गाँधी: महात्मा एवं सत्यधर्मी

गाँधी: महात्मा एवं सत्यधर्मी  (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

गाँधी: एक अलीक योद्धा

 

महात्मा गाँधी विश्व इतिहास की ऐसी अपूर्व और अद्भुत शख़्सियत हैं, जिन्होंने चिंतन और आचरण दोनों स्तरों पर परंपराओं और सीमाओं का अतिक्रमण किया। गाँधी ऐसे अलीक योद्धा हैं, जो सदा लीक छोड़कर चले। बड़ी बात यह नहीं कि उन्होंने लीकें तोड़ीं, अपितु बड़ी बात यह है कि उन्होंने नयी लीकें रचीं विश्व इतिहास की महान विभूतियों में गाँधी वह व्यक्ति हैं, जिन्हें वर्गीकृत करना कठिन है। गाँधी अपने पूर्ववर्ती समस्त रणबाँकुरों से भिन्न हैं। वह भगवान बुद्ध के उपरांत इस भूखण्ड में पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने इस महादेश की आत्मा को पहचाना, समूचे देश को आलोड़ित किया और सारा देश इस फ़क़ीर के पीछे चल पड़ा। गाँधी अपने आयुधों से विश्व की सबसे शक्तिशाली हुकूमत के ख़िलाफ़ जंग ही नहीं छेड़ते हैं, वरन्‌ इस गौरवशाली अतीत के पददलित, शोषित और विपन्न महादेश के समक्ष एक नया समाजार्थिक और सांस्कृतिक फ़लसफ़ा भी प्रस्तुत करते हैं। गाँधी चिंतन को आचरण में ढालने का प्रतिमान भी हैं और अपने समकालीनों से आज़ादी की लंबी लड़ाई में हर कहीं क़दम आगे नज़र आते हैं। उनके युवा अनुयायी भी उनके साथ क़दमताल नहीं कर पाते। गाँधी आजीवन अपना सलीब साथ लिये चलते नज़र आते हैं। 

