मेघना शंकर के घर आज बहुत चहल-पहल थी। आज ही आईआईटी-जेईई के नतीजे आए थे। मेघना शंकर ने पूरे भारत में शीर्ष स्थान प्राप्त किया था। बधाई देने वालों का ताँता लगा था। ईमेल, व्हाट्सएप, फ़ेसबुक, टि्वटर इत्यादि सोशल साइटों से भी बधाइयाँ और शुभकामनाओं की बौछार लगी थी। टीवी पर सभी न्यूज़ चैनल दिखा रहे थे: “बिहार की बेटी ने किया कमाल”, “बेटियाँ किसी से कम नहीं”, “अंबेडकर की संतान ने बढ़ाया मान”, “बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ।”  मेघना शंकर आज बहुत ख़ुश थी। आख़िर आज उसे ख़ुद को साबित करने का मौक़ा जो मिला था। बचपन से ही लड़की और दलित होने की जो हीन भावना उसके अंदर भरने की कोशिश की थी समाज ने, उसका करारा जवाब दिया था मेघना ने। स्कूल, कॉलेज, बस स्टॉप, कैंटीन, जहाँ कहीं भी जैसे ही बातों-बातों में सामने वाले को पता चलता कि मेघना दलित है, तुरंत ही व्यंग्य, तिरस्कार… आगे पढ़ें
अपने देश की सेवा में अपना सब कुछ न्योछावर करने वाले जाँबाज़ जगरूप सहगल को बचपन से ही जासूसी कहानियाँ पढ़ने का बड़ा शौक़ था। बड़ा हुआ तो उसे भारतीय सेना में जाने का अवसर मिल गया। जगरूप अब किसी बड़े ओहदे पर पहुँच चुका था और उसकी शादी बहुत सौम्य लड़की से हो चुकी थी। एक सुन्दर पुत्री फिर एक सुन्दर पुत्र का जन्म हुआ।  जगरूप को जासूस के रूप में कार्य करने का भी अवसर मिल गया जिसे उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया। उसे पड़ोसी देश में भेजा गया जहाँ उसने कुछ वर्षों तक काम किया परन्तु अचानक उसकी कोई ख़बर आनी बन्द हो गयी। शायद वो पकड़ा गया और उसे लापता घोषित कर दिया गया।  चन्द्रमुखी, एक जवाँ पत्नी और ऊपर से दो छोटे बच्चे फिर कोई आमदनी का साधन नहीं। मजबूर हो चन्द्रमुखी ने बैठक किराए पे चढ़ा दी जिससे कुछ सहायता मिली। बच्चे… आगे पढ़ें
एक लम्बे अरसे के बाद विदेश से रघुबीर अपने शहर वापिस लौटा। बहुत उत्सुक था अपनी भूली-बिसरी यादों को फिर से जीने के लिए। जब वो अपने शहर टैक्सी द्वारा अपने घर पहुँचा तो रात बहुत हो चुकी थी। माता–पिता का स्वर्गवास हुए तो एक अरसा हो चुका था और अब घर में बड़ी बहन रहती थी। दरवाज़ा खटखटाया, बड़ी बहन ने दरवाज़ा खोला और रघुबीर को घर के अन्दर ले गई । रघुबीर को उसके पुराने कमरे में ठहराया गया जहाँ उसने अपना सारा सामान टिका दिया। लम्बा हवाई सफ़र फिर रेलगाड़ी से रेलवे स्टेशन और फिर टैक्सी से घर तक का सफ़र, रघुबीर बहुत थक चुका था। हाथ-मुँह धो के थोड़ी देर आराम करने के लिए रघुबीर बिस्तर पे लेट गया। आँखें आधी सी बन्द हुईं ही थी, उसे आभास हुआ जैसे किसी ने पुकारा हो, धीरे से सर के बालों को सहलाते पूछा, “सफ़र कैसा… आगे पढ़ें
