गाँधी: महात्मा एवं सत्यधर्मी

 

सन्‌ 1915 का अक्टूबर महीना। 

सफ़ेद बर्फ़ से युक्त ठंडे यूरोपीय देश लिथुआनिया के छोटे से शहर रुसने में प्राकृतिक छटा खिली हुई थी। इसके साथ-साथ, नेमन नदी के तट पर स्थित रूसने के निवासियों के मन में ख़ुशी की लहर दौड़ रही थी! कारण यह था कि रूसने की मिट्टी में पैदा हुए भूमिपुत्र की मूर्ति का अनावरण महोत्सव। इसके अलावा, एक दूसरा कारण भी था, उस मूर्ति के साथ-साथ एक और वरेण्य विश्व-पुरुष की मूर्ति का भी अनावरण। 

रूसने की मिट्टी पुलकित हो रही थी डॉ. हेरमेन कालेनबेक की मूर्ति को अपनी गोद में लेने के लिए और उसके साथ-साथ रोमांचित हो रही थी महात्मा गाँधी की मूर्ति को आलिंगन करने के लिए। 

महात्मा गाँधी और डॉ. हेरमेन कालेनबेक के बीच गहरी मित्रता थी। दक्षिण अफ़्रीका में आयोजित ‘सत्याग्रह’ ने उन दोनों को मित्रता के बंधन में बाँध दिया था। महात्मा गाँधी के सत्याग्रह के प्रति चरम निष्ठा और प्रतिबद्धता ने डॉ. हेरमेन कालेनबेक को गंभीरता से प्रभावित किया था। 

1904 में दक्षिण अफ़्रीका में डॉ. कालेनबेक की मुलाक़ात महात्मा गाँधी से हुई। गाँधी बैरिस्टर थे और डॉ. कालेनबेक उच्चकोटि के आर्किटेक्ट। वे महात्मा गाँधी से दो साल छोटे थे। सन्‌ 1893 में गाँधी दक्षिण अफ़्रीका पहुँचे और कालेनबेक तीन साल बाद यानी सन्‌ 1896 में दक्षिण अफ़्रीका पहुँचे। व्यवसाय और वास्तुकला का काम करने के कारण कालेनबेक बहुत जल्दी पैसे वाले हो गए। लेकिन बहुत अमीर होने के बावजूद, गाँधीजी से उनकी मुलाक़ात ने उनका जीवन पूरी तरह बदल दिया था। गाँधीजी ने उन्हें रंगभेद नीति के बारे में समझाया और उनके “सत्याग्रह” प्रयोग हेतु प्रेरित किया। 

गाँधीजी रूसी लेखक लियो टॉल्स्टॉय के जीवन और लेखन से प्रभावित थे। ख़ासकर सन्‌ 1894 में लिखी गई लियो टॉल्स्टॉय की पुस्तक ‘द किंगडम ऑफ़ गॉड इज़ विदिन यू’ ने उन्हें काफ़ी प्रभावित किया। गाँधीजी ने 1 अक्टूबर 1909 को टॉल्स्टॉय को एक पत्र लिखा था। जिसका उन्होंने टॉल्स्टॉय द्वारा लिखित ‘ए लेटर टू ए हिंदू’ निबंध में उपादेयता विषय पर प्रकाश डाला था और गाँधीजी ने टॉल्स्टॉय के उस लेख का गुजराती भाषा में अनुवाद किया। गाँधीजी ने ‘इंडियन ओपिनियन’ पत्रिका के 30.10.1909 वाले अंक में ‘टॉल्स्टॉय का सत्याग्रह’ शीर्षक से एक अद्भुत लेख लिखा, जिसमें उनके द्वारा उन्होंने अहिंसा और स्वराज के माध्यम से स्वतंत्रता प्राप्त करने की बात कही गई थी। 

