  (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

12. गाँधीजी के तीन अचर्चित ओड़िया अनुयायी

 

1915 ईसवी। 

गाँधी जी दक्षिण अफ़्रीका से भारत आ चुके थे। मोहन दास करमचंद गाँधी से पहले ही महात्मा गाँधी में बदल चुके थे। अपने भूमिपुत्र को आदरपूर्वक गले लगाने के लिए भारत असाधारण ख़ुशी का माहौल था। दक्षिण अफ़्रीका से गाँधीजी की भारत वापसी के सम्बन्ध में गाँधी चेतना से ओत-प्रोत दक्षिण अफ़्रीकी लेखिका फातिमा मीर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘अप्रेंटिशिप ऑफ़ ए महात्मा: ए बायोग्राफी ऑफ़ महात्मा (1869-1914)’ में चमत्कार का वर्णन किया है, “दक्षिण अफ़्रीका छोड़ते समय गाँधी जी में एक संत के सारे लक्षण पहले से ही दिखाई देने लगे थे। जिस तरह ईसा मसीह, गौतम बुद्ध की तरह उद्धारकर्ता में परिवर्तित हुए थे, ठीक वैसे ही अँधेरे से डरने वाला शर्मीला लड़का महात्मा में बदल गया था और महात्मा बनने के सारे मूल्य चुकाते हुए कष्ट-कठिनाइयों को स्वीकार कर लिया।”

भारत आने के बाद गाँधीजी गुजरात के अहमदाबाद में पहुँचे। सत्याग्रह, स्वदेशी, आत्म-निर्भरता, स्वच्छता और मूल्यों के पृष्ठपोषक विचारों को व्यावहारिक रूप देने के लिए कोचराब क्षेत्र में एक आश्रम की स्थापना की। उनके बैरिस्टर मित्र जीवनलाल देसाई ने उन्हें इस हेतु भूखंड उपहारस्वरूप दिया था। वहाँ दो साल बिताने के बाद, गाँधीजी ने जून 1917 में साबरमती नदी के तट पर साबरमती आश्रम की स्थापना की। 1917 से 1930 तक, साबरमती आश्रम गाँधीजी का साधना पीठ और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की प्रेरणास्रोत स्थली थी। गाँधीजी व्यक्तिगत रूप से साबरमती आश्रमवासियों का चयन कर रहे थे और उन्हें तपस्या और त्यागमय जीवन जीने के लिए प्रशिक्षित भी। 

गाँधी जी के साबरमती आश्रम में रहने के किसी के लिए भी अवश्य महार्घ था और किसी देवता के आशीर्वाद से कम नहीं था। आध्यात्मिक चेतना की भूमि में ओड़िशा के तीन ओड़िया लोगों को दुर्लभ आशीर्वाद प्राप्त हुआ था। 

जिसमें पहले ओड़िया थे गोबिंद चंद्र मिश्रा, साबरमती आश्रम में गाँधीजी का पूर्ण सान्निध्य प्राप्त करने वाले। 

दशपल्ला में जन्मे गोबिंद चंद्र मिश्रा वहाँ की दयनीय हालत और ब्रिटिश शासकों के क्रूर उत्पीड़न को देखकर देश को स्वाधीनता दिलाने के लिए प्रतिबद्ध हो गए। वे दशपल्ला से चले गए थे रवींद्रनाथ ठाकुर के पास। वहाँ उनकी मुलाक़ात दीनबंधु सी.एफ़. एंड्रयूज से हुई। दोनों की सलाह पर गोबिंद चंद्र मिश्रा साबरमती आश्रम चले आए। वहाँ अपने प्रणम्य पुरुष गाँधीजी से नवंबर 1918 में मिलकर उनका प्रत्यक्ष आशीर्वाद प्राप्त कर साबरमती आश्रम में योगदान देने लगे। कभी हिंसा को मान्यता देने वाले गोबिंद चंद्र मिश्रा गाँधीजी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर और उनके आदर्शों में नई रोशनी देखकर गाँधीजी और उनके विचारों के प्रति आजीवन समर्पित रहे। 

साबरमती आश्रम में थोड़े समय रहकर, गाँधीजी को प्रत्यक्ष देखकर उनके बताए मार्ग का अनुसरण करने वाली दूसरी ओड़िया बेटी थी उत्तरा चौधरी। 

माता-पिता दोनों स्वतंत्रता सेनानी थे। पूर्व स्वतंत्रता सेनानी नवकृष्ण चौधरी और मालती देवी की बेटी उत्तरा चौधरी को गाँधीजी के साबरमती आश्रम में सुअवसर प्राप्त हुआ था। बाद में वर्धा के सेवाग्राम आश्रम में विभिन्न कार्यों को सुचारु रूप से अंजाम देते हुए गाँधीजी के रचनात्मक कार्यों के लिए ख़ुद को समर्पित कर दिया था। उत्तरा चौधरी को गाँधीजी को बहुत क़रीब से देखने और उनके निर्देशन में काम करने का दुर्लभ सौभाग्य प्राप्त हुआ था। 