“ड्यूमारिए लाईट देना,” स्वर में अपरिपक्वता का आभास होते ही मैंने सर उठाया तो सामने मेकअप की पर्तों की असफलता के पीछे से झाँकता बचपन दिखाई दिया। कोई पंद्रह-सोलह बरस की लड़की अपनी उम्र से बड़ी लगने का भरपूर प्रयास कर रही थी।  “तुम्हारे पास कोई प्रूफ़ ऑफ़ एज है?”  “क्या मतलब?” उसकी अनभिज्ञता भी उसके प्रयास की तरह ही झूठी थी। मैं जानता था कि वह यही प्रश्न न जाने कितनी बार सुन चुकी होगी।  “मतलब क्या? ड्राईवर लाईसेंस, बर्थ सर्टीफिकेट . . . कुछ भी . . . तुम जानती तो होगी?”  मैंने उसके चेहरे को टटोला।  उसने कन्धे से लटके बड़े पर्स में ढूँढ़ने का बहाना किया और फिर से मेरे चेहरे पर नज़रें टिका कर भोलेपन से बोली,” मिल नहीं रहा, मेरा विश्वास करो . . . कोई समस्या नहीं होगी, सब ठीक है।” उसने मुझे झूठा आश्वासन दिया।  “कुछ भी ठीक नहीं, जानती… आगे पढ़ें
सात दिन बहुत ज़्यादा थे . . . शायद नहीं, बहुत कम। लिखने के लिए क्या था उसके पास? अभी कल ही सम्पादक का फ़ोन आया था। पिछले सप्ताह उसके उपन्यास की अगली कड़ी नहीं छप पाई थी। एक साप्ताहिक पत्रिका से उसने मेहनताना तो ले लिया था, मगर समय से यह कड़ी लिखने मेंं उसे देर हो गयी। सम्पादक ने एक छोटे से नोट मेंं पत्रिका मेंं पाठकों से क्षमा माँग ली थी। पर अब ऐसा न हो, यह भी चेता दिया था उसे कल फ़ोन पर।  पतझड़ के रंग-बिरंगे झरते पत्तों को देख कर उसे हमेशा ही अपने जीवन की कहानी याद आती है। चाहे कितनी भी कोशिश कर ले, कहीं न कहीं किसी न किसी तरह उसके उपन्यासों मेंं उसे अपनी कहानी छिपी मिलती है। पाठक क्यों न पसंद करें, पुरुष वर्ग ख़ासकर? उसकी कहानी में एक माँ, एक आदर्श पत्नी, एक प्रेमिका, एक सुन्दर… आगे पढ़ें
’बिना किसी सरनामें यानी भूमिका के मैं अपनी बात आप जैसे समझदारों के सामने रखना चाहती हूँ। आजकल मैं एक कहानी में हूँ। मैं नहीं जानती कि मैं कहानी लिख रही हूँ या यह कहानी मुझे पढ़ रही है। मेरे ज़ेहन पर यह एक साथ अनेक पायदानों पर चल रही है। यह ज़रूरी नहीं कि पहले ऐसा नहीं हुआ था पर इस समय यह अहसास एक ज़िंदा इंसान की तरह मेरे साथ चल रहा है कि मैं एक साथ अनेक जगहों पर हूँ। टूटी हुई नहीं, पूरी-पूरी!! एक ही इंसान पूरा-पूरा हर जगह कैसे हो सकता है? आप सोच सकते हैं, पर इस बात का जबाब मेरे पास नहीं है। कुछ लोग मिल जाएँगे कहने वाले कि यह नामुमकिन है, वो जो चाहें जो कहें पर मेरे पास वाक़ई इस बात की समझ नहीं है कि मैं एक साथ कई जगहों पर कैसे हूँ।  मैं, जैसे अपना बीते… आगे पढ़ें
