विशेषांक: दलित साहित्य

16 Feb, 2022

मेघना शंकर के घर आज बहुत चहल-पहल थी। आज ही आईआईटी-जेईई के नतीजे आए थे। मेघना शंकर ने पूरे भारत में शीर्ष स्थान प्राप्त किया था। बधाई देने वालों का ताँता लगा था। ईमेल, व्हाट्सएप, फ़ेसबुक, टि्वटर इत्यादि सोशल साइटों से भी बधाइयाँ और शुभकामनाओं की बौछार लगी थी। टीवी पर सभी न्यूज़ चैनल दिखा रहे थे: “बिहार की बेटी ने किया कमाल”, “बेटियाँ किसी से कम नहीं”, “अंबेडकर की संतान ने बढ़ाया मान”, “बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ।” 

मेघना शंकर आज बहुत ख़ुश थी। आख़िर आज उसे ख़ुद को साबित करने का मौक़ा जो मिला था। बचपन से ही लड़की और दलित होने की जो हीन भावना उसके अंदर भरने की कोशिश की थी समाज ने, उसका करारा जवाब दिया था मेघना ने। स्कूल, कॉलेज, बस स्टॉप, कैंटीन, जहाँ कहीं भी जैसे ही बातों-बातों में सामने वाले को पता चलता कि मेघना दलित है, तुरंत ही व्यंग्य, तिरस्कार और उपहास से भरी टिप्पणी जड़ दी जाती। आपको तो नौकरी आराम से मिल जाएगी। आरक्षण जो न करवाए। यह तो खा गया देश को। सभी जगह अयोग्य लोग बैठ गए हैं। मेघना तिलमिलाकर रह जाती। सिर्फ़ जाति जानने से कोई कैसे कह सकता है कि वह अयोग्य है। वह कहती, “नहीं साहब! कई बार मेरा चुनाव सामान्य कोटि में हुआ है। मेरा मेधा अंक ऊँचा रहता है।” इस पर दूसरी टिप्पणी जड़ दी जाती। “तब तो आप सामान्य की भी एक सीट खा जाती हैं।” 

इन पूर्वाग्रह से ग्रसित लोगों से बात करना ही बेकार है। मेघना मन में सोचती और चुप हो जाती। इन सब घटनाओं के बढ़ने के साथ ही, उसके मन की इच्छाशक्ति दृढ़ से दृढ़तर होती जा रही थी। उसने मन में ठान लिया था, कि मुझे स्वयं को साबित करना होगा। मेघना का ही सहपाठी था वैभव श्रीवास्तव। बचपन से ही मेघना हर परीक्षा में उसे पछाड़ती आई थी। वैभव अपने बिस्तर पर लेटा समाचार देख रहा था। मेघना के टॉप करने का समाचार फ़्लैश होते ही वह एकदम उदास हो गया। सोचने लगा, अब तो माँ-बाप और उनके परिचित लोग ताने मार-मार कर मेरा हृदय छलनी कर देंगे। क्यों मुझे मेघना की कसौटी पर करना चाहते हैं? मेरी अपने अलग क्षमताएँ हैं। मेरी भी सीमाएँ हैं। आख़िर क्यों मैं दूसरों की बनाई राह पर चलूँ? 

तभी उसकी नज़र कमरे में टँगी पेंटिंग पर गयी और वहीं अटक कर रह गयी। पेंटिंग स्वयं उसी की बनाई हुई थी। सूर्यास्त के समय का नदी का बोझिल किनारा उसने चित्रित किया था। वह सोचने लगा “क्या मेरे जीवन में सूर्योदय कभी नहीं होगा?” तभी पिताजी कमरे में आए। उसे पेंटिंग की तरफ़ तक नज़र गड़ाए देखते हुए निराशा भरे स्वर में बोले, “बेटा कितनी बार तुम्हें समझाया, ब्रश और रंगों की दुनिया से बाहर आओ। तुम्हारी मंज़िल वह नहीं है। हमारे ख़ानदान में आज तक सब हिसाब-किताब में माहिर थे। वही तुम्हारे लिए सुविधाजनक है। गणित तुम्हारे ख़ून में है बेटा। मुझे देखो मैं एक प्रतिष्ठित बैंक का मैनेजर हूँ। तुम्हारे दादा जी बैंक में बड़े बाबू थे। तुम्हारी माँ चार्टर्ड अकाउंटेंट है। तुम कहाँ कला के क्षेत्र में फँस रहे हो। हमारे घर में आज भी चित्रगुप्त पूजा के दिन कितने वृहद्‌ आयोजन के साथ क़लम की पूजा की जाती है। हमारी निपुणता क़लम में है। रंगों की दुनिया से बाहर निकलो।” 

