गाँधी: महात्मा एवं सत्यधर्मी

गाँधी: महात्मा एवं सत्यधर्मी  (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

3. सत्यधर्मी गाँधी: शताब्दी

 

1922। 
उस साल होली के समय अहमदाबाद के वातावरण में थोड़ी उमस थी। उमस और भी ज़्यादा बढ़ रही थी, एक अभूतपूर्व राजनीतिक संघर्ष के कारण। अहमदाबाद की गली-नुक्कड़ों से लेकर पूरे भारतवर्ष में और पूरी दुनिया भर में एक कोर्ट केस को लेकर हर किसी की निगाहें टिकी हुई थी। फिर, कोर्ट केस जितने कौतूहल का केंद्र था, उससे अधिक आकर्षण का केंद्र बिन्दु था विचाराधीन व्यक्ति। विचाराधीन व्यक्ति ने ख़ुद अपना पक्ष रखने का फ़ैसला करते हुए अदालत में अपील की थी। 

वह विचाराधीन व्यक्ति महात्मा गाँधी थे और उनके ख़िलाफ़ केस दर्ज हुआ था ‘देशद्रोह’ का। ब्रिटिश सरकार ने महात्मा गाँधी के ख़िलाफ़ ‘देशद्रोह का मामला’ दर्ज किया था। गाँधी पर आरोप लगा था कि उन्होंने कुछ लेख लिखकर ब्रिटिश सरकार की तीव्र आलोचना की थी!!! 

1893 में गाँधीजी मोहन दास करमचंद नामक एक युवा बैरिस्टर के रूप में दक्षिण अफ़्रीका गए थे। 21 वर्षों के बाद सन्‌ 1914 में वे भारत लौट आए, महात्मा गाँधी में रूपांतरित होकर, अहिंसा और सत्याग्रह के उपासक के रूप में, करोड़ों लोगों की आस्था-विश्वास के उज्ज्वल केंद्र बनकर। प्रसिद्ध दक्षिण अफ़्रीकी लेखिका फातिमा मीर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “द अप्रेंटिसशिप ऑफ़ ए महात्मा” में शानदार ढंग से वर्णन किया है कि “गौतम जैसे बुद्ध हो गए थे; जैसे यीशु मसीहा बन गए; ठीक वैसे ही शर्मीला और अँधेरे से डरने वाला लड़का मोहन दास महात्मा में बदल गया था। 1914 में दक्षिण अफ़्रीका से भारत लौटने समय, उनमें ‘महात्मा’ होने के सभी गुण और लक्षण विद्यमान थे।” 

गाँधी भारत पहुँचकर आम आदमी के मन की कथा और हृदय की व्यथा को अंतरंग भाव से समझने और परखने के लिए भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक यात्रा की। यात्रा के दौरान उन्होंने महसूस किया कि ब्रिटिश शासन  ने भारत के लोगों को राजनीतिक और आर्थिक रूप से ही कमज़ोर नहीं किया है, बल्कि उन्हें मानसिक रूप से कमज़ोर कर दिया है। ब्रिटिश सरकार के अन्याय और उत्पीड़न को सहन करने की मानसिकता भी भारतीयों के मन में घर कर गई है। इसलिए, आम भारतीयों के दुख-दर्द और उनकी आवाज़ को सशक्त रूप से उठाने और ब्रिटिश सरकार के अन्याय, उत्पीड़न और अराजकता का कड़ा विरोध करने के लिए 1919 में महात्मा गाँधी ने अंग्रेज़ी में ‘यंग इंडिया’ नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। गाँधी जी स्वयं ‘यंग इंडिया’ के संस्थापक और संपादक थे। गाँधीजी ने बॉम्बे से ‘यंग इंडिया’ की शुरूआत की और बाद में उसे अहमदाबाद ले गए। उस समय ‘यंग इंडिया’ की क़ीमत थी एक आना और इसकी प्रसार संख्या थी 1200, जो उस समय बहुत अधिक थी। गाँधीजी कुशल और विवेकशील संपादक थे। इस पत्रिका में वे आम भारतीयों की समस्याओं और मुद्दों के बारे में लिखते थे। ‘यंग इंडिया’ की बिक्री छह महीने में बढ़कर 2500 हो गई और सिर्फ़ एक साल में इसकी प्रसार संख्या 40,000 तक पहुँच गई!!! 

