आज इतवार है। सप्ताह भर की दौड़-भाग को विश्राम। सभी काम सुस्त गति से निपटाये जा रहे हैं। ग्रुप हाउसिंग सोसायटी में आज चहल-पहल है। आज सबको फ़ुर्सत है। आज सभी कार्य अन्य दिनों की निर्धारित अवधि से ज़्यादा समय ले रहे थे। जैसा और दिन पृथ्वी का होता है छोटा सा, आज का दिन सूर्य का पृथ्वी से ज़्यादा दीर्घावधि का।
सोसायटी के सातवें फ़्लोर के एम. आई. जी. फ़्लैट में निगम जी सोफ़े पर अधलेटे पसरे हुए हैं। टी.वी. पर हॉलीवुड की डब फ़िल्म चल रही है। पूरा साउंड सिस्टम एक्टिव है। जेम्स बांड की फ़िल्म। गोलियों और कारों की ऐसी आवाज़ें जैसे कानों के पास ही चल रही हों। बीच में ब्रेक आता तो न्यूज़ लगा लेते और मोबाइल तो लगातार सक्रिय था ही। निगम जी कई चाय पी चुके थे।
"ज़रा आधा कप चाय तो बना दो! पहले वाली ठंडी हो गई थी..”
"ठंडी हो गई थी तो बता देते! मैं गर्म कर देती.. अब बार-बार चाय.. खाने का टाइम हो रहा है.. दोपहर हो रही है, अब तो इसके बाल कटवा लाओ.. कब तक टी. वी. देखते रहोगे.. और ये फ़िल्म पहले भी देख चुके हो.. मोबाइल तो सैलून में भी देख लेना.."
आज पत्नी भी ऑन थी। वाकई सब चीज़ें फैल रही थीं। पत्नी के डायलॉग भी आज बड़े थे। और आज एक जगह नहीं वह बोलती बड़बड़ाती एक कमरे से दूसरे में आ जा रही थी। वह कहीं भी जाती उसकी आवाज़ निगम जी तक आ रही थी। ब्रेक आया तो टीवी की आवाज़ म्यूट कर बोले–
"अभी इतने कहाँ बढ़े हैं?”
"आपको तो दिखते नहीं.. कई बार कॉपी में नोट्स लिखकर आ चुके हैं.. (थोड़ा हँसी) और एक दिन तो मैडम ने इसके बालों में रबरबैंड ही डाल दिया था.. कहने लगी ला तेरी गुंथ बना दूँ.."
वह अपने जवान होते बेटे पर लहालोट थी। निगम जी हैरान से थे, बुदबुदाये–
"लगता है ग़ुस्सा भी ग़ुस्सा नहीं है बातचीत करने की अदा है.."
"क्या बड़बड़ा रहे हो...?” पत्नी ने बेहद बनावटी ग़ुस्से में कहा तो दोनों एक साथ हँस पड़े।
सम्मिलित हँसी से बेटा सहम गया। उसे लग गया कि उसके बालों को लेकर आम सहमति बन चुकी है, अब ख़ैर नहीं। अब तक सज़ायाफ़्ता सा वह होमवर्क निपटा रहा था। मगर अब सहमकर क्षमाप्रार्थी जैसी मुद्रा में आ गया। लड़का नवीं कक्षा में। बुनियादी कक्षा है दसवीं के लिये। निगम जी ने निगाह भरकर निहारा। उसके सलोने चेहरे पर गुज़ारिश के से भाव थे और माथे पर देवआनंद जैसा पफ़ बहुत सुहा रहा था। बेचारगी के भाव से उसने राजेन्द्र कुमार और राजकपूर की मोनो एक्टिंग करके दिखाई कि बिना पफ़ के उसकी शक्ल गँवारों जैसी हो जायेगी। निगम जी खिल गये। बेटे में अभिनय क्षमता देखकर। लड़के ने राजकपूर की मिमिक्री की-
"हम तो गाँव के शिदे-शादे आदमी हैं ज्जी.. मेरा नाम राजू..," एक हाथ पैंट की क्रीज़ के साथ और दूसरा वरदान देने जैसी मुद्रा में। और बबुए की तरह हिला-डुला। निगम जी हँस पड़े, बेटे से बोले–
"इतने बुरे तो नहीं हैं.. भई ऐसा करते हैं, थोड़े-थोड़े छोटे करवा लेते हैं, ना तेरी मैडम को बुरे लगे और ना मेरी को.."
