गाँधी: महात्मा एवं सत्यधर्मी

 

1877 के कालखंड में वीर सुरेंद्र साय ने संबलपुर में अपने अपूर्व साहस और वीरता से ब्रिटिश सरकार के दाँत खट्टे कर दिए थे। हाथ में बड़ी तलवार, मन में दृढ़ संकल्प, अपनी माटी की गरिमा और हृदय में स्वाधीनता का सपना लिए युवा नायक सुरेंद्र साय ने अँग्रेज़ों के ख़िलाफ़ सशस्त्र संघर्ष शुरू कर दिया था। वीर सुरेंद्र साय को 1840 में ब्रिटिश सरकार ने बड़ी मुश्किल से पकड़कर जेल में डाल दिया था। और 17 वर्षों तक हज़ारीबाग़ जेल में रखने के बाद वीर सुरेंद्र साय को 1857 के सिपाही विद्रोह के दौरान विद्रोहियों ने हज़ारीबाग़ जेल से रिहा कर दिया। वीर सुरेंद्र साय हज़ारीबाग़ से निकलकर संबलपुर पहुँचे और फिर से अपना सशस्त्र संघर्ष शुरू कर दिया। इस वजह से वीर सुरेंद्र साय तो जन मानस के हृदय सम्राट बन चुके थे। उनके दुर्दुष हमलों के दौरान, कुछ ब्रिटिश सैनिक मारे गए, और जिनके सिर को धड़ से अलगकर धड़ को पेड़ से उल्टा लटका दिए। इस वजह से ब्रिटिश सेना में डर व्याप्त हो गया था और वे भय में जीने लगे थे। इसके अलावा, संबलपुर क्षेत्र के विभिन्न इलाक़ों में आम लोगों ने भी विद्रोह करना शुरू कर दिया था, जिससे डरकर ब्रिटिश अधिकारियों ने ब्रिटिश सरकार को पत्र लिखकर सूचित किया कि सुरेंद्र साय के नेतृत्व में पूरा संबलपुर क्षेत्र ‘विद्रोही घाटी’ में तब्दील हो गया है। यह उक्ति वीर सुरेंद्र साय की वीरता और आम लोगों पर उनके अटूट प्रभाव की सच्ची तस्वीर दर्शाती है।

वीर सुरेंद्र साय की ‘विद्रोही घाटी’ के एक और नायक थे अदम्य साहसी स्वतंत्रता सेनानी चन्द्रशेखर बेहरा। वे महात्मा गाँधी के अहिंसक संग्राम के सिपाही थे, लेकिन उनके हृदय में वीर सुरेंद्र सायं की ‘विद्रोही घाटी’ की विद्रोही भावना और प्रचंड स्वाभिमान कूट-कूटकर भरा हुआ था। उनके मन में यह भी था कि माँ, माटी की सेवा करते हुए देश को आज़ादी दिलाना।

चन्द्रशेखर बेहरा का जन्म धनकुडा के पास हुआ था। संबलपुर एक दत्तक पुत्र के रूप में आए थे और बन गए एक योद्धा। 20 मई 1873 को श्रीमती प्रतिमा देवी और श्री पद्मनाभ बेहरा के पुत्र के रूप में उनका जन्म हुआ, बाद में श्रीमती अहल्या और श्री भागीरथ बेहरा ने उन्हें गोद ले लिया। संबलपुर उनकी शिक्षा-दीक्षा का स्थान था। उनका प्रारंभिक व्यावसायिक जीवन एक आदर्शवादी शिक्षक के रूप में शुरू हुआ। लेकिन बाद में क्लर्क बनकर नागपुर सचिवालय चले गये। उनके मन में माँ, माटी, सम्मान और देश की आज़ादी के लिए आत्म-आहुति की भावना ने उन्हें ब्रिटिश सरकार की नौकरी पर लात मारकर त्याग देने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने तुरंत नागपुर सचिवालय के क्लर्क के पद से इस्तीफ़ा दे दिया और संबलपुर लौट आये। उनके लौटने के पीछे चाहे वह संबलपुर शहर की प्रेरणा हो, या महानदी की प्रभाव, या वीर सुरेंद्र साय की वीरता का आकर्षण, अदम्य साहसी चंद्रशेखर बेहरा के रक्त की हर बूँद ओत-प्रोत थी। भारत की जनता ब्रिटिश सरकार के अन्यायपूर्ण एवं अराजक शासन से त्रस्त हो रही थी। यह भाव चन्द्रशेखर बेहरा के मन में आया, भारत के लोगों की दुर्दशा देखने के बाद। 1895 में ब्रिटिश सरकार के एक फ़ैसले से संबलपुर अंचल के निवासी न केवल नाराज़ हुए, बल्कि उस निर्णय ने अँग्रेज़ सरकार के ख़िलाफ़ आंदोलन को तेज़ करने में भी अहम भूमिका निभाई। ब्रिटिश सरकार के उस निर्णय से मर्माहत हुए सुरेंद्र साय की विद्रोही घाटी के एक देशभक्त सेनानी स्वाभिमानी चन्द्रशेखर बेहरा। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के मनमाने फ़ैसले के ख़िलाफ़ बहादुरी से लड़ना शुरू कर दिया। ब्रिटिश सरकार के केंद्रीय प्रांतीय आयुक्त, जॉन वुडवर्न ने एक आदेश जारी कर संबलपुर क्षेत्र से ओड़िया भाषी अंचल को हटा कर ज़बरदस्ती हिंदी भाषी अंचल से जोड़ दिया था। ब्रिटिश सरकार का मुख्य उद्देश्य था ओड़िया भाषा को पूरी तरह से ख़त्म करना। ब्रिटिश कमीशन वुडवर्न की निर्देशनामा की संख्या 234/1895 थी। यह ओड़िया भाषा पर हमला था और ओड़िया जाति की अस्मिता के ख़िलाफ़ जानबूझकर की गई एक साज़िश थी।