रूसी टॉल्स्टॉय के उन आदर्शों ने गाँधीजी को इतना प्रभावित किया कि गाँधीजी ने उन आदर्शों को अपने जीवन में लागू करने के लिए जोहान्सबर्ग के पास ‘टॉल्स्टॉय फार्म’ की स्थापना की। ‘टॉल्स्टॉय फार्म’ को गाँधीजी ने ‘सत्याग्रह’ के नाम से और ‘आध्यात्मिक चेतना’ के उत्तरण हेतु नियोजित किया था। उस समय दक्षिण अफ़्रीका के ट्रांसवाल में पातर की अंतर नीति के विरुद्ध सत्याग्रह शुरू हुआ। सन्‌ 1910 में स्थापित “टॉल्स्टॉय फार्म” का नामकरण कालेनबेक ने किया था। और कालेनबेक द्वारा ख़रीदी गई ज़मीन पर ‘टॉल्स्टॉय फार्म’ की स्थापना गाँधीजी और उनकी गहरी मित्रता और ‘सत्याग्रह’ के प्रति अथाह आस्था दर्शाती है। 

‘टॉल्स्टॉय फार्म’ के निर्माण में उनकी प्रमुख भूमिका थी। भारतीय अहिंसक स्वतंत्रता संग्राम के लिए कालेनबेक की सहायता और समर्थन गाँधीजी के लिए बहुत मददगार साबित हुई थी। ‘टॉल्स्टॉय फार्म’ में गाँधीजी ने ‘लड़कों और लड़कियों के सामग्रिक विकास’ पर प्राथमिकता दी। गाँधीजी ने ‘टॉल्स्टॉय फार्म में छह से लेकर सोलह वर्ष की आयु के बीच के लड़कों और लड़कियों दोनों के लिए शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण की व्यवस्था की थी। व्यावसायिक प्रशिक्षण गाँधीजी द्वारा आत्मनिर्भरता की दिशा में एक सफल प्रयास था। गाँधीजी के अनुसार, ‘टॉल्स्टॉय फार्म’ एक परिवार की तरह था, जहाँ मैं एक पिता की भूमिका निभा रहा था। [1] 

‘टॉल्स्टॉय फार्म’ में झाड़ू लगाने, शौचालय साफ़ करने और पानी ढोने जैसे कार्यों को प्राथमिकता देकर प्रशिक्षुओं का नैतिक मनोबल बढ़ाया जाता था। 

गाँधीजी और डॉ. कालेनबेक के बीच गहरी दोस्ती का आधार था एक-दूसरे के प्रति उच्चकोटि का सम्मान। शारीरिक परिश्रम और व्यवसायिक प्रशिक्षण को प्राथमिकता देने वाले गाँधीजी ने सैन्डल बनाना सीखने के लिए डॉ. कालेनबेक को पाइनटाउन के पास स्थित मेरियन हिल मोनास्ट्री में भेजा। वहाँ से सैंडल बनाने का प्रशिक्षण प्राप्त कर ‘टॉल्स्टॉय फार्म’ के सभी प्रशिक्षार्थियों को समझाया। 

यहाँ तक कि गाँधीजी को भी!! 

गाँधीजी ने अपने भतीजे मगनलाल गाँधी को एक पत्र में लिखा कि किस तरह उन्होंने चौदह सैंडल तैयार किए। 

गाँधीजी और डॉ. कालेनबेक की गहरी दोस्ती के सबसे महत्त्वपूर्ण पहलुओं में से एक था, उनके अपने-अपने जीवन में कुछ उच्च आदर्शों का अनुप्रयोग करना। उन्हीं में से एक है ‘ब्रह्मचर्य’। गाँधीजी ने अपने जीवन में ब्रह्मचर्य के पालन का प्रयोग कर रहे थे। इसलिए उन्होंने गाय के दूध का प्रयोग बंद कर दिया। इस सम्बन्ध में डॉ. कालेनबेक ने उन्हें नैतिक समर्थन दिया। यहाँ तक कि उन्होंने भी गाय का दूध पीना छोड़ दिया। 