रसोई से आती पत्नी ने अंतिम पंक्ति सुन ली थी। निगम जी हँस पड़े, बेटा भी। मगर श्रीमती जी तैश में थी। फिनाइल की बोतल हाथ में थी, बोली–
"थोड़े नहीं पूरे छोटे.. अगले हफ़्ते तक फिर बढ़ जायेंगे.. और कटवा दियो, ना तो सोते टाइम कैंची भर दूँगी.."
यह ख़तरनाक चेतावनी थी दोनों बाप बेटा अलर्ट। बेटा कार की चाबी ले आया, पत्नी ने पर्स लाकर थमा दिया। "चल भई चल, ना तो गंजा कर देगी नींद में ही..," निगम जी ने भय की बनावटी मुद्रा बनाई। पत्नी ग़ुस्से में। बेटे ने बाहर निकल कर लिफ़्ट रोक ली थी। निगम जी जल्दी से लिफ़्ट में घुसे, जैसे बमबारी से बचे हों। नीचे जाकर बेटे ने फटाफट भागकर रिमोट से कार ओपन की। स्टार्ट कर म्यूज़िक भी चला दिया और तुरन्त दूसरी तरफ की सीट पर भी शिफ़्ट हो गया।
"गियर को टच मत करना!" निगम जी ने सावधानीपूर्वक कहा। तब तक लड़का पैन ड्राइव के फ़ोल्डर में से एक रैप साँग लगा चुका था जिसमें मुआवज़े की रक़म, हथियारों और लग्ज़री गाड़ियों का रौब मारकर लड़की को इम्प्रेस करने का भाव था। निगम जी ड्राइविंग सीट पर आ जमे। सीट बैल्ट लगाते हुए समझाने वाले स्वर में बोले–
"बेटा कितनी बार कहा है अगर सुनना ही है तो पुराने गाने सुना करो! भाषा अच्छी बनेगी.. शैलेन्द्र के गाने सुनो! पता है तुम्हारी क्लास में जैसी कविता पढ़ाई जाती है वैसे हैं शैलेद्र के गाने.."
"पापा!" बच्चा जैसे कार से उतर जाने के मूड में था. "अब पाँच मिनट की ही तो बात है.. इतनी देर में.." निगम जी ने मुस्कुराकर गाड़ी बढ़ा दी।
जैसे बगल की सीट पर निगम जी ख़ुद को बैठा पा रहे थे। बेटे ने कार का वैनिटी ग्लास खोल दिया था और मुँह को गोल सीटी बजाने जैसा करके अपने पफ़ को जमा रहा था। मानो कुछ देर में यह पफ़ अतीत हो जायेगा। परन्तु अतीत तो निगम जी हो चुके थे। गाड़ी आगे बढ़ गई, निगम जी पीछे लौट गये।
हू-बहू ऐसा ही एक बालक जिसके गाँव का स्कूल महज़ आठवीं तक था। नवीं में वह पास के गाँव वाले स्कूल में जाने लगा था। वह राजपूतों का गाँव था। स्कूल का नाम भी था "राणा प्रताप रा. उ. मा. विद्यालय" और उस पर लगे शिलापट्ट के अनुसार उसका शिलान्यास किया था "राजमाता गायत्री देवी सिंधिया" ने।
यह स्कूल आज भी है। आज भी इस गाँव के राजपूत राजस्थान में रिश्तेदारी करते हैं। ये लोग ख़ुद को प्योर रॉयल ब्लड मानते हैं।
बालक अक़्सर अपने गाँव के लोगों से सुनता, "अंरे कित के राजपूत, ठाकुर.. रांघड़ हैं अर बणजारे हैं.. कोई एक आध होवैगा.. पर नूं थोड़ी है के सारे राज्जाओं की उलाद हैं..”