उस षडयंत्र के भयानक दूरगामी परिणाम से चन्द्रशेखर बेहरा बहुत व्याकुल हो गये। उन्हें स्पष्ट रूप से अहसास हुआ कि यदि संबलपुर क्षेत्र से ओड़िया भाषा का उन्मूलन हो गया, तो संबलपुर क्षेत्र में ओड़िया जाति और भाषा हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगी। चन्द्रशेखर बेहरा को लगा कि ब्रिटिश सरकार समृद्ध ओड़िया जाति और भाषा को बिना रक्तपात किए मिटाने के लिए मसौदा तैयार कर रही है। इसलिए उन्होंने सबसे पहले वहाँ जनजागरण और ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ जनमत तैयार करने को प्राथमिकता दी। चन्द्रशेखर बेहरा के दूरदर्शी नेतृत्व के कारण उन्हें ओड़िया भाषा संरक्षण आंदोलन के प्रमुख अग्रणी व्यक्ति के रूप में गिना जाता है। देखते-देखते उनके नेतृत्व में ओड़िया भाषा संरक्षण आंदोलन न केवल भाषा की सुरक्षा के लिए, बल्कि एक जन आंदोलन बन गया था। साथ ही साथ, वे एक जाति की अपनी अस्मिता, सम्मान और स्वतंत्रता के लिए लड़ने की प्रेरणास्रोत बन गए। चन्द्रशेखर बेहरा एक ओजस्वी वक्ता के रूप में प्रसिद्ध थे। संबलपुर से लेकर बेरहामपुर के अलग-अलग जगहों पर आम लोगों के साथ अनेक वार्तालाप करने के साथ-साथ उनके ओजस्वी भाषण ने जन साधारण में नया उत्साह और साहस पैदा किया, जो धीरे-धीरे एक बड़े जन आंदोलन में बदल गया। चन्द्रशेखर बेहरा के सशक्त जोशीले तर्कपूर्ण भाषण ने ब्रिटिश सरकार के मनमाने शासन के ख़िलाफ़ मज़बूत जनमत तैयार किया। जिन्होंने उनके भाषा संरक्षण आंदोलन का पुरज़ोर समर्थन किया, उनमें धरणीधर प्रधान, श्रीपति मिश्र और सोमनाथ बाबू प्रमुख हैं।

