गाँधी: महात्मा एवं सत्यधर्मी

गाँधी: महात्मा एवं सत्यधर्मी  (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

23 अंतिम जहलिया: जुहार

 

गाँव में एक प्रकार की उमंग का माहौल था। चारों ओर भीड़। पक्षी आकाश में इधर-उधर चक्कर काट रहे थे। रंग-बिरंगी तितलियाँ एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर उड़ रही थीं। कीर्तन करने वालों ने मृदंग के साथ गिनी बजाकर माहौल को गुंजायमान्‌ बना दिया। घर के सामने चौरा पर आम की डालियों के साथ नारियल और मिट्टी का घड़ा रखकर महिलाएँ साड़ी की किनार को मुँह में डालकर गाँव की सड़क की ओर देख रही थीं। उस दिन लौट रहे थे गाँव के युवक, जेल से। गाँव था बरगढ़ के पास पाणीमोरा। 1942 में, महात्मा गाँधी ने भारत छोड़ो के आह्वान से पाणीमोरा के सभी युवक स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गए। सभी के मन में एक ही सपना था, महात्मा गाँधी के नेतृत्व भारत को आज़ाद कराने का। उनके भीतर अपनी व्यक्तिगत आशाएँ नहीं थीं। सभी के हृदयों में महात्मा गाँधी छाए हुए थे। उनके सीने में साहस उमड़ रहा था और बह रही थी रगों में रक्त के साथ वीरता की नदी। पाणीमोरा के ये युवक महात्मा गाँधी के सच्चे सिपाही थे। सभी हो गए थे एक-एककर सत्याग्रही। उनका हथियार था असहयोग और अहिंसा। 

पाणीमोरा के ये सभी युवक महात्मा गाँधी के ‘ख़ाली पैदल सैनिक’ थे और सभी थे ‘जहलिया'। क्योंकि तत्कालीन सामाजिक परंपरा के अनुसार क़ैद से छूटकर आने वालों को गाँवों में ‘जहलिया” कहा जाता था। लेकिन, गाँधीजी के ये सच्चे सिपाही और ख़ाली पाँव वाले सैनिक एक अलग प्रकार के ‘क़ैदी’ थे। उनमें दयानिधि नाइक, चमरू परिडा, दिब्य सुंदर साहू प्रमुख थे और जीतेंद्र प्रधान थे ‘अंतिम जहलिया’। 22 जनवरी, 2022 को जीतेन्द्र प्रधान का 102 वर्ष की आयु में निधन हो गया। 1942 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, पाणीमोरा से जेल में डाले गए क़ैदियों में जीतेन्द्र प्रधान ‘अंतिम क़ैदी’ थे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को देखते हुए दो नये शब्द मन में आते हैं। एक शब्द ‘जहलिया’ का अर्थ है कि जो संग्रामी जेल गए और दूसरा शब्द था गिरमिटिया। हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध लेखक आचार्य गिरिराज किशोर का इस नाम से एक प्रसिद्ध उपन्यास ‘पहला गिरमिटिया’ है। और ‘पहला गिरमिटिया’ थे मोहनदास करमचंद गाँधी। 

1942 में गाँधीजी के भारत छोड़ो आंदोलन के आह्वान पर पाणी मोरा जैसे छोटे से गाँव के सभी युवक स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। महात्मा गाँधी के आदर्श विचार, चेतना और भारत को स्वतंत्र देखने की चाहत के नशे ने उन्हें इतना दूर खींच लिया था कि वे कम उम्र में ही घर-परिवार छोड़कर ‘सत्याग्रही’ बन गए। गाँधीजी के सच्चे सिपाही या सत्याग्रही बनना इतना आसान नहीं था। शारीरिक रूप से मज़बूत होने के साथ-साथ ख़तरनाक कष्टों एवं कठिनाइयों का सामना करने का साहस उन ख़ाली पैरों वाले सिपाहियों में था। 

अगस्त 1942 में आकाश में काले बादल छाए हुए थे। ठीक वैसे ही, उस समय के भारतीयों के मन में पराधीनता और निराशा के बादल छाए हुए थे। लेकिन, महात्मा गाँधी की जादुई पुकार ने उन बादलों को दूर कर दिया था। पाणीमोरा के नवयुवकों के दिलों में थोड़ा डर था, मगर आकाश के काले बालों की तरह वे निडर होकर संबलपुर के ब्रिटिश कोर्ट में पहुँच गए। उन्होंने अहिंसक तरीक़े से ब्रिटिश कोर्ट पर क़ब्ज़ा कर लिया। यह घटना पूरे भारत में अनोखा थी, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना थी। 