महात्मा गाँधी ने एक विचक्षण राजनेता, कुशल संपादक और प्रभावशाली लेखक के रूप में 1921 से 1922 तक “यंग इंडिया” में भारत के विभिन्न मुद्दों पर तीन अद्भुत लेख लिखे। वे लेख थे: 

  1. टेम्परिंग विद लॉयल्टी (29 सितंबर, 1921) 

  2. द पज़ल एंड इट्स सॉल्यूशन (15 दिसंबर, 1921) और 

  3. शेकिंग द मेन्स (23 फरवरी, 1922)। 

इन तीन लेखों में गाँधीजी ने ब्रिटिश सरकार के अन्याय और क्रूरता की कड़ी आलोचना की और भारतीय जनता को नींद से जगाने का भरसक प्रयास भी। इन तीन लेखों से ब्रिटिश सरकार बहुत नाराज़ होकर गाँधीजी को आक्रोशस्वरूप गिरफ़्तार कर लिया और उन पर ‘देशद्रोह’ का मुक़द्दमा दायर किया, भारतीय दंड संहिता (भारतीय दंड संहिता) के अनुच्छेद 124-ए के तहत। गाँधीजी के ख़िलाफ़ आरोप लगा था कि उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ जनता में नफ़रत पैदा की है। 

1920 तक भारत में राजनीतिक माहौल बहुत तनावपूर्ण और संवेदनशील हो गया था। ब्रिटिश सरकार का अन्याय, अत्याचार और अराजकता भी अपने चरम पर पहुँच चुकी थी। जन आक्रोश भी तेज़ी से फैल रहा था। उसे दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने रोल्ट एक्ट नामक दमनकारी नीति बनाई। ब्रिटिश सरकार इस एक्ट के माध्यम से किसी भी भारतीय को बिना ट्रायल के गिरफ़्तार कर सकती थी। इसके अलावा, जलियाँवाला बाग़ नृशंस हत्या-कांड ने ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ जन आंदोलन को और भी तेज़ कर दिया था। इन दो मार्मिक घटनाओं के आधार बनाकर महात्मा गाँधी ने 1 अगस्त 1920 को असहयोग आंदोलन की घोषणा करते हुए ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ भारतीय अहिंसक स्वाधीनता संग्राम को निर्णायक मोड़ प्रदान किया। 

ब्रिटिश सरकार द्वारा महात्मा गाँधी पर धारा 124-ए के तहत देशद्रोह का मामला दर्ज करने पर प्रत्युत्तर में महात्मा गाँधी ने विचक्षण भाव से अपने आप को प्रस्तुत किया था। गाँधीजी ‘महात्मा’ थे और उनका प्रत्युत्तर था ‘सत्यधर्म’। सत्य के प्रति निष्ठा, समर्पण गाँधीजी के नीति, आदर्श, दर्शन और जीवनचर्या का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा था। देशद्रोह मामले के प्रत्युत्तर ने गाँधीजी को एक विशिष्ट पहचान दिलवाई। राजनीतिक दर्शन और न्यायशास्त्र के क्षेत्र में गाँधी जी का यह प्रत्युत्तर आज भी विशिष्ट स्थान रखता है। गाँधीजी के दृढ़ संकल्प और सत्य के प्रति पूर्व प्रतिबद्धता के कारण एक ‘सत्यधर्मी’ के रूप में उभरे। वे सुकरात थे, जिसने अपने सिद्धांतों और आदर्शों की रक्षा के लिए सुकरात ने मृत्यु को भी गले लगा लिया। 

गाँधीजी के ख़िलाफ़ दायर देशद्रोह के मुक़द्दमे की बहस और सुनवाई अहमदाबाद में हुई थी। उस समय तक महात्मा गाँधी ने अपने राजनीतिक विचारों और कार्यक्रमों से पहले से ही पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित कर चुके थे। अतः गाँधीजी के देशद्रोह के मुक़द्दमे के तर्क-वितर्क और सुनवाई के प्रति असाधारण आकर्षण, जिज्ञासा और उत्साह का माहौल बन गया था। इस वजह से ब्रिटिश सरकार ने इस मामले की बहस और सुनवाई के लिए अहमदाबाद के भद्रा शहर में कोर्ट परिसर से स्थानांतरित कर सर्किट हाउस में विशेष व्यवस्था की। 