गाँधी महान क्यों हैं? इसलिए कि घोर असहमति भी उन्हें ख़ारिज नहीं कर सकती। इसलिए भी कि एक पंक्ति में उन्हें बयाँ नहीं किया जा सकता। वे गृहस्थ हैं, लेकिन वीतरागी। कोई आश्चर्य नहीं यदि बापू को बचपन में राम के वनगमन और बुद्ध के गृहत्याग का प्रसंग झकझोरता रहा हो। उपवास, आश्रमों की स्थापना, शाकाहार, प्राकृतिक चिकित्सा के प्रयोग, पदयात्रा, सत्याग्रह, अहिंसा जहाँ उन्हें अनायास आर्ष ऋषियों, बौद्ध भिक्खुओं और जैन श्रमणों से जोड़ देती है, वहीं उनकी करुणा उन्हें प्रभु यीशु की सलीब के निकट ले जाकर खड़ा कर देती है। उनका फक्कड़पन कबीर और मंसूर की याद दिलाता है। और सत्य के लिए उनका अदम्य आग्रह सुकरात की आज़ादी की लड़ाई के अनेक प्रसंगों में वे हठयोगी नज़र आते हैं। इन अर्थों में वे निर्मोही हैं कि उनका मोह किसी पार्थिव तत्त्व से नहीं है। उनका साध्य पवित्र है और साधन भी पूत। नौरोजी, तिलक और गोखले का चिंतन उनमें एक साथ परिष्कार व उन्नयन पाता है। वे किसी की परवाह नहीं करते। किसी की कोई फ़िक्र नहीं। बेफ़िक्र बेपरवाह। हद्द छोड़कर बेहद्द हुई शख़्सियत हैं गाँधी जेब में बार-एट-लॉ की सनद, मगर पारंपरिक ढंग से वकालत नहीं। चोरीचौरा काण्ड हुआ कि सत्याग्रह स्थगित। सबका रोष सिर माथे, मगर टस से मस नहीं अविचलित अडिग। निर्विकार। ग़ज़ब का आत्मबल। दंभी और अड़ियल ब्रिटिश हुकूमत का दंभ चूर-चूर करने के लिए वे अपने हाथों नमक का चूरा बनाते हैं। सनातनी समाज की कोपदृष्टि से बेख़बर वे अछूतोद्धार और अस्पृश्यता उन्मूलन का अभियान छेड़ देते हैं। लिवरपूल की मिलों के करघे रोकने के लिए वे चरखा कातते हैं। देखते-देखते खादी राष्ट्र की पोशाक बन जाती है। उन्हें गूँगी या विदेशी ज़ुबान में आज़ादी नहीं चाहिए। उनकी आज़ादी की लड़ाई हिन्दी की लड़ाई भी है। आज़ादी की वेला में जब बीबीसी का संवाददाता साक्षात्कार के लिए आता है, बापू कहते हैं: “जाओ, दुनिया से कह दो गाँधी अंग्रेज़ी भूल गया।” कितना व्यापक है उनकी सोच का फलक। उनके सरोकारों की परिधि बड़ी है और विस्मयकारी भी। उनकी चिंताओं का फलक विश्व के किसी भी महानायक से अधिक विस्तृत है। हिन्दु-मुसलमान, ब्राह्मण-दलित, स्त्री-पुरुष, किसान-मज़दूर, दस्तकार मेहतर, कुरीतियों से मुक्ति, नीति–अनीति, आध्यात्मिक प्रगति सब कुछ उनकी चिंताओं के दायरे में है। अल्बर्ट आइंस्टीन सच कहते हैं: “आने वाली सदियाँ इस बात पर शायद ही यक़ीन करें कि इस धरती पर हाड़-मांस का ऐसा भी कोई आदमी हुआ था।” विनोदी चार्ली चैप्लिन कहते हैं:  “क्या आप सरकार चला सकेंगे?” बापू कहते हैं, “मिस्टर चार्ली! पहले आप आज़ादी तो दीजिये।” प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि बापू के लिए आज़ादी राजनीतिक आज़ादी तक सीमित न थी। उनकी स्वतंत्रता की अवधारणा व्यापक थी और वे महत्तम मुक्ति के हिमायती थे। वे सत्य को लाठी से धरती को मुक्ति की ओर ठेलते महामानव थे। बापू कहीं आकर चले नहीं जाते थे, वरन्‌ अपने पीछे छोड़ जाते थे अद्भुत चिनगारियाँ, जिनमें सड़े गले विचारों को राख करने की अद्भुत क्षमता थी। बापू की अविभक्त मध्यप्रदेश की दस यात्राएँ नववामन के दस पग विराट सिद्ध हुई। गाँधी से जनता का साक्षात्कार अपने आप से साक्षात्कार था, जनता ने अपनी ताक़त और अपने आत्मबल को पहचाना और जाना कि उसकी समवेत शक्ति महाबली ब्रिटिश साम्राज्य की चूलें हिला सकती है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी यूँ ही नहीं कहते, “इतिहास