इसकी तस्दीक़ हो जाती जब बालक देखता कि उसके सहपाठी हैं तो सुमेर सिंह, महिपाल सिंह, प्रेम प्रताप सिंह इत्यादि मगर वो लोग अक़्सर स्कूल की दीवार कूद-फाँदकर खेतों में बीड़ी पीने जाते, खीरे-ककड़ी चुराकर खाते, किसी की गाय-भैंस को पावसा कर दूह लिया और धार पी गये, आसपास के गाँव से पढ़ने आने वाले छात्रों को छेड़ते, पीटते, अपमानित करते; कई बार साईकिल से आते-जाते शिक्षकों पर ज्वार-बाजरे की घनी फसल में से माटी के ढेले बरस पड़ते। धीरे-धीरे बस रहे क्षेत्र में फेरी लगाते रेहड़ी-खोंमचे वाले अक़्सर इनका शिकार बनते। स्कूल, गाँव, प्रधान और ज़ोर सब उनका।
शिक्षक आपस में एक-दूसरे से कहते– "अरे माट स्साब एक महीना और.. ट्रांसफर की अर्जी तो लगा दी है..."
छात्र का कहना– "बस इस साल ग्यारहवी.. अर बारहवी मैं तो दिसंबर तक आणा.. मार्च मैं पेपर.. फेर किसे दिन अपणे काक्का नै ले कै अर मारकसीट सनद लिकड़वा लूँगा.."
बालक अक़्सर सोचता– "इसे होवै हैं राज्जा-राजपूत मरे-मरे से.. बीड़ी सिकरट पीते.. महाराणा प्रताप का तो भाल्ला भी अस्सी किलो का बतावै हैं.. अर ये तै ख़ुद तीस-पैतीस किलो के हैं.. के चक्कू उठावैंगे..?" मगर वह ऐसा सोचता भर था। कहता नहीं। कहने करने पर माँ की हिदायतों, सलाहों का पहरा था..।
"देख बेटा पढ़ ले चुप मार कै.. म्हार धोरै है ही के इन दो आखरां के सिवा.. देख तेरे माम्मा पढ़ गे तै सहर मैं आगे.. सकूटर भी ले लिया.. अर रंगीन टेलीविजन बी.. मतलब किती दो पैसे का रुजगार लग ज़्यावै तै म्हारा बी पिंड छुटै इस द्याहडी मजूरी तै.. दिखे किसी की लड़ाई मैं मत बडिये.."
"पर माँ म्हारे गाम के रुघनाथ के नै तै बहोत मारे सुमेर कै जब वो रामलीला मैं आया.. हाँ पर रुघनाथ के का सकूल छुट ग्या.."