विमला आठ भाई बहनों में सबसे छोटी थी। माता पिता के पास धन का अभाव होने के कारण चाहते हुए भी विमला को बारह कक्षा पूरी होने के बाद पढ़ाई करने का कोई साधन नहीं मिल पाया। वह घर के काम-काज में ही लग गयी। चाहते हुए भी विमला को वह सब नहीं मिल सका जो हर युवती अपनी अट्ठारह वर्ष की उम्र में पहनना ओढ़ना चाहती है। एक डेढ़ वर्ष निकल गया। विमला के पिता, स्वरूप को अपनी बेटी की शादी की चिंता होने लगी। पैसा पास नहीं था इसलिए अच्छे घर वालों की माँगें पूरी नहीं कर सकते थे। माँ, पारो को एक दिन कोई पड़ोसिन मिली और उसने पारो से उसकी बेटी विमला के लिए एक रिश्ता बताया। लड़का अच्छे घर का था, अमरीका में था। उम्र ज़्यादा थी। वह चालीस वर्ष का था। पारो ने अपने पति से बात की। पिता ने भी सोचा,… आगे पढ़ें
वह औरत भी उसी अपार्टमेंट का हिस्सा है। कभी-कभार दोपहर के बाद यहाँ गोल घेरे के चक्कर लगाती, बेंच पर बैठ फोटो खींचती मुस्कुराती रहती है। चुस्त-दुरुस्त पेंट, जैकेट और स्नोबूट पहने पैरों को सँभलकर आहिस्ता-आहिस्ता रखती सैर करती है। यहाँ की नहीं लगती वह।  कॉफ़ी हाउस में ऊँची टेबल-कुर्सी पर बैठी पारदर्शी शीशे में से आती-जाती कारों को देखती कॉफ़ी के घूँट भरती है। बाहर कार में से उतर एक गोरी लड़की अपनी गोद में बच्चे को उठाये अंदर प्रवेश करती है। क़रीब चार साल का बच्चा उछल-उछलकर चीज़ों की माँग करता है। कॉफ़ी सर्व करने वाली लड़की जिसके ब्लोंड सुनहरी बाल हैं, बच्चे की ओर हो जाती है।  एक लंबा गोरा बूढ़ा, लंबी सी मोटी जैकेट पहने अंदर प्रवेश करता है। घुसते ही जैकेट को उतार कुर्सी पर रखकर ऑर्डर देता है, “वन मीडियम एक्सप्रैसो कॉफ़ी एंड गिव स्पेस फ़ॉर क्रीम।”  “विल यू लाइक अमेरिकन कॉफ़ी?”… आगे पढ़ें
वह रोज़ सुबह काम पर जाती थी। कभी आठ बजे तो कभी आठ बजकर पाँच मिनट पर। शाम चार से सवा चार बजे के बीच बिल्डिंग में उसकी वापसी हो ही जाती थी। समय की इतनी पाबंद कि चाहो तो उसके आने-जाने से अपनी घड़ी का समय मिला लो। सुबह-सवेरे टिक-टिक करता घड़ी का काँटा इधर आठ के आसपास पहुँचा नहीं कि उधर घड़ी के काँटों से क़दम मिलाती उसकी हड़बड़ाती चाल पट-पट करती दरवाज़े से बाहर। पिछले दस सालों से यही है उसकी दिनचर्या। उसकी ढलती उम्र को देखकर तो लगता है जैसे रिटायर हुए दस-पंद्रह साल तो हो ही गए होंगे, लेकिन नहीं वह काम कर रही है अभी, बेहद चुस्ती से, पाबंदी से कर रही है। जिस तरह से वह दरवाज़े से बाहर निकलती है लगता है एक पल की भी देर हो गयी तो उसे उसके काम वालों द्वारा फाँसी पर लटका दिया जाएगा। … आगे पढ़ें