वैभव ने टोकने की कोशिश की, “पर पापा मेरा मन नहीं लगता नीरस हिसाब-किताब में!” 

तभी पिताजी ने प्रतिवाद किया, “बस करो तुम्हें तुमसे ज़्यादा मैं जानता हूँ। जब तुम छोटे थे तो दुकान के सभी खिलौनों को देखते थे, पर मैं समझ जाता था कि तुम्हें उन में से कौन सा खिलौना चाहिए। मेहनत करो बेटा हम तुम्हारे साथ हैं। चाहे जितना पैसा लग जाए। कोई भी कोचिंग करो। कुछ भी करो, पर तुम्हें आईआईटी जेईई परीक्षा उत्तीर्ण करनी होगी। मेघना ने एक लड़की और दलित होकर टॉप किया है। कुछ तो शर्म करो! उसके ख़ानदान में तीन पीढ़ियों से पहले सब अनपढ़ थे। किसी ने विद्यालय का मुँह तक नहीं देखा था। क्या है उसके पिता! एक दफ़्तर में चपरासी! और माँ सिर्फ़ पाँचवीं पास। अरे उसके पिता तो उसे ढंग से कोचिंग भी नहीं करवा पाए, और तुम पर हम बचपन से होम ट्यूशन, कोचिंग इत्यादि में पैसा झोंक रहे हैं।” 

वैभव रोष से बोला, “आपने ग़लत दिशा में पैसा लगाया है पापा। अगर मुझे आर्ट्स लेने दिया होता। मुझे पेंटिंग करने दिया गया होता, तो आज मैं बहुत ख़ुश और संतुष्ट होता। शायद सफल भी होता। आपको भी मुझ पर गर्व होता। पर आपने तो मछली को रेत पर हो रही दौड़ में झोंक दिया। कम से कम मेरी रुचियों और क्षमताओं का तो ख़्याल किया होता।” 

पिताजी गहरे विचारों में खो गए। कहीं ग़लती मेरी ही तो नहीं है। बोले, “अच्छा बेटा नहा-धोकर नाश्ता कर लो। कुछ ना कुछ करेंगे तुम्हारे लिए।” 

वैभव बेमन से नहा-धोकर नाश्ते की टेबल पर पहुँचा। आज रविवार था इसलिए सभी की छुट्टी थी। माँ नाश्ता करने बैठीं। उनका चेहरा भी उखड़ा-उखड़ा था। घर में इतनी नीरव शान्ति थी कि लगता था कोई अप्रिय घटना घट गई है। ब्रेड पर मक्खन लगाते लगाते धीरे से माँ बोलीं, “अब मैं क्या जवाब दूँगी मैसेज सिन्हा, मिस्टर तिवारी और बाक़ी सहकर्मियों को।” मिसेज श्रीवास्तव की आवाज़ में आहत अभिमान का दर्द झलक रहा था। बोलीं, “सभी से मैंने कह रखा था कि मेरा बेटा ज़रूर सफल होगा, देख लेना। आज तुम्हारा कहीं चयन ही नहीं हुआ! वह मेघना शंकर टाॅप कर गई।” मेघना का नाम लेते ही बुरा सा मुँह बनाया उन्होंने। दरअसल मेघना का परिवार मूल रूप से मिसेज श्रीवास्तव के मायके का ही था। सालों पहले मेघना के दादाजी गाँव छोड़ कर आ गए थे। अब उनका परिवार पटना में ही रहता था। वैभव चुपचाप सुन रहा था। क्या बोले? एक तो उसके अरमानों का गला घोंट दिया गया था, दूसरे उस पर तानों की बौछार। वह नाश्ता करके अपने कमरे में जाकर लेट गया। आज कहीं बाहर जाने का मन नहीं हुआ उसका। उसके सभी परिचित जानते थे कि वह जी तोड़ मेहनत करके परीक्षा की तैयारी कर रहा है। कहीं किसी ने परीक्षा का परिणाम पूछ लिया तो? क्या जवाब देगा वह? 