"अरै उनका के है किते और नाम लिखवा लेगा.. ना बी पढ़ेगा तै बैठ कै खा लेगा ज़मींदार है वे.. भतेरा मुआवजा मिला है.. चालीस-पचास तै कमरा किराये पै दे राख्या हैं.. दौ सौ रपिया महीना एक कमरा का मान लें तो बी आठ्यां हजार पडै है.. अर हम के हैं..? पूरे दिन चिणाईं पै ईंट गारा-मसाला माटी ढोवै तै बीस रुपल्ली.. वे भी हाड़े खा कै"
सहमा सा वह बालक भी हिसाब लगा लेता और थोड़ा और घुन्नापन ख़ुद में भर लेता। संकल्प लेता कि "मैं हाथ नहीं उठाऊँगा..। कोई एक गाल पर मारे तो दूसरा भी आगे कर देना है.. इतिहास के शिक्षक का गाँधी जी वाला वाक्य वह मंत्र की तरह दोहराता।
मामूली कहा सुनी, गाली के अलावा दसवीं के उस साल वह दूसरी वारदात थी उसके साथ। वह नवीं कक्षा में फर्स्ट आया था। बाल सभा में उसे ईनाम मिलने वाला था। कक्षा अध्यापक तो जे. सी. शर्मा थे, गणित पढ़ाते थे परन्तु भूगोल के शिवलोचन राम ने पहले ही दिन कह दिया था– "ऐसा है बेटा कल बाल सभा में फर्स्ट, सैकिंड, थर्ड आने वाले बच्चों को पुरस्कार दिया जायेगा.. आधी छुट्टी में ही पूरी हो जायेगी ये सोचकर नागा मत कर लेना.. कभी कहीं काम-दिहाड़ी पर निकल जाओ.." बालक हैरान कि यह दिहाड़ी वाली बात कैसे पता इनको। उन्होंने भाँप लिया, बोले–
"अरे बेटा वो तुम्हारे गाँव का नम्बरदार का लड़का है ना उसने मुझे सब बता रखा है कि कितने बुरे हाल हैं तुम्हारे गाँव में अपने लोगों के.. अब तो ज़मीनें भी बिकती जा रही हैं.. ख़ैर.."
बालक को याद आ गया। दस रुपये प्रति रिक्शा माटी, नंबरदार के प्लाट में डालने की बात हुई थी। माँ ने भरवाया, धक्का लगाया, उसने रिक्शा चलाया। बड़ढे यानी जहाँ कभी पानी की जोहड़ी रही थी उस जगह से फावड़े से खोदना भरना, लाना और इनके झील बने प्लाट में भरत करना। दो दिनों शनिवार, इतवार में सत्ताईस रिक्शा खोदे, भरे, ढोये, रिताये, री री करके पैसे दिये चौबीस रिक्शा के दौ सौ चालीस.. वो भी चार-पाँच दिन हंडा कर।
बाल सभा में हर कक्षा के तीन छात्रों को पुरस्कार दिये गये। फर्स्ट आने पर उसे किताबों का एक पैकिट दिया गया। बाल सभा समाप्त होते ही जब छात्र बस्ता उठाने कक्षाओं में गये तो वहीं उसे घेर लिया गया
"ला रै ढेड़ के.. साले म्हारे गाम के स्कूल में तै किताब जितैगा..?” सारे वे ही बदमाश, दीवार कूद, चोरी-बीड़ी वाले।
"ले भई थम पढ़ लो..?” कहकर उसने किताबें छिन जाने दीं।
"इब तूं बतावैगा म्हारे तै पढ़णा..?”
"बोला ही किस तरिया..?" कहकर एक ने चपत मार दी.. तब तक अन्य बच्चे भी आ गये थे। चूँकि वह आज का हीरो था इसलिये सबकी उसपर निगाह थी। वह बच गया। दसवीं में कई सैक्शनों के पिचासी बच्चों में से केवल पाँच छात्र पास हुए। वह भी पाँचों में एक परन्तु पिचासी में से अंग्रेज़ी केवल उसी की पास। दसवीं के लिये ग्यारहवीं में फिर सम्मानित किया गया। बाल सभा में पता लगा कि राजपूतों के इस स्कूल में पिछले कई सालों से किसी की भी अंग्रेज़ी पास नहीं हुई थी। दसवीं जैसे कक्षा मात्र नहीं अभयदान थी। फिर अश्वमेघ के अश्व को कोई भी रोकने, थामने वाला नहीं, सिवाये इसके कि अब पिता ने कहना शुरू कर दिया था।
"निरी पढ़ाई तै कुछ ना बणता.. कोई हुनर सीख ले.. इसा कर आई.टी.आई. कर ले..