उन दोनों के बीच गहरा सम्बन्ध उच्च आदर्शों और चिंतन तक ही सीमित नहीं था। वे दोनों अपने पारिवारिक जीवन की कई समस्याओं को भी एक-दूसरे से आदान-प्रदान करते थे। सन्‌ 1904-05 में एक हस्तलिखित पत्र में गाँधीजी ने डॉ. कालेनबेक को लिखा था, “कल मैंने चार केले, तीन संतरे, कुछ खजूर और बादाम खाए . . . मैं रात को देर से सोया और सुबह चार बजे उठ गया . . . इसलिए मेरी आँखों में थोड़ी जलन हो रही है . . .।” [2] 

गाँधीजी के प्रति डॉ. कालेनबेक का सम्मान कितनी उच्चकोटि का था, दक्षिण अफ़्रीका की एक घटना से पता चलता है। गाँधीजी को दक्षिण अफ़्रीकी सरकार की नीतियों का विरोध करने के लिए जेल में डाल दिया गया था। गाँधीजी कुछ महीनों के कारावास के बाद जेल से रिहा हो रहे थे तो उनके स्वागत के लिए डॉ. कालेनबेक अपनी नई महँगी कार में पहुँचे। अपने घनिष्ठ मित्र का उत्साह देखकर गाँधीजी गाड़ी में बैठ गए, मगर कार से अपने डेरे तक जाते समय बिल्कुल चुपचाप बैठे रहे। मगर घर पहुँचकर गाँधी जी के मुख से निकला, “जितनी जल्दी हो सके, उसे इस कार को दियासिलाई से आग लगा दो।” डॉ. कालेनबेक ने उस कार को आग तो नहीं लगाई, मगर गैरेज में एक साल से अधिक ऐसे ही रखकर किसी को हस्तांतरित कर दिया। इतना ही नहीं, अगले ग्यारह साल तक उन्होंने कार का इस्तेमाल नहीं किया!! गाँधीजी सरल सादा जीवन जीने के प्रति बहुत सावधान रहते थे और उनके आदर्शों को शिरोधार्य कर लिया था डॉ. कालेनबेक ने। 

वे दोनों डेढ़ साल तक जोहान्सबर्ग के एक घर में एक साथ रहे। इसी समय गाँधीजी के अंतर में उच्च चेतना जागृत होने के साथ-साथ अद्वितीय नेतृत्व की क्षमता पैदा हुई थी। गाँधीजी की मानसिक प्रक्रिया के उन्नयन के सहयोगी और प्रत्यक्षदर्शी थे डॉ. कालेनबेक। 

सन्‌ 1911 के आस-पास बाल्टिक सागर की गहरी नीली जलराशि के किनारे स्थित अपनी जन्मभूमि लिथुआनिआ को लौट गए थे डॉ. कालेनबेक। उनके हाथ में था गाँधीजी का एक हस्तलिखित वार्ता-संदेश, जिसमें गाँधीजी ने लिखा था, डॉ. कालेनबेक आध्यात्मिक रज्जु पर चलने वाला पथिक है। 

गाँधीजी और डॉ. कालेनबेक की दोस्ती जितनी दुर्लभ और अनोखी है, रुसेन की मिट्टी में दो विभूतियों की मूर्तियाँ उतनी ही विरल और अनन्य हैं। 

संवाद

संदर्भ:

 [1] गाँधी, मोहनदास करमचंद, ऐन ऑटोबायोग्राफी या द स्टोरी ऑफ़ माई एक्सपेरिमेंट विद ट्रुथ': नवजीवन पब्लिशिंग हाउस, अहमदाबाद, 1927, 1940, 1995, पेज 278
 [2] रामचंद्र गुहा, गाँधी बिफोर इंडिया, पेंगुइन, नई दिल्ली, पेज 18

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