ने इतनी बड़ी काया में इतना बड़ा प्रण नहीं देखा था। धरित्री ने इतने अल्प अवकाश में इतना बड़ा प्रकाश नहीं देखा था . . .। वह जिधर मुड़ा जीवन लहरा उठा। वह जिधर झुका, प्रेम बरस पड़ा। वह जिधर चला, ज़माना दरक पड़ा। विश्व के ज्ञात इतिहास में सत्य का इतना बड़ा पुंज कभी प्रकट नहीं हुआ। सारे ज्ञानियों ध्यानियों, मनीषियों और दार्शनिकों ने कहा—ईश्वर सत्य है। गाँधी ने दोनों भुजाएँ उठाकर कहा—सत्य ही ईश्वर है। परंपरा से इतना क्रांतिकारी विचलन और भला कहाँ होगा? सत्य को लेकर कोई समझौता नहीं।” दक्षिण अफ़्रीका में सत्याग्रह का इतिहास के द्वितीय संस्करण के प्रास्ताविक में सन् 1925 में लिखा—“तपस्या पर सत्य पर, अहिंसा पर मेरी अटल और अविरल श्रद्धा है। मेरा अक्षरशः यह विश्वास है कि सत्य का पालन करने वाले मनुष्य के सामने सारे जगत की सम्पत्ति आकर खड़ी हो जाती है और वह ईश्वर का साक्षात्कार करता है अहिंसा के निकट बैर-भाव नहीं रह सकता। इस वचन को भी मैं अक्षरशः सत्य मानता हूँ।” इस कृति के रामसुंदर पंडित विषयक ‘प्रथम सत्याग्रही क़ैदी’ अध्याय को पढ़ें। वे लिखते हैं—“प्रत्येक शुद्ध आंदोलन के नेताओं का यह कर्त्तव्य है कि वे शुद्ध आंदोलन में शुद्ध आदमियों को ही भर्ती करें।” यह कथन गाँधी की दूरदृष्टि दर्शाने के साथ-साथ स्वतंत्र भारत के अनेकानेक आंदोलनों को समझने की बीनाई देता है। गाँधी को रेशमी परिधानों और क़ीमती प्रसाधनों की ज़रूरत न थी। उनकी राष्ट्रभक्ति सर्वसमावेशी थी। वह अन्य राष्ट्रीयताओं के दुःख और शोषण पर खड़ी न थी। भारत के लिए आज़ादी हासिल करने के ज़रिए वह संपूर्ण मानवता के बीच भाई-चारे के लक्ष्य को हासिल करना चाहते थे। दाई रंभा का बचपन में दिया रामनाम का मंत्र उनके तई आतंक या ध्वंस का मंत्र न होकर भय से मुक्ति का अमोघ मंत्र है। गाँधी महान पत्रकार भी थे। गाँधी मूल्यवान हैं कि वे घृणा पर प्रेम, असत्य पर सत्य, बैर पर मैत्री, हिंसा पर अहिंसा की वरीयता का पर्याय हैं। कितने ही प्रसंग हैं: जनरल एस्कोंब, मीट आलम, जनरल स्मट्स, सुहरावर्दी और सीमांत गाँधी। आचार और विचार की पवित्रता में उनके सम्मोहन का उत्स था। कवीन्द्र रवीन्द्र ने उन्हें बाद में ‘महात्मा’ कहा। वस्तुतः दक्षिण अफ़्रीका ने मोहनदास करमचंद को ‘महात्मा’ में बदल दिया था। वही विश्व इतिहास में सर्वप्रथम ‘सत्याग्रह’ का अपूर्व अमोघ आयुध अस्तित्व में आया था। बिना रक्तपात, युद्ध और घृणा के दासता और शोषण से मुक्ति का मानवीय आयुध। गाँधी आजीवन स्वयं को और अपने दर्शन को माँजते उजलाते रहे। लंबी यात्रा में वे हमारे खोये हुए कंपास या कुतुबनुमा हैं। जो पराई पीर नहीं जानता, वह वैष्णव जन कैसा? समाजशास्त्री पिटरिम सोरोत्किन का ‘द रिकंस्ट्रक्शन ऑफ़ ह्यूमैनिटी’ को गाँधी को समर्पित करना अकारण नहीं है क्योंकि गाँधी को आत्मसात करके ही आदमी के लिए इंसान होना मयस्सर हो सकेगा। क्रांतिकारी कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने क़रीब एक सदी पहले लिखा था:

“वह गाँधी हम सबका बापू, वह अखिल विश्व का प्यारा
वह उनमें से ही एक, जिन्होंने आकर विश्व उबारा है
है बुद्ध सुखी उसमें अपने ही परम धर्म का ज्ञान देख। 
है ईसा ख़ुश बलिदान देख, पैंगबर ख़ुश इमान देख।” 

भारत का इससे बड़ा सौभाग्य नहीं कि गाँधी ने भारत में जन्म लिया।

डॉ. सुधीर सक्सेना 
प्रधान संपादक
‘दुनिया इन दिनों’ 
संपर्क: 9711123909 2

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