"इब शनीच्चर ऐतवार अर गर्मी सरदी की छुट्टियाँ मैं तो काम करूं ही हूँ.. मनै कोलिज जाणा है.."
"कोलिज अमीर घरां के बालक ज़्यावै हैं.. म्हारी कि गुंजाइस.. अर वहाँ तै बिगडै है बालक.. रोज तै चक्कू चलै हैं.."
पिता की बातों को अनसुना करने पर उसे गालियाँ मिलतीं मगर वह सब सह जाता।
बाल सभा में उसका नाम पुकारा गया। तालियाँ बजीं। उसे "मेडिटोरियस" घोषित कर वजीफ़ा देने की घोषणा हुई। आज छिनने को कुछ नहीं था तो कक्षा में रखे उसके बैग पर ब्लेड का कट लगा मिला। यह बैग काली जीन का था जो उसके मामा ने लाकर दिया था। बैग की सुन्दरता जैसे चाक हो गई। बिलान्द भर का कट। एक नाम और चस्पा हो गया "मैटाडोर"। उन दिनों मैटाडोर नाम से एक गाड़ी भी चली थी जो टैम्पो से ही मिनी बस जैसी बनाई गई थी। जब बदमाश लड़कों ने पूछा–
"किस चीज का वजीफ्फा मिला है रै तनै..”
बालक चुप सा। एक ने घूँसा बनाकर दोनों होंठ दाँतों में दबाए और जैसे तलवार चाकू घुसाते हैं वैसे ही क्रूर हास परिहास में घूँसा पेट से सटाकर घुसा सा दिया। सारे हँस रहे थे इस अंदाज़ में जैसे मज़ाक कर रहे हों। बालक ने मज़ाक में सहयोग नहीं किया तो मज़ाक ग़ुस्से में बदल जायेगा। इसे वो "हाँस्सी (हँसी) मैं खाँसी" कहते थे–
"बतावै है के साले ढेड़ ..” (ग़ुस्से में) फिर थोड़ी हँसी। "देख ले फेर हाँस्सी मैं खांसी हो ज़्यावैगी.. फेर मत कहिये.. हाँ तो ले.." बाकियों ने भी हँसते हुए समर्थन किया घिरा हुआ बालक उनको समझाने लायक शब्द टोह रहा था। बालक बोला–
"मेडिटोरियस" मतलब.. प्रतिभाशाली.."
सुनकर सारे झुँझलाए। बालक समझ गया कि ये लोग नहीं समझे। दम सा साधकर बोलना चाहा तो एक बोला–
"संस्कृत मैं ना हिन्दी मैं बता.."
बालक को मन ही मन हँसी आई मगर इन हालात में हँसी दुख में बदल गई। तुरन्त बोला–
"मेडिटोरियस मतलब हुश्यार.. मतलब जिसनै अच्छे नंबर ले कै सकूल का नाम पूरे इलाके मैं रोसन कर दिया हो.." बालक बुझता सा चला गया उसकी और गुंजाइश नहीं थी कि इनका नाम रोशन कर सके। परन्तु "सकूल का नाम पूरे इलाके मैं रोसन" ने ज़ादू सा किया। उसका कॉलर छोड़ दिया, उसे भी बक्श दिया।
"अच्छा भई मैटाडोर! कर नाम रोसन म्हारे सकूल का.." कहकर वे चारों पाँचों कक्षा के बाहर निकल लिये।
नवीं से बारहवीं तक वह स्कूल का उल्लेखनीय छात्र बन चुका था। बालसभा में भाषण, गीत आदि और कक्षा का मॉनिटर भी। हालाँकि उसकी बात कोई भी नहीं मानता था परन्तु बोर्ड साफ़ कर देता, शिक्षक की कुर्सी मेज़ झाड़-पोंछ देता, हाज़िरी बनाकर स्टाफ़ रूम में बैठे शिक्षकों को दे आता; शिक्षक सुस्ती से कुर्सी पर बैठा ऊँघ रहा है तो खड़ा होकर किताब में से पाठ की रीडिंग कर देता विशेषकर अंग्रेज़ी की; अंत में शिक्षक उठता और यह कहते हुए चाय पीने निकल जाता–
