गाँधी: महात्मा एवं सत्यधर्मी

 

सन्‌ 1942 का अगस्त महीना। 

आसमान श्रावण के घने काले बादलों से भरा हुआ था। ठीक उसी तरह तत्कालीन संबलपुर ज़िले के एक छोटे से गाँव पाणिमोरा के सभी युवाओं के मन पराधीनता के क्षोभ से भरा हुआ था। और आँखों में आज़ाद भारत का सपना, हृदय में गाँधीजी के सिद्धांत, आदर्श और सीने में भरा हुआ था अदम्य साहस। गाँधीजी के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन का आह्वान सुनकर ये युवक पाणिमोरा से दौड़कर गए। ब्रिटिश सरकार की अदालतओं को अहिंसक और शांतिपूर्वक ढंग से अपने ‘क़ब्ज़े’ में कर लिया था। उन्हीं सत्याग्रही युवाओं में से चमरु परिडा ने ‘न्यायाधीश’ बनकर अदालत का काम शुरू किया। जितेंद्र प्रधान ‘अर्दली’ बन गया और पूर्णचंद्र प्रधान ‘पेस्कार'। जज साहब ने आदेश दिया, “आप स्वतंत्र भारत के नागरिक हैं। कृपया सभी याचिकाएँ ब्रिटिश सरकार को नहीं, बल्कि महात्मा गाँधी को लिखकर जमा करें।” 1942 की यह घटना, भारतीय स्वाधीनता संग्राम की उज्ज्वल, मगर कम चर्चित घटना थी। 

ब्रिटिश अदालत पर क़ब्ज़ा कर गाँधीजी के नाम पर एक याचिका दायर करने का निर्देश देने वाले थे, गाँधीजी के पैदल सैनिक, अहिंसा के सिद्धांत के प्रति अडिग साहस और समर्पण की महागाथा प्रस्तुतकर्ता। एक और ‘पैदल सैनिक’ थी अग्नि कन्या पार्वती गिरि। सम्लेईपदर में जन्मी पार्वतीगिरि ने महात्मा गाँधी के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ से प्रेरित होकर बरगढ़ के एसडीओ कार्यालय पर क़ब्ज़ा कर लिया था और उन्हें बाँधकर लाने का आदेश दिया। गाँधीजी की अहिंसा की नीति का पालन करने वाली पार्वती गिरि का दुस्साहसिक कार्य अदम्य साहस का ज्वलंत प्रकरण था। 

संबलपुर मिट्टी के उद्यमी युवक सुरेंद्र साए ने भारत को पराधीनता की बेड़ियों से आज़ाद कराने का सपना देखा था। 1857 के सिपाही विद्रोह से 30 साल पहले अर्थात् 1827 में युवा सुरेंद्र साई ने ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ एक सशस्त्र वीरतापूर्ण संघर्ष शुरू किया। परवर्ती समय में वह वीर सुरेंद्र साई के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वीर सुरेंद्र साई का सशस्त्र संघर्ष भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का शुरूआती अन्यतम संघर्ष था। सन्‌ 1840 में वीर सुरेंद्र साए को क़ैद कर हजारीबाग जेल में डाल दिया था, परन्तु सन्‌ 1857 में नाटकीय रूप से जेल से बाहर निकलकर फिर से संबलपुर क्षेत्र में सशस्त्र संघर्ष शुरू कर दिया। उनके नेतृत्व को गोंड, बिंझाल और कई गाँवों के ज़मींदारों और गौंतियों का समर्थन प्राप्त था। 

घेंस के ज़मींदार माधो सिंह ने वीर सुरेंद्र साईं के सशस्त्र संघर्ष को अटूट समर्थन और सहयोग दिया। माधो सिंह और उनके परिवार हाथी सिंह, अरी सिंह, कुंजल सिंह, बैरी सिंह का वीरतापूर्ण संघर्ष भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की अनूठी कहानी है। घेंस के पास सिंघौदा घाटी को ब्रिटिश सेना के पहुँच से बाहर कर दिया था घेंस के वीर जवानों ने। वीर सुरेंद्र साईं के गुरिल्ला युद्ध में इन वीरों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। माधो सिंह का पूरा परिवार ब्रिटिश आक्रोश का शिकार हुआ था। हाथी सिंह को उम्र क़ैद की सज़ा सुनाकर अंडमान भेज दिया था ब्रिटिश सरकार ने। था। हाथी सिंह ओड़िशा से अंडमान भेजे जाने वाले योद्धाओं में से अग्र-गण्य थे। 
बरगढ़ के पास बारपहाड़ के घने जंगलों में स्थित डेब्रीगढ़ सशस्त्र संग्राम का अन्यतम मूकसाक्षी है। लखनपुर के ज़मींदार बलभद्र सिंहदेव के पुत्र कमल सिंहदेव और उनके सहयोगियों के साहसी सशस्त्र संघर्ष ने ब्रिटिश सरकार को झकझोर कर रख दिया। 