तीन दिनों तक वह घर से बाहर नहीं निकला। सिर्फ़ बेमन से भोजन करता और अपने कमरे में पड़े-पड़े पेंटिंग को निहारता रहता। मेघना को मिलने वाली बधाइयों का सिलसिला अब थमने लगा था। वैभव के दोस्त उसे फ़ोन कर-कर के थक चुके थे। या तो उसका फ़ोन स्विच्ड ऑफ़ मिलता या वह कॉल ही नहीं उठाता था। मिहिर जो उसका नज़दीकी दोस्त था उन दिनों पटना से बाहर था। उसने भी कई बार वैभव से संपर्क करने का प्रयास किया था, पर एक बार भी वैभव से बात नहीं हुई थी। न ही उसके किसी मैसेज का जवाब उसने दिया था। आज पटना वापस आते ही नहा-धोकर आराम करने के बजाय व वैभव से मिलने चल दिया। 

वैभव के घर पहुँचा तो उसकी हालत देखकर दंग रह गया। लगता था जैसे सिर्फ़ बेजान रोबोट है वह। ना चेहरे पर चमक, न आँखों में इतने दिनों बाद मिलने की ख़ुशी। 

“अरे! आख़िर तुझे हुआ क्या है वैभव?” मिहिर ने पूछा, “तू किसी से बात नहीं कर रहा। आंटी ने बताया कि तीन-चार दिन से घर से नहीं निकला। आख़िर बात क्या है? आईआईटी में असफल हो गया है इसलिए यह हाल बना रखा है क्या?” 

वैभव बोला, “नहीं यार, असफल तो पहले भी हुआ हूँ, पर इस बार मेघना ने टॉप किया है। इस समय मैं अपने रिश्तेदारों, पापा के परिचितों, माँ के सहकर्मियों का सामना नहीं कर पा रहा हूँ। सब तरह-तरह के ताने देंगे। व्यंग्य करेंगे, और वह भी एक शुभचिंतक का मुखौटा पहनकर। मुझे नहीं मिलना किसी से।” 

 “पर ऐसा कब तक चलेगा?” मिहिर ने पूछा। 

“पता नहीं,” वैभव ने जवाब दिया। 

दोनों थोड़ी देर चुप बैठे रहे, तभी मिहिर ने चुप्पी तोड़ी, “तो तेरी परेशानी की वजह मेघना शंकर की सफलता है। है ना?” 

वैभव सहसा चुप हो गया। फिर बोला, “नहीं यार, किसी की सफलता से जलता नहीं हूँ मैं। पर इस समाज को कौन समझाए।” 

थोड़ी देर सोचने के बाद मिहिर बोला, “तेरी समस्या का एक समाधान है मेरे पास जिससे साँप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे।” 

 “मतलब?” वैभव ने पूछा। 

“मतलब अभी बताता हूँ। तुझे याद है आईआईटी जेईई की पहली परीक्षा में मेघना के अंक तुम से कम थे, परंतु दलित होने के कारण वह आईआईटी जेईई की दूसरी परीक्षा में शामिल हो पाई। तुम पहली परीक्षा में ही छाँट दिए गए थे।” 

वैभव को याद आया, “हाँ, याद तो है। मेघना बीमार पड़ गयी थी। जैसे-तैसे उसने पहली परीक्षा दी थी।” 