सब लोग मुझे ‘स्पॉइल्ड चाइल्ड’ कहते हैं पर मेरा दावा है कि मैं नहीं, मेरी नानी ‘स्पॉइल्ड नानी’ हैं, ‘प्राब्लम नानी’ हैं। कोई भी मेरी आपबीती सुने तो उसे पता चले कि सचमुच मेरी हालत कितनी ख़राब है। सबको तरस आएगा, मुझ पर भी और मेरी परेशानियों पर भी। कोई एक बात हो तो बताऊँ, सुबह से शाम तक ऐसी हज़ारों बातें हैं जहाँ पर नानी मेरे लिये परेशानियाँ खड़ी करती रहती हैं। नानी के इमोशनल अत्याचार की मैं आदी हूँ वह मुझ पर काम नहीं करता पर उनके जो भाषण के अत्याचार लगातार कानों में कीले ठोकते हैं वे मेरी उम्र लगातार कम करके मुझे बच्ची बना देते हैं।  कभी-कभी मुझे लगता है कि किसी ने उनके अंदर एक कैसेट डाल दी है जो मुझे देखते ही बजने लगती है। रोज़ एक जैसी हिदायतें, एक जैसी बातें, एक जैसे सवाल। सवालों के जवाब नहीं मिलने पर रिकॉर्डेड… आगे पढ़ें
अभी भी हाथ से कुछ नहीं फिसला! ज्यों का त्यों सब धरा है तेरी हथेली पे।  "ज़िद से नहीं बिटिया विवेक से काम ले, ज़िद से तो पछतावे ही हाथ आते हैं। समझ क्यों नहीं रही ऐसा निर्णय लेने का मतलब है जान-बूझकर ख़ुद को अँधेरों में ढकेलना। अपना नहीं तो इसका ही सोच ले। होते-सोते क्यों इसे पिता के प्यार से वंचित करना चाहती है। कहीं तेरी अक़्ल कोमा में तो नहीं चली गई? बोलती क्यों नहीं? ना बोलने की क़सम खाई है क्या? मेरा फ़र्ज़ था समझाना, समझ में आई हो तो ठीक वरना जो जी में आए कर!"  ना हूँ, ना हाँ, बस बुत बनी बैठी मैं सुनती रही थी माँ की बातें। कितना रोई थी माँ उस दिन। भाभी ने भी कितना समझाया था—जल्दबाज़ी ना करो विशाखा, समय के साथ-साथ सब ठीक हो जाएगा। कुछ समय तो दो रिश्ते को पकने का। एक बार… आगे पढ़ें
दो बेटियों के बाद जब दिवाकर के यहाँ बेटा पैदा हुआ तो उसकी ख़ुशियों का अन्दाज़ा लगाना बहुत मुश्किल था। ’दो बेटियाँ और एक बेटा, चलो अब अपना परिवार पूरा हुआ’ यह सोच कर दिवाकर और उसकी पत्नि सुनीती बहुत प्रसन्न हुए।  बच्चे के जन्म के सात दिन बाद दिवाकर जन्मकुण्डली बनवाने के लिये पण्डित बैजनाथ से मिलने गये। पण्डित जी ने नक्षत्रों को देख कर प्रदीप नाम सुझाया। फिर बोले, “सेठजी, और सब तो ठीक है, बच्चा बहुत होनहार होगा परन्तु इस बालक का आपको कोई सुख नहीं मिलेगा।”  यह सुनकर दिवाकर विचलित तो बहुत हुआ परन्तु अपने मन के भावों को पण्डित जी पर भी प्रकट नहीं होने दिया। बात ऐसी थी कि इस बालक के जन्म से पहले उसके एक पुत्र और एक पुत्री की बाल्य अवस्था में मृत्यु हो गई थी। अब तो दिवाकर के दिमाग़ में यह बात घर कर गई कि ये… आगे पढ़ें
रचना समीक्षा: पगड़ी का दार्शनिक चिंतन – डॉ. पद्मावती रचना समीक्षा: धीमे स्वर में गहराई से बोलती कहानी – अंजना वर्मा   हरभजन सिंह बेचैन थे। उनकी बेचैनी उनके कमरे की दीवारों को भेदती हुई पूरे घर में पसर रही थी। यहाँ तक नीचे रसोई में काम कर रही उनकी बहू गुरप्रीत भी उसे महसूस कर सकती थी। गुरप्रीत भी सुबह से सोच रही थी कि ऐसी कौन सी बात है जो कि दारजी को इतना परेशान कर रही है और वह उसे कह नहीं पा रहे हैं। घर में भी तो कुछ ऐसा नहीं घटा जो दारजी को बुरा लगा हो। वैसे भी उनकी आदत तो इतनी अच्छी है कि कोई भी ऊँची-नीची बात हो जाए तो वह बड़ी सहजता से उसे एक तरफ़ कर देते हैं और अपने परिवार की शान्ति में कोई अन्तर नहीं आने देते। आज तो अभी तक नाश्ता करने के लिए भी नीचे… आगे पढ़ें
