गाँधी: महात्मा एवं सत्यधर्मी

 

सन्‌ 1923 के जनवरी महीने से पूर्व भारत के आम जनता में ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ जनता में न तो आक्रोश तीव्र था और न ही उसके लिए कोई निर्दिष्ट रूपरेखा बनी हुई थी। सामान्य जन जीवन में एक प्रकार से सुसुप्ति छाई हुई थी। न कोई उत्तेजना, और न ही कोई उत्साह था। क्योंकि सन्‌ 1922 में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व कर रहे गाँधीजी को राजद्रोह का दोषी ठहराया गया था और उन्हें जेल भेज दिया गया था। यद्यपि आम लोगों ने इस घटना पर अपना ग़ुस्सा दबा दिया था, मगर इस घटना क्रम से उत्पन्न उनका दमित ग़ुस्सा विभिन्न रूपों में प्रकट होने लगा। गाँधीजी द्वारा लिखे गए उनके तीनों लेखों की, मौखिक और लिखित, दोनों तरीक़ों से, चर्चा धीरे-धीरे पूरे देश में फैल गई। गाँधीजी, भले ही जेल में थे, फिर भी वे भारतीय अहिंसक मुक्ति संग्राम का उज्ज्वल केंद्रबिंदु बन गये थे। 

उस समय ओड़िशा में भी जन-जीवन पूरी तरह सोया हुआ था। हालाँकि, ब्रिटिश सरकार की अराजकता के ख़िलाफ़ जनता के आंदोलनों की छोटी-छोटी अग्नि-शिखाएँ धीरे-धीरे विराट रूप धारण करने लगी थी। उस समय कुछ सारस्वत रचनाओं ने आम जनता में एक नई चेतना का संचार किया था, उनमें से एक थी स्वभाव कवि गंगाधर मेहर द्वारा रचित “भारती भावना”। कवि गंगाधर मेहर ने 1922 के अंत में “भारती भावना” लिखकर नई सड़क, कटक में प्रकाशनार्थ भेजा था। वहाँ से ब्रजसुंदर दास के संपादन ओड़िया पत्रिका “मुकुर” प्रकाशित हो रही थी। कवि गंगाधर मेहर की “भारती भावना” पढ़कर “मुकुर” के संपादक एक पल के लिए मुग्ध हो गए थे। उन्होंने “मुकुर” के परवर्ती अंक में उसे छापने का निर्णय लिया। कवि ने सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त होने के बाद बरपाली में अपने रहने के दौरान “भारती भावना ” की रचना की थी। 

स्वभाव कवि गंगाधर मेहर ज्ञान पिपासु और बहुपठित थे। देश में चल रही घटनाओं का सूक्ष्म निरीक्षण करने के साथ-साथ वे उनमें अपना यथायोग्य योगदान देने के लिए कृत-संकल्प थे। 

जनवरी, 1923 में प्रकाशित “मुकुर” 17वें वर्ष का 10वां अंक था। माघ महीने के उस अंक में स्वभाव कवि गंगाधर मेहर की अंतिम रचना “भारत भावना ” प्रकाशित हुई थी, 17 पदों की कविता के रूप में, जो उस पत्रिका के 49, 50 और 51 पृष्ठों पर छपी थीं। 

कवि गंगाधर मेहर की “भारती भावना” में अदम्य देशभक्ति, अराजकता और अन्याय के प्रतीक ब्रिटिश सरकार के विरोध में आवाज़ बुलंद करने के साथ-साथ देशवासियों के लिए प्रेरणा-स्रोत होने का अद्भुत समन्वय मिलता है। इस कृति में कवि की श्रेष्ठ और व्यापक शब्दावली, शब्दों की असाधारण संयोजन की कुशलता और निपुणता झलकती है। देश-प्रेम के उच्च आदर्श को ध्यान में रखते हुए कवि की यह शानदार रचना अपने आप में सशक्त हस्ताक्षर है। 

इस कृति की सबसे बड़ी ख़ासियत है, शब्दों का गुम्फन और उनके माध्यम से भावों का प्रस्तुतीकरण। पहली बार पढ़ने से लगता है कि इसमें “महाभारत के श्रीकृष्ण” का स्वरूप प्रकट हो रहा हो। और, दूसरी बार पढ़ने से लगता है कि गाँधीजी के नेतृत्व में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के आगे बढ़ते क़दम, जो वस्तुतः पाठक हृदय को देशभक्ति की भावनाओं से भर देता है। 