“हाँ तो बस बन गया अपना काम। अपना मोबाइल ले आ, “चहकते हुए मिहिर ने कहा। फ़ेसबुक खोलकर मिहिर ने एक फड़कती हुई पोस्ट डाली—“आरक्षण का दंश-80 वाला अयोग्य और 79 वाला योग्य। क्यों? क्योंकि वह दलित जाति का है। उनसे दुगना आवेदन शुल्क भरें हम, उम्र में छूट ना लें हम, और कम अंकों के बाद भी चयन हो जाए उनका! यह क्या है? प्रतिभावान को पीछे धकेलने की साज़िश है।” इसके बाद उस पोस्ट में परीक्षा के ब्योरे के साथ मेघना शंकर के टॉप करने तक की कहानी बयाँ की गई थी। वैभव का कहना था कि अगर उसे प्रथम परीक्षा में चयनित कर लिया जाता तो मेघना कभी भी टाॅप नहीं कर पाती। इस पोस्ट का जाना था कि सोशल मीडिया में हलचल मच गई। सालों से जो घृणा सवर्ण समाज में दलितों के लिए थी, वह विस्फोट के साथ बाहर आ गई। कमेंट का ताँता लग गया। कोई कमेंट करता था, “सही है भाई! अयोग्य को अफ़सर बनाओ, योग्य को चपरासी। यही लोकतंत्र है।” कोई कहता, “आरक्षण हटाओ देश बचाओ” इस पर एक ने तो हद ही कर दी। उसने मनुष्यता की सारी मर्यादाओं को लाँघते हुए, मनुष्य को पशु बना डाला। और तुलना कर डाली—“गधों को जिताने के लिए घोड़ों के पैर में डाली ज़ंजीर-आरक्षण।” मेघना शंकर ने जब वैभव की पोस्ट पढ़ी तो उसका माथा ठनका। व्यक्तिगत कुंठा को कोई इस तरह कैसे भुना सकता है! सबसे पहले उसने पोस्ट पर कमेंट किया—“जाति हटाओ। देश बचाओ। आरक्षण स्वतः ही समाप्त हो जाएगा। आरक्षण की जड़ जाति है। अगर हम नई पीढ़ी इस बात को समझ लें और एक सही मनुष्य के रूप में अपना जीवन साथी चुनें, चाहे वह किसी भी जाति धर्म का हो। तो जाति की ज़ंजीरें स्वतः ही ढीली होते-होते एक दिन टूट जाएँगी। फिर आरक्षण अपनी मौत आप मर जाएगा। पर आप सभी बुद्धिजीवी जाति को ज़िन्दा रखना चाहते हैं। ब्राह्मणवाद पर गर्व करते हैं, और आरक्षण को हटाना चाहते हैं। बाबा साहब ने अवसर की समानता के लिए आरक्षण की व्यवस्था की थी। पर अफ़सोस की बात है आज संविधान लागू हुए लगभग सत्तर वर्ष हो गए हैं। परंतु आज भी अ.जा. और अ.ज.जा. का एक बड़ा हिस्सा समाज की मुख्यधारा से कटा हुआ है।” 

पोस्ट करने के बाद मेघना कुछ सोचती रही। तभी माँ ने चाय बना कर दी। 

“क्या बात है बेटा? क्या सोच रही हो?” 

“कुछ ख़ास नहीं माँ, मैं सोच रही हूँ, अपने दोस्तों को ट्रीट दे दूँ। टॉप करने की ख़ुशी में,” मेघना ने कहा। 

माँ बोली, “हाँ-हाँ जाओ। कृष्णा रेस्टोरेंट में चली जाओ, वहाँ बहुत स्वादिष्ट डोसा मिलता है।” 

“हाँ माँ, आज शाम को चली जाऊँगी,” मेघना बोली। उसने अपने सभी क़रीबी दोस्तों को फ़ोन करके शाम 4:00 बजे कृष्णा रेस्टोरेंट में बुलाया। वैभव और मिहिर को भी ख़ास अनुरोध करके बुलाया। 

शाम 4:30 तक सभी रेस्टोरेंट पहुँच चुके थे। चाय नाश्ते के बाद मेघना ने सबके लिए डोसा ऑर्डर किया। फिर वैभव से मुख़ातिब होकर बोली, “यह तुम क्या कर रहे हो वैभव? तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर समाज को भड़काना कहाँ तक उचित है?” 