"अरे, बकरिया कहाँ गइल रे?" सरस्वती ने आवाज़ दी। सूरज ढलने लगा था। सभी पशु-पक्षी अपने बसेरों में लौटने लगे थे। उसकी गाय भी चंवर से चरकर आ गयी थी। बकरी का कहीं पता नहीं था, सो उसकी चिंता लाज़मी थी। सरस्वती के पास एक गाय व एक बकरी थी। बकरी ने कुछ महीनों पहले ही दो नन्हें, प्यारे बच्चों को जन्म दिया था। दोनों बच्चे एकदम उजले और मुलायम थे। मानों सेमल की सफ़ेद रूई की ढेरी हो। अपने नाती-पोतों जैसे ही इन्हें प्यार करती थी सरस्वती। अपनी एकमात्र बेटी अनीता से वह चिल्लाते हुए कह रही थी कि "बकरिया कहाँ गइल? अनीता आंगन में चूल्हा-चौका कर रही थी। वहीं से बोली, "तू ही त ले गइल रहलू हा बाँधे, हम का जानी?" सुबह ही तो बकरी को पोखरी के किनारे खूँटे से बाँध कर आई थी वह! वहाँ जाकर देखा तो बकरी नदारद!! खूँटा और रस्सी… आगे पढ़ें
हँसुआ चलाए के मौसम फिर से आए गए। जिधर देखो उधर सब खेत में हरियर और पीयर रंग देखाए लगा। कड़ा घाम और हवा के बहाव में तो इतना सुन्दर दिखाए जैसे कोई हरियर और पीयर मक्मल के चद्दर बिछाए दीस सब तरफ। जिधर देखो बस उधर सब खेत में धान पक गए। झुण्ड के झुण्ड चिड़िया आए के वही चद्दर पे बैठे और सब तरफ खाली चिड़ियन के चहचाहट सुनाए दे लगा। मौसम ठीक होए के कारण ई साल सब के खेत में बहुत अच्छा फसल भये। अब तो सब के मन में बस यही बात रहा कि अगर टेम पे सब धान कटाए, दवांए और ओसाये लिया जाये तो मेहनत असूल होए जाई।  अबकी साल केसो भी आपन काका से अधिया पे खेत लई के काफी धान बोये लीस रहा। लान्गालांगा, लम्बासा में बुधई काका के पास सब से जादा जमीन रहा लेकिन बिमारी के कारण… आगे पढ़ें
परिचय करवाया किस्कू जी ने, "दुमका में हिंदी अफसर हैं मैडम शालू।"  उसमें से कुछ लोग पढ़े-लिखे थे, कुछ कम पढ़े-लिखे, कुछ अनपढ़। औरतें एकदम अनपढ़। अपनी आदिवासी भाषा में बातें कर रही थीं। शालू को किस्कू साहब की पत्नी सरल स्वभाव की लगीं। बेटे भी ढंग के लगे। परंतु बेटियाँ बातूनी एवं चंट स्वभाव की लगीं। तीन की पढ़ाई-लिखाई कम हो पाई थी। जल्दी शादी करके उनकी पत्नी आश्वस्त होना चाहती थीं।  बेटियों से परिचय उनकी पत्नी ने करवाया, “ये बड़ी कनक, इसके तीन बच्चे हैं। ये मँझली बिजली, इसके चार बच्चे हैं। इसका पति बेरोज़गार है। यहीं रहती है। बाक़ी तीन छोटी हैं। अभी पढ़ रही हैं। बेटे भी पढ़ रहे हैं। भई, खाना खिलाओ। थकी-माँदी आई हैं। खाना खा कर आराम भी करेंगी।”  पत्नी खाना लाने गई। किस्कू जी बैठकर त्यौहार के बारे में बताने लगे, “सरहुल पर्व धान कटने के बाद ख़ुशी से मनाया… आगे पढ़ें