वर्तमान बरगढ़ ज़िले के पाणिमोरा, समलेइपदर, डेब्रीगढ़, घेंस और ओड़िशा के सीमांत पर स्थित सिंहघोड़ाघाटी स्वतंत्रता के लिए संग्राम स्थलियाँ थी। ये सभी पीठ ओड़िशा के स्वतंत्रता सेनानियों की रगों-रगों में शौर्य को प्रतिबिंबित करता है। 

9 अगस्त होता है क्रांति दिवस। 9 अगस्त, 2020 को इन संग्राम स्थलियों को जोड़ने वाली समन्वय स्थली सोहेला में 11 मूर्तियों का अनावरण किया गया है। सन्‌ 1942 में स्वतंत्रता आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाने वाले सेनानी माननीय जितेंद्र प्रधान के कर कमलों द्वारा इन 11 मूर्तियों का अनावरण किया गया था, वीर स्वतंत्रता सेनानियों के श्रद्धांजलि स्वरूप। 

11 मूर्तियाँ हैं प्रतिभाशाली वास्तुकार देवी प्रसाद राय चौधरी द्वारा निर्मित और नई दिल्ली में स्थापित। जिसमें महात्मा गाँधी की 1930 की दांडी यात्रा को जीवंत रूप दर्शाया गया है। 23 मार्च 1930 से 6 अप्रैल 1930 के बीच आयोजित ऐतिहासिक दांडी यात्रा गाँधी जी की एक सोची समझी रणनीति थी, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में निर्णायक साबित हुई। 1930 की दांडी यात्रा ने नमक अधिनियम 1882 के ख़िलाफ़ भारतीय जनता को लामबंद किया। गाँधी जी ने गुजरात के समुद्र तट पर स्थित दांडी पर एक मुट्ठी नमक फेंकते हुए कहा, ‘इससे मैंने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी है . . . ‘। ओड़िशा की धरती और ओड़िया जाति के लिए यह बहुत गर्व की बात है कि 1930 में गाँधीजी के इस ऐतिहासिक मार्च में भाग लेने का विरल सम्मान ओड़िया युवा मोतीवास दास को मिला था। 

अनूठी वास्तुकला ‘11मूर्तियाँ’ है दांडी यात्रा का एक कलात्मक संस्करण। इस स्थापत्य में दिखाए गए हैं गाँधीजी और उनके दस अनुयायी। ये दस ‘समावेशी’ भारतवर्ष के प्रतीक हैं। वे समाज के प्रत्येक वर्ग और धर्म का प्रतिनिधित्व करते हैं और भारत की युगीन समन्वित सोच को रेखांकित करती है, देवी प्रसाद राय चौधरी का यह कालातीत कृति। एक अल्प क्लांत व्यक्ति को दूसरा व्यक्ति द्वारा गाँधीजी के दिखाए गए मार्ग पर शांतिपूर्वक धैर्य और साहस के साथ चलने के लिए प्रेरित करना बहुत ज़रूरी है। 

गाँधी जी के दिखाए रास्ते पर चलते रहने के लिए ‘सत्याग्रह’ का पालन नितांत आवश्यक है। ‘सत्याग्रह’ का अर्थ है ‘सत्य’ के लिए ‘प्रतिबद्धता'। गाँधी के चिंतन के लक्ष्य और लक्ष्य के साधन भी नैतिक होने चाहिए। ‘सत्याग्रह’ था गाँधीजी का अन्यतम अस्त्र। प्रेम, अहिंसा पर आधारित सत्य और सत्य के लिए प्रतिबद्धता से ओत-प्रोत थे गाँधी जी के अनुयायी। 