वैभव उसका इशारा समझ गया। बोला, “मैंने ग़लत क्या किया है? जो सच है वही तो सब को बताया है।” 

“नहीं वैभव,” रसिका बोली, “मेघना को तुम फ़ेसबुक पर अयोग्य घोषित करने पर तुले हो, जबकि तुम अच्छी तरह जानते हो कि वह हम सबसे तीव्र बुद्धि की है। प्रतिभा किसी जाति की मोहताज नहीं होती वैभव।” 

इस पर मिहिर बोला, “तुम क्या जानो, इसे क्या क्या झेलना पड़ा है? सभी के तानों और व्यंग्य से यह तो यह अवसाद का शिकार हो गया था।” 

इस पर मेघना बोली, “यह हमारे समाज का दोष है मिहिर, क्यों ना हम इस ज़हर को फैलाने की बजाय, ख़त्म करें और एक स्वस्थ समाज का निर्माण करें।” 

इस पर विवेक मिश्रा बोला, “बात तो मेघना ने एकदम उचित कही है। अगर मान भी लिया जाए कि आरक्षण के कारण उसको मौक़ा मिला। परंतु परीक्षा में टॉप करने का मतलब है, मेघना ने सभी को मात दी है। अ.जा., अ.ज.जा., पिछड़ा वर्ग, सामान्य कोटि सभी को। इसमें आरक्षण कहाँ है? जो चाहे वही टॉप कर सकता है। शीर्ष स्थान आरक्षित थोड़े ही है।” 

इस पर मेघना बोली, “आरक्षण से घृणा करने वालों से मैं कहना चाहूँगी, कि आरक्षण तो मनुस्मृति की देन है। पढ़ने-लिखने का अधिकार जाति विशेष के लिए उसमें आरक्षित कर दिया गया। वह आरक्षण हज़ारों सालों तक चलता रहा। बाबा साहब ने तो वंचित, दलित, और समाज की मुख्यधारा से बाहर के लोगों को अवसर की समानता देने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की थी। पर आज भी समाज का एक बड़ा वर्ग अवसर की समानता से वंचित है। आरक्षण समाप्त हो जाने की स्थिति में तो वे और पिछड़ जाएँगे। सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक सभी रूपों से। हाँ, जो लोग मुख्यधारा में आ गए हैं। सरकार के अच्छे पदों पर अपनी प्रतिभा के अनुसार विराजमान हैं। सम्मान पूर्वक जीवन जी रहे हैं। उन्हें आरक्षण का लाभ छोड़ देना चाहिए। मैं आज यह फ़ैसला करती हूँ कि मैं आगे अपने बाल बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, नौकरी के लिए आरक्षण का लाभ नहीं लूँगी। हाँ, उन्हें अवसर अवश्य मुहैया कराऊँगी और अपनी क्षमता और प्रतिभा के अनुसार उन्हें आगे बढ़ने का मौक़ा दूँगी।” 

इस पर वैभव तालियाँ बजाने लगा, “वाह क्या बात है! मोहतरमा!” 

तभी सभी के चेहरों पर मुस्कान आ गई। वैभव बोला, “आज ही मैं वो पोस्ट हटा लेता हूँ।” 

तभी रसिका बोली, “अरे यार डोसा तो ख़त्म हो गया धीरे-धीरे, आरक्षण और जाति की तरह। अब चलो मूवी देखने चला जाए।” 

सभी दोस्त सिनेमा हॉल की ओर बढ़ चले। 

सुनीता मंजू
सहायक प्रोफ़ेसर 
हिन्दी विभाग 
राजा सिंह महाविद्यालय सीवान 
बिहार

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