मैं जानता हूँ, मुझे बराबर उलाहना-परतरा लोग देते रहे हैं, गोया कि आदमी न होकर अन्य जीव हूँ। फिर भी मैं हार नहीं माना हूँ, नहीं मान रहा हूँ क्योंकि मुझे मालूम है तनिक सा परिश्रम मुझे अभी नहीं करना है। अभी तो ढेर सारे संघर्ष मुझे करने हैं। मुझे क़तई दुख नहीं कि पीएचडी-रिसर्च मुझे करने नहीं दिया गया। मुझे बराबर जाति-पांति के पचड़े के कारण टकराना पड़ा है। अच्छा भी है। एक दूसरे को जब तक नहीं जानते तब तक ख़ूब गोल-गोल बातें होती हैं लेकिन ज्यों ही जाति की गंध लोगों को मिलती है लोग मुँह सूअर जैसा निपोरने लगते हैं। जाति की गंध टाइटिल से मिलती है। यदि टाइटिल नहीं है तो रंग, पहनावा पर धावा बोलते हैं। मेरे शरीर में ज़हर फैल जाता है जाति के ठेकेदारों द्वारा जाति पूछे जाने पर। इस समय मैं अपने को अकेला समझ रहा हूँ, फिर भी… आगे पढ़ें
कुछ वर्ष पहले बीती हुई यह बात सोचने पर ऐसी लगती है ऋण मानों बस कल ही घटित हुई हो, यूनेस्को की टीम का एक व्यक्ति उस साल मात्र इसी काम के लिए आया था कि चेक देने के पहले वह औरईआ गाँव की उस लड़की से स्वयं मिलना चाहता था, उसकी स्थिति को अपनी आँखों से देखना चाहता था।  इसी सन्दर्भ में मिस्टर जोसफ से मीटिंग के दौरान पहली बार मिलना हुआ था। मीटिंग में इस सबसे ज़रूरी मुद्दे के अलावा और भी कई एजेंडे थे, उस दिन घंटों चलने वाली उस मीटिंग के दौरान न जाने कितने नए-पुराने केसेज़ को निपटाया गया था।  चिरैयाटांड पुल से एग्ज़ीबीशन रोड चैराहे तक जाने वाली सीधी सड़क पर बाईं ओर सातवीं बिल्डिंग की तीसरी मंज़िल पर स्थित था हमारा वह मीटिंग हाल। उसी हाल में सरकारी-ग़ैरसरकारी, सभी लोग घंटों बैठे रहे, बातें,  बहसें, मुद्दे, एजेंडे। अंत में जब मीटिंग… आगे पढ़ें
शहर में चारों ओर स्वामी स्वरूपानंद के पोस्टर लगे थे। सभी प्रमुख सड़क, रास्ते और स्थान स्वामी स्वरूपानंद के बड़े-बड़े होल्डिंग, बेनर और पोस्टरों से अटे पड़े थे। धार्मिक लोगों में स्वामी स्वरूपानंद की समरसतावादी कथा-वाचक और तत्व-मर्मज्ञ के रूप में बड़ी प्रसिद्धि थी। उनके बारे में विख्यात था कि वह न केवल बहुत रोचक ढंग से धर्म-कथा सुनाते थे अपितु धर्म की मानवीय व्याख्या करते थे। बड़ी संख्या में लोग उनके प्रवचन और धर्म कथाएँ सुनने के लिए आते थे, जिनमें समाज के सभी वर्गों, जातियों, सम्प्रदायों के लोग शामिल होते थे। उन्हें धर्म का साक्षात रूप समझा जाता था। देश के कई शहरों में उनके आश्रम थे, इसलिए किसी एक जगह पर नहीं रहकर वह कभी यहाँ और कभी वहाँ आते-जाते रहते थे। जिस शहर में भी वह जाते थे वहीं पर उनके दर्शन करने और प्रवचन सुनने वालों का ताँता लग जाता था। दिल्ली के… आगे पढ़ें