जब संबलपुर क्षेत्र में भाषा संरक्षण आंदोलन शुरू हुआ, तो कुलवृद्धि मधुसूदन दास ने ओड़िया लोगों को एक साथ लाने के लिए ‘उत्कल सम्मेलनी’ नामक संस्था का गठन किया। 1903 में कवल में आयोजित इस ‘उत्कल सम्मेलनी’ में चन्द्रशेखर बेहरा ने संबलपुर से जाकर भाग लिया और फिर संबलपुर क्षेत्र से ओड़िया भाषा को हटाने और हिंदी के प्रयोग को बाध्य करने के ब्रिटिश सरकार के फ़ैसले का कड़े विरोध की तरफ़ जन साधारण और नेताओं का ध्यान आकृष्ट किया। इसके अलावा, चन्द्रशेखर बेहरा ने फिर से 1904 के उत्कल सम्मेलनी में भाग लिया और संबलपुर के इस भाषा आंदोलन के बारे में सभी को जानकारी दी। उनके विचारोत्तेजक भाषण में गणितीय तर्क और भाषाई निपुणता के प्रति समर्पण साफ़ झलकता था। पुरी में आयोजित ‘उत्कल सम्मेलनी’ में चन्द्रशेखर बेहरा का नेतृत्व की पराकाष्ठा देखने को मिलती है। 1919 में आयोजित उत्कल सम्मेलन के 15वें सत्र की अध्यक्षता चन्द्रशेखर बेहरा ने की, जिसमें उनके सामाजिक कौशल, प्रेरक नेतृत्व और देशभक्ति को समर्पित भाव से देखा गया। उसमें उन्होंने ओड़िया भाषा के एकीकरण और उस सम्बन्ध में संबलपुर भाषा आंदोलन की निर्णायक भूमिका के बारे में विस्तार से चर्चा की। इसके अलावा, चन्द्रशेखर बेहरा ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कृषि अकाल से निपटने के लिए दीर्घकालिक उद्योग विकास की योजना और ओड़िया भाषी क्षेत्रों के एकीकरण के बारे में अपने बुनियादी विचारों को अभिव्यक्त किया। 1919 में पुरी में उत्कल सम्मेलनी के 15वें सत्र में चन्द्रशेखर बेहरा की शानदार अध्यक्षता को स्कूल, कॉलेज के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए, जिससे नई पीढ़ी को ओड़िया जाति और ओड़िया भाषा की गरिमामयी अस्मिता पर गर्व होगा। ब्रिटिश सरकार द्वारा पारित 1885 का आदेश 1906 में वापस ले लिया गया। इसकी पृष्ठभूमि में चन्द्रशेखर बेहरा जैसे दूरदर्शी नेता थे। जिस तरह ब्रिटिश सरकार ने वीर सुरेंद्र साय को ‘विद्रोही घाटी’ के नायक के रूप में मान्यता दी, उसी तरह चन्द्रशेखर बेहरा को ‘विद्रोही घाटी’ के अहिंसक नायक के रूप में मान्यता दी गई थी। चन्द्रशेखर बेहरा के नेतृत्व ने भाषा के आधार पर अप्रैल 1906 में ओड़िशा को एक पृथक राज्य के रूप में उभरने में अद्वितीय भूमिका निभाई। चन्द्रशेखर बेहरा के जीवन की सबसे उल्लेखनीय घटनाओं में से एक यह भी थी कि गाँधीजी ने संबलपुर में उनके घर पर रात बिताई थी। अहिंसा के मूर्तिमन्त, प्रणम्य पुरुष गाँधीजी के चरणों की रज उनके घर में पड़ी। यह घर ओड़िया जाति के लिए एक अनन्य धरोहर है।

चन्द्रशेखर बेहरा का जीवन दीपक बुझने से पहले उन्होंने अपने बेटों से कहा, “मेरे पास आप लोगों देने के लिए कुछ ख़ास नहीं है . . . मैंने जो कमाया था, उसे दूसरों की भलाई के लिए लगा दिया . . .” उनके आदर्श ही उनकी सबसे बड़ी मूल्यवान सम्पत्ति थी। चन्द्रशेखर बेहरा का जीवन निष्कलंक था। वे अपनी जीवनदायी ऊर्जा से बहती नदी की तरह आगे बढ़ते जाते थे। वे नदी की तरह परोपकारी थे, गाँव की मिट्टी, मातृभाषा और मूल निवासियों की अस्मिता के लिए पूरी तरह समर्पित थे। कवि गंगाधर मेहर के शब्दों में:

“जंगल-जंगल भटकते-भटकते
कई रास्ते पार करता स्वच्छल जीवन,
अँधेरा के दुःख न गिनकर,
आलोक के सुख न लेकर
सरणी दूर जाती है नत बदन।
जन्म करते सफल
तोय दान से तीरवासी सकल।”

कवि गंगाधर मेहर का यह दर्शन ‘विद्रोही घाटी’ के अहिंसा के पुजारी नायक चन्द्रशेखर बेहरा के जीवन में परिलक्षित होता है।

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