इस काव्य-संग्रह के 17 पदों में पद संख्या 7 सबसे ज़्यादा उत्कृष्ट है। इस पद में कवि गंगाधर मेहर ने शब्दों को अत्यंत ही शानदार ढंग से पिरोया है, जिसे स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। कवि मेहेर के शब्दों में:

“गाँधी-निज कांड के उस दिन से स्नेह-ग्रंथि हो गई मौन, 
तब पता चला कि वे उससे पहले थे कौन, 
पांचाल में हुआ परिचय जिससे, पैदा हुई सारे झगड़ों की जड़ वहीं से।”(पद संख्या-7) 

यहाँ “गाँधी निज” शब्द का अर्थ है अक्रूर जो मथुरा से गोपपुर तक रथ लेकर गया था और श्रीकृष्ण को मथुरा कंस की अराजकता के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया था। दूसरी ओर, यह पद गाँधीजी के नेतृत्व को भी शानदार ढंग से व्यक्त करती है। “भारती-भावना” कविता पढ़ते समय एक और पद ध्यान आकर्षित करता है। विचारों की अभिव्यक्ति और शब्दों का गुम्फन कवि गंगाधर मेहर की अनूठी अभिव्यक्ति है, इस रचना में:

“गाँधीजी निज कष्टों को गिने बिना चले गए बंदीपुर
अनसुना क्रंदन सुनाई दे रहा था अतिदूर
यश कीर्ति का पताका फहराया इस धरा-स्थल
आग बुझाकर चले उग्रसेन कौशल” (8वाँ पद) 

इस पद में ‘नीले वृक्ष’ शब्द का अर्थ उस अक्रूर से है, जिसने यमुना में स्नान करते समय कृष्ण को मना कर दिया था। एक मत में अक्रूर द्वारा श्रीकृष्ण को मथुरा ले जाने की तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों को वर्णन है और दूसरे मत के अनुसार में 1922 से पूर्व गाँधीजी के देश के स्वाधीनता संग्राम में अवतीर्ण होकर सर्व मान्य नेतृत्व सँभालने के दौरान की परिस्थितियों का वर्णन हैं। 

इस कृति में एक जगह और ऐसा ही भावप्रवण प्रसंग आता है, जिसमें भारत के स्वतंत्रता संग्राम की जीत का ज़िक्र किया गया है, उस समय पूरे भारत में ब्रिटिश शासन की अराजकता और अन्याय के ख़िलाफ़ भी आवाज़़ें उठ रही थीं। कविता का एक अंश है “दुःशासन मूल कारण” जिसका अर्थ एक तरफ़ यह ‘महाभारत’ के “दुःशासन” के चरित्र को उजागर करता है, वहीं दूसरी तरफ़ यह अँग्रेज़ों के द्वारा चलाए जा रहे “दु” (बुरे) शासन को दर्शाता है। ऐसा ही एक अन्य अंश है, “जहाँ कृष्ण है, वहाँ जीत अवश्य होगी, ऐसा लोगों का है विश्वास।” इसमें एक प्रसिद्ध लोक मान्यता का संकेत मिलता है कि जहाँ कृष्ण (अर्थात् सत्य, न्याय, धर्म का प्रतीक) हैं वहाँ विजय निश्चित है। कवि गंगाधर मेहर ने मार्मिक ढंग से प्रकाश डाला है कि भारतीय मुक्ति संग्राम की जीत अवश्य होगी, क्योंकि यह संघर्ष सत्य, न्याय और धार्मिक सुशासन पर आधारित है। 
1947 आने से पहले ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम ने अपना अंतिम रूप ले लिया था और, महत्त्वपूर्ण बात यह है कि 1922 में, कवि गंगाधर मेहर ने पहले ही इसकी भविष्यवाणी कर दी थी। सन्‌ 1923 में प्रकाशित स्वभाव कवि गंगाधर मेहर द्वारा “भारती भावना ” भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर एक सारस्वत आलेख है। 

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