18 मार्च 1922 को गाँधीजी के ख़िलाफ़ देशद्रोह के मुक़द्दमे की बहस और सुनवाई हुई थी। दर्शकों के लिए विशेष पास भी प्रदान किए गए और उनकी संख्या 200 तक सीमित रखी गई थी। गाँधीजी आरोपी थे और अपने वकील भी। उन्होंने अपनी दलीलें ख़ुद तैयार कीं और मामले की पैरवी की। 18 मार्च, 1922 को गाँधीजी घुटने नहीं ढकने वाली धोती पहनकर कचहरी में दाख़िल हुए। चेहरे पर दिव्य भाव थे और गंभीर आत्म-विश्वास की उज्ज्वल झलक। और उनके साथ आए थे ‘यंग इंडिया’ पत्रिका के प्रकाशक शंकरलाल बैंकर और पंडित मदन मोहन मालवीय। 

गाँधीजी के कोर्ट रूम में प्रवेश के बाद उनके बग़ल में बैठी हुई थी सरोजिनी नायडू। उन्हें देखकर गाँधीजी ने मुस्कुराते हुए कहा, “आप मेरा समर्थन करने आए हैं . . . अगर अचानक मैं भावुक हो जाता हूँ और बहस में टूट जाता हूँ . . . आप मुझे ताक़त देंगे। और यह रूम तो कोर्ट रूम की तरह नहीं, बल्कि एक पारिवारिक और दोस्तों की संगम स्थली जैसा लग रहा है।” 

गाँधीजी ने अपने तर्क में सुकरात के शब्दों का प्रयोग करते हुए बहस की विषयवस्तु पर अपनी सशक्त राय रखी। गाँधी जी का तर्क था कि देश के प्रति दृढ़ संकल्प और समर्पण सर्वोपरि है, लेकिन अगर शासन व्यवस्था की प्रभारी सरकार अनैतिक और अराजक गतिविधियों को अंजाम देती है, तो आम नागरिक को इसका विरोध करने का न्यायपूर्ण और मौलिक अधिकार है। गाँधीजी ने कहा कि धारा 124-ए भारतीय दंड संहिता का ‘राजकुमार’ है, जो आम नागरिक के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को कमज़ोर करता है। गाँधीजी का सबसे मज़बूत तर्क था कि “अत्याचार के साथ असहयोग उतना ही नैतिक कर्त्तव्य है, जितना न्याय के साथ सहयोग करना।”

गाँधीजी के देशद्रोह के मामले की बहस और सुनवाई कुल 100 मिनट तक चली। ये सौ मिनट गाँधीजी के राजनीतिक विचारधारा और चिंतन का सर्वोत्कृष्ट प्रतिफलन था। सन्‌ 2022 गाँधीजी के 'सत्यधर्मी' होने का याद दिलाने वाला शताब्दी वर्ष है। सौ साल पहले सन्‌ 1922 में गाँधीजी पर लगे देशद्रोह मामले के प्रत्युत्तर ने गाँधीजी के ‘महात्मा’ बनने के उज्ज्वल प्रकरण वाले प्रसंग को उजागर किया। वर्तमान भारत में देशद्रोह के मुद्दे पर एक नई बहस छिड़ गई है। यह गाँधीजी के सिद्धांतों, आदर्शों और विचारों की शाश्वत प्रासंगिकता को रेखांकित करता है। 

18 मार्च 1922 का दिन देशद्रोह के मामले की सुनवाई के लिए गाँधीजी की उपस्थिति देश और देशवासियों के लिए आशा और विश्वास का उज्ज्वल बिंदु बना। भारतीय कोकिला सरोजिनी नायडू के शब्दों में, “गाँधीजी ने एक अभियुक्त और अपराधी के रूप में, परन्तु अपने अधरों पर दिव्य मुस्कान लिए अदालत कक्ष में प्रवेश किया . . . और सभी उपस्थित लोग स्वतःस्फूर्त भाव से उनके सम्मानार्थ खड़े हो गए।” 

क्योंकि गाँधी जी पहले से ही ‘महात्मा’ और ‘सत्यधर्मी’ थे। 

सकाल 
31 मई, 2022

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