मार्च 1939 में गाँधीजी ने हरिजन पत्रिका में लिखा, “सत्याग्रही का उद्देश्य ग़लत काम करने वाले को बलपूर्वक नहीं, बल्कि शांतिपूर्ण तरीक़ों से परिवर्तित करना होता है।” भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए गाँधीजी ने ‘सत्याग्रह’ के माध्यम से राजनीतिक रूपरेखा बनाकर और नैतिकता को महत्त्व देकर एक स्वस्थ समाज के गठन की शुरूआत की। गतवर्ष पूरी दुनिया ने महामानवों ने महात्मा गाँधी की 150वीं जयंती बड़े सम्मान और श्रद्धा के साथ मनाई थी। 

गाँधी के स्मरण तथा उनके विचारों की चर्चा के दौरान गाँधी जी की अन्यतम कर्मभूमि दक्षिण अफ़्रीका के तीन विचारकों के मत बहुत महत्त्वपूर्ण है। वे तीन विचारकगण है दक्षिण अफ़्रीका के मुक्ति नायक नेल्सन मंडेला; रंगभेद नीति के ख़िलाफ़ आंदोलन करने के अन्यतम पुरोधा फातिमा मीर और गाँधीवाद के प्रमुख प्रवक्ता हासिम सिद्धत। नेल्सन मंडेला के अनुसार, “आपने हमें मोहन दास करमचंद गाँधी दिया था, हमने उन्हें महात्मा गाँधी बनाकर लौटा दिया।” 

गाँधी के जीवन और साहित्य के दक्षिण अफ़्रीका के प्रवक्ता हासिम सिद्धत की राय में, “मैं गर्व से कह सकता हूँ कि पृथ्वी पर सबसे मूल्यवान हीरे दक्षिण अफ़्रीका की खानों में पाए जाते हैं और खनन किए जाते हैं, और उन हीरों में सबसे मूल्यवान हीरा है ‘महात्मा गाँधी’ है।” 

दक्षिण अफ़्रीका की प्रमुख गाँधीवादी फातिमा मीरा अपनी पुस्तक ‘एपरेंटशिप ऑफ़ ए महात्मा: ए बायोग्राफी ऑफ़ एम.के. गाँधी (1869-1914) ‘ में लिखती है, “18 जुलाई, 1924 को 21 साल के लंबे प्रवास के बाद मोहन दास करमचंद गाँधी ने दक्षिण अफ़्रीका छोड़ गया। वे 23 वर्षीय इंग्लैंड से पढ़े-लिखे युवक के रूप में दक्षिण अफ़्रीका आए थे। यहाँ उन्होंने एक क्रांतिकारी परिवर्तन किया। जब उन्होंने दक्षिण अफ़्रीका छोड़ा, तो उनमें ‘संत’ होने के सभी लक्षण थे। यीशु मसीह के रूप में; मुहम्मद उद्धारकर्ता के रूप में, गौतम बुद्ध के रूप में परिवर्तित हो गए थे, उसी तरह अँधेरे से डरने वाला शर्मीला युवक महात्मा के रूप में परिवर्तित हो गए थे और महात्मा बनने की प्रक्रिया के सारे मूल्यों और कष्टों को अपना लिया था। गाँधी का बहुमूल्य योगदान था सत्याग्रह। उनके अनुयायी ‘पैदल सैनिक’ थे और सभी निष्ठावान ‘सत्याग्रही’। 

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सशस्त्र बलों के महान नायकों और परवर्ती समय में गाँधीजी के पैदल सैनिकों की रगों में वीरता, अदम्य साहस और उनके हृदयों में स्वतंत्र और समृद्ध भारत के निर्माण का दुर्वार सपना था। 9 अगस्त, 2020 को संग्रामी पीठस्थलियों की समन्वय स्थली सोहेला में स्थापित अमूल्य भोई की कलाकृति ‘11 मूर्तियों’ का अनावरण का उद्देश्य है स्वतंत्रता संग्राम के महान नायकों की चेतना और स्मृति को पुनर्जीवित करने के सबसे शक्तिशाली प्रयास। 

अनुपम भारत
2 अगस्त 2020

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