अगस्त 1942 की इस घटना ने महात्मा गाँधी को ब्रिटिश शासित भारत के सर्वमान्य और सर्वोच्च नेता बना दिया। उस दिन पाणीमोरा के नवयुवकों द्वारा ब्रिटिश कोर्ट पर क़ब्ज़ा करने के बाद उनमें से एक युवक अदालत का ‘न्यायाधीश’ बना। वह थे चमरू परिडा। पूरनचन्द्र प्रधान बने पेशकार और अंतिम जहलिया बने ‘अर्दली'। जीतेन्द्र ने उपस्थित जनता से कहा, “भारत एक स्वतंत्र देश है . . . और महात्मा गाँधी हमारे सर्वोच्च नेता हैं . . . तो आप सभी को याचिकाएं महात्मा गाँधी के नाम पर प्रस्तुत करनी चाहिए . . . न कि ब्रिटेन की रानी या ब्रिटिश सरकार के नाम पर . . .’ भीड़ पूरी तरह से स्तब्ध थी और उनमें नव उमंग और नई आशा का संचार हो रहा था। पाणीमोरा के ‘ख़ाली पाँव के सैनिकों’ के साथ उपस्थित भीड़ ने ‘भारत माता की जय', ‘महात्मा गाँधी की जय’ नारे लगाए। ब्रिटिश सरकार ने इस घटना को गंभीरता से लिया। उनके लिए यह बड़ी अपमानजनक घटना थी और साथ ही साथ उनके अस्तित्व को चुनौती देने वाली दुस्साहसिक घटना। कुछ नाबालिगों को छोड़कर उन्होंने सभी नवयुवकों को जेल भेज दिया। जेल से वापस आना उन युवा स्वतंत्रता सेनानियों के लिए किसी तीर्थयात्रा से कम नहीं था। 

महात्मा गाँधी की महाप्रयाण के बाद, पाणीमोरा के इन सेनानियों ने स्वतंत्र भारत में महात्मा गाँधी के आदर्शों और विचारों को व्यावहारिक रूप देकर समाज निर्माण का काम शुरू किया था। नेतृत्व कर रहे थे योद्धा जीतेंद्र प्रधान। जीतेंद्र प्रधान अपने जीवन की अंतिम घड़ी तक हर सुबह रामधुन के साथ गाँव में सामाजिक व्यवस्था को मज़बूत करने लगे। शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ नैतिकता भी उन्होंने ज़ोर दिया। इसके अलावा, उन्होंने नशा निवारण पर ज़ोर दिया। नारी सम्मान और नारी सशक्तिकरण की प्रथम पंक्ति के समर्थक थे जीतेन्द्र प्रधान और उनके साथी ‘ख़ाली पैरों वाले सिपाही'। जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती गई, मगर इन सेनानियों के जीवन में गाँधीवादी विचारधारा के प्रति समर्पण कम नहीं हुआ। 

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का अध्ययन करें तो पता चलता है कि सेनानियों के तीन चरण थे। पहला चरण सशस्त्र सेनानियों का था, दूसरे चरण में अहिंसक और गाँधीवादी सेनानियों का और तीसरे चरण में वे सेनानी थे जो स्वतंत्र भारत के गाँधीवादी आंदोलन को साकार करने के लिए समर्पित थे। पाणीमोरा के ‘ख़ाली पैरों वाले सैनिक’ अहिंसक और गाँधीवादी थे और ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ लड़ने के साथ-साथ स्वतंत्र भारत को सही रास्ते पर ले जाने के लिए भरसक प्रयास किया। 

पाणीमोरा के जीतेंद्र प्रधान उस काल के मूक सेनानी थे। वे गाँधीजी के स्वतंत्रता संग्राम और स्वतंत्र भारत के निर्माण यज्ञ में समिधा की पवित्र काष्ठ थे। जो जल रही थी, इस मिट्टी के लिए, इस देश के लिए। वह ‘जहलिया’ और ‘ख़ाली पैरों के सिपाही’ जीतेंद्र प्रधान भारतीय समाज की प्रेरणा की उज्ज्वल वर्तिका थे। 

‘अंतिम जहलिया’ जीतेन्द्र प्रधान को जुहार। 

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