पन्द्रह दिनों की जी तोड़ मेहनत भागदौड़ और उससे पहले की भी ख़ूब सारी मीटिंग्स मेल मुलाक़ात। पूरे विभाग को ज़िम्मेदारी समझाते हुए विभाग के अध्यक्ष ने कहा, "अबकी बार कोई ग़लती नहीं होनी चाहिए! सब एकदम सटीक समय पर होगा! सबको शार्प टाइम पर पहुँचना होगा! ऐसा ना हो कि मुख्य अतिथि पहले आएँ और आप बाद में पहुँचे!" थोड़ा साँस लेकर सबकी तरफ़ निहारकर उन्होंने कहा, "और हाँ हमें अपनी संस्कृति का ख़्याल भी रखना होगा! भारतीय संस्कृति की पहचान उसका पहनावा खानपान और आदर सत्कार है इसलिए कपड़े एथनिक लुक में ही होने चाहिएँ! भारतीय परिधान ही सबसे सुंदर होते हैं!" "जी, जी हाँ सर भारतीयता दुनिया में विशिष्ट है हम इसका उदाहरण पेश करेंगे!" यह बात डॉक्टर दूबे ने कही जैसे उन्होंने विभाग अध्यक्ष का वाक्य हाथों हाथ लपक लिया।  उनके समर्थन में डॉ. मृदुला शर्मा ने कहा, "महिलाएँ साड़ी पहनेंगी, और पुरुष फ़ॉर्मल… आगे पढ़ें
“मैडम आ….प किस कॉलेज में हो?” पसीने से लथपथ उस लड़की ने हिन्दी के देहाती अंदाज़ में पूछा। मात्र 1.22 मिनट में दो सौ मीटर की रेस को पूरा कर स्पोर्टस् ट्रायल में नम्बर एक पर आई उस लड़की पर मैडम जी की नज़र भी टिकी थी। वे तभी से उसे बड़ी आत्मीयता से निहार रही थीं। लड़की का ऊँचा लंबा क़द, खिंची तराशी पिंडलियाँ उसके उज्ज्वल भविष्य की ओर इशारा कर रही थीं। उधर मेडम का बेबाक अंदाज़, सुनहरे फ़्रेम का काला चश्मा और पाँच फुट आठ इंच का लम्बा तराशा भव्य व्यक्तित्व उस सामान्य सी दिखने वाली कन्या को अपने विशेष होने की अनुभूति करा रहा था। पर मैडम थी कि उसके इस सवाल को बराबर मुस्कुराकर टाल रही थी। वे चाहती थी कि लड़की उनसे इतनी प्रभावित हो जाए कि ख़ुद ही पता करे कि वे किस कॉलेज में पढ़ाती हैं।  यह विश्वविद्यालय का स्पोर्टस्… आगे पढ़ें
पार्वती अम्मा के न आने पर उनके लिए पूरा दिन गुज़ारना बहुत कठिन हो उठता था। पैंसठ साल की पार्वती अम्मा, नाती- पोतों वाली पार्वती अम्मा, जब तब घर में ऐसा कुछ पा जाती कि भूल ही जाती कि उनके पीछे, उनके बिना कहीं ज़िन्दगी रुक ही गई होगी। इस रुकी हुई ज़िन्दगी को हर पल धक्का देकर चलाना जो पड़ता था। यह ज़िन्दगी अपने आप में बड़ी कठिन थी, उसके लिए सब कुछ बड़ा कठिन था। कभी यह सब कुछ बहुत सहज था, बहुत आसान, ठीक वैसे ही जैसे बहता है पानी, या बहती है हवा, या कि जैसे उगता है सूरज और छिप जाने पर चाँद आ जाता है बिना किसी के आवाज़ लगाए अपने आप। अभी पिछले लगभग एक घण्टे से सूखी ठूँठ-सी बेजान उँगलियाँ प्रयासरत थीं। एक आसान सा काम उन्हें बड़ा कठिन बना रहा था। चम्मच उँगलियों के बीच फँस ही नहीं रहा… आगे पढ़ें