उस समय गाँधीजी के निजी सचिव महादेव देसाई थे, कट्टर गाँधीवादी। महादेव देसाई अपने परिवार के साथ वहीं रहते थे। महादेव देसाई के पुत्र नारायण देसाई भी बचपन से ही आश्रम के वातावरण में पले-बढ़े। नारायण देसाई को गाँधीवादी मूल्यों पर आधारित शिक्षा और व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया में प्रशिक्षण मिला था। गाँधीजी उन्हें प्यार से ‘बबला’ कहकर बुलाते थे। समय के साथ युवा नारायण देसाई और उत्तरा चौधरी का शुभ विवाह गाँधीजी के आशीर्वाद से हुआ। ओड़िया घर की बेटी एक गुजराती परिवार की बहू बनी। मन में नया घर बसाने का सपना और हृदय में थी गाँधी जी के द्वारा दिखाए रास्ते पर चलते रहने की प्रबल इच्छा। गाँधीजी के आदर्शों से अनुप्राणित होकर नवदम्पति उत्तरा और नारायण का पाथेय था उनका अनमोल आशीर्वाद और प्रेरणा। 

ओड़िया परिवार की बेटी, जो हाल ही में गुजराती परिवार की बहू बनी थी, अपने पति नारायण देसाई के साथ चली गई सूरत से साठ किलोमीटर दूर आदिवासी वेदच्ची गाँव में। नवविवाहित उत्तरा और नारायण देसाई ने अपना हाथों से माटी लेपन वाला घर बनाकर अपने विवाहित जीवन की शुरूआत की। वहाँ उन्होंने आदिवासियों की शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास के लिए गाँधीवादी सिद्धांतों को सफलतापूर्वक प्रयोग किया। गाँधीवादी विचारधारा को लागू करने गुजरात के किसी अज्ञात कोने में आदिवासियों के कल्याणकारी विकास के लिए समर्पित थी ओड़िया पुत्री उत्तरा। गाँधीवाद के प्रति उनका समर्पण गाँधीजी के प्रति एक सच्चा सम्मान था। 

गाँधीजी के साथ घनिष्ठ भाव से साबरमती आश्रम में काम करने का ईश्वर प्रदत्त सुअवसर प्राप्त करने वाले एक और ओड़िया युवक था। वह थे बालेश्वर ज़िले के युवा संग्रामी मोतीवास दास। 

1930 के दशक में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम एक महत्त्वपूर्ण मोड़ पर पहुँच गया था। महात्मा गाँधी ने साबरमती आश्रम से प्रसिद्ध दांडी यात्रा शुरू करने का फ़ैसला किया। नमक सत्याग्रह नामक यह अभिनव योजना आम आदमी द्वारा उपयोग में लिए जाने वाले सामान्य नमक पर आधारित थी। 12 मार्च 1930 को साबरमती आश्रम से दांडी यात्रा शुरू हुई थी और 5 अप्रैल 1930 को दांडी गाँव में समाप्त हुई। 390 किमी गाँधी जी की दांडी यात्रा:ने भारतीय जनमानस में नई आशा और उत्साह का संचार किया था। फिर 1882 के नमक अधिनियम द्वारा अँग्रेज़ सरकार कुल वार्षिक कर का 8.2% एकत्र करती थी। गाँधीजी का नमक सत्याग्रह न केवल एक राजनीतिक हथियार था बल्कि अँग्रेज़ सरकार के ख़िलाफ़ आर्थिक अस्त्र भी था। 

गाँधीजी की इस अभिनव दांडी यात्रा में 79 अनुयायी शामिल हुए थे। गाँधीजी के पैदल सैनिकों के मन में देश को आज़ाद कराने का अटूट जज़्बा और अदम्य साहस था। उन 79 अनुयायियों में केवल एक ओड़िया बीस वर्षीय युवा थे मोतीवास दास। दांडी यात्रा में सबसे आगे महात्मा गाँधी तेज़ गति से चल रहे थे। उनके पीछे रामधुन गाते हुए थे ओड़िया युवा मोतीवास दास। गाँधीजी के साबरमती आश्रम की यात्रा की तुलना गौतम बुद्ध के ‘महापरिनिर्वाण’ से भी की जाती है। 

मोतीवास दास ने महात्मा गाँधी के ऐतिहासिक यात्रा में शामिल होकार उनके विचारों और चेतना से प्रभाव से ओड़िशा भूमि को हमेशा के लिए सम्मानित किया है। 

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