इस तरफ़ से जहाँ वह बैठे थे, वहाँ से उस तरफ़ का दृश्य साफ़ ही दिखाई देता, पर दोनों छोरों के बीच कोहरे का एक झीना आवरण था, ठंडक थी और बर्फ़ के गले हुए टुकड़ों से बने पानी की नदी। पहाड़ी के बीचोंबीच यह नदी ख़ामोशी से बह रही थी, जाने कब से। स्थानीय लोगों ने उन्हें पहले ही मना कर दिया था कि नदी में ना उतरें, उस का पाट बेशक ज़्यादा चौड़ा नहीं है, बामुश्किल चालीस हाथ होगा, पर गहरी बहुत है नदी, शायद चार बाँस गहरी मतलब लगभग चार सौ फ़ीट से कुछ अधिक ही। सावधान रहिए।  इस पार से उस पार जाने के लिए लकड़ी का एक पुल वहाँ था, काफ़ी पुराना और थोड़ा जर्जर भी। कब और किस ने बनाया यह पुल यह बात बहुत से लोगों से पूछने पर पता चली कि बहुत पहले कभी अंग्रेज़ों के वक़्त में बनाया था… आगे पढ़ें
आज इतवार है। सप्ताह भर की दौड़-भाग को विश्राम। सभी काम सुस्त गति से निपटाये जा रहे हैं। ग्रुप हाउसिंग सोसायटी में आज चहल-पहल है। आज सबको फ़ुर्सत है। आज सभी कार्य अन्य दिनों की निर्धारित अवधि से ज़्यादा समय ले रहे थे। जैसा और दिन पृथ्वी का होता है छोटा सा, आज का दिन सूर्य का पृथ्वी से ज़्यादा दीर्घावधि का। सोसायटी के सातवें फ़्लोर के एम. आई. जी. फ़्लैट में निगम जी सोफ़े पर अधलेटे पसरे हुए हैं। टी.वी. पर हॉलीवुड की डब फ़िल्म चल रही है। पूरा साउंड सिस्टम एक्टिव है। जेम्स बांड की फ़िल्म। गोलियों और कारों की ऐसी आवाज़ें जैसे कानों के पास ही चल रही हों। बीच में ब्रेक आता तो न्यूज़ लगा लेते और मोबाइल तो लगातार सक्रिय था ही। निगम जी कई चाय पी चुके थे। "ज़रा आधा कप चाय तो बना दो! पहले वाली ठंडी हो गई थी..” "ठंडी… आगे पढ़ें
उसके  हाथ-पैर काँप रहे थे। हाथ-पैर ही नहीं, पूरा शरीर काँप रहा था...। स्वर तीव्र होते-होते गले में रुँध गये थे। तेज़ बोलना उसका स्वभाव नहीं था। आज सहसा चिल्लाने से उसका गला रुँध गया। वह इतनी दुर्बल कभी नहीं थी कि यह घटना उसके मन मस्तिष्क पर इतना दुष्प्रभाव डाल सके। वह तो साहसी थी।  विवाह के समय जब वह बल्यावस्था में थी, तब बहुत डरती थी। पिता व भाई के अतिरिक्त किसी भी परपुरुष से उसे भय लगता था। उसे स्मरण हैं अब भी, बचपन के वे दिन जब वह गाँव के सरकारी प्राथमिक विद्यालय में पढ़ती थी। उस दलित बस्ती से जहाँ वह रहती थी वहाँ से विद्यालय कुछ दूर मुख्य गाँव में था। घर से विद्यालय की दूरी तय करने में वह संकोच व शर्म से कंधे व आँखें झुकाये रहती थी। कभी भी सीधी हो कर, गर्दन उठा कर वह चल नहीं सकी।… आगे पढ़ें