"हाज़िरी बना के ले आना.. और तुम सब कल इस पाठ के प्रश्न-उत्तर याद करके आना.." बालक सारे कामों में अव्वल रहने का प्रयास करता।
बाहरवीं में शिक्षक दिवस का अवसर। हर कक्षा के मॉनिटर या प्रमुख छात्र को शिक्षक की भूमिका दी गई। बालक को प्रिंसिपल की भूमिका मिली। उस दिन उसने प्रिंसिपल की मेज़ कुर्सी चौतरफा कमरों से घिरे मैदान के उस सिरे पर पेड़ के नीचे लगाई गई, जहाँ से पूरे स्कूल पर नज़र रखी जा सके; वह अदा और शान से प्रिंसिपल का अभिनय कर रहा था, शर्ट पैंट में दबा रखी थी; बड़े भाई के चमड़े वाले काले जूते और आज तो ड्रेस प्रेस भी करवा रखी थी। सबसे ख़ास लग रहा था, घने काले बालों का झब्बेदार पफ़, जिसे वह छज्जा भी कहता। बहुत बार उसे फूँक से उड़ाता भी। वह हर आते-जाते बच्चे को प्रिंसिपल की आवाज़, शैली और भाव-भंगिमा से रोकता टोकता–
"ऐ बच्चे! चलो क्लासरूम! बाहर क्यों घूम रहे हो..? "मेंटेन डिसिप्लिन" अंतिम शब्दों को अंग्रेज़ों जैसे उच्चारण से बोलता।
आता-जाता बच्चा भी इस अभिनय में शामिल हो जाता और बनावटी डर से कहता–
"ज्जी..स्सर पाणी पीण जाऊँ हूँ…"
बालक प्रिंसिपल का जवाब उसी शैली में नत्थी करता और डाँटता–
"अब पानी पीने जाता है.. फिर पिशाब करने आता है.. हरामखोर पढ़ने आता है के यही करने आता है..?"
हँसी का माहौल। स्वयं प्रिंसिपल और अन्य शिक्षक भी इस कुशल अभिनय के कायल हो चुके थे और अब प्रिंसिपल के ऑफिस में शिक्षक दिवस का उत्सव मना रहे थे। बालक प्रिंसिपल बनकर मुस्तैदी से अन्य दिनों से भी अच्छा स्कूल चला रहा था। "दीवार कूद बीड़ी पी राजपूत गैंग" को ख़बर लग गई।
जो जहाँ शिक्षक मॉनिटर बना था वहीं से दौड़ा चला आया। बालक ने देख लिया। भाँप लिया। हर कमरे से निकल कर तैश में ये लोग खूँखार इरादों से लैस, बालक व मेज कुर्सी को लक्ष्य कर तीर की तरह चले आ रहे थे.. जैसे शिकारी जानवर सुनियोजित व्यूह बनाकर घात लगाकर शिकार की तरफ बढ़ते हैं। सबको आते देख बालक काँप गया। परन्तु निडरता का अभिनय भी कर रहा था। सब नज़दीक आते जा रहे थे। उसने प्रिंसिपल रूम की तरफ देखा। केवल एक खिड़की इस तरफ़ खुलती थी, इस समय उस पर भी पर्दा गिरा हुआ था। वह जानता था कि प्रिंसिपल कभी-कभी इस खिड़की पर आकर झाँकते थे। यहाँ गोदरेज की अलमारियाँ लगी थीं। प्रिंसिपल की टेबल दूसरे सिरे पर है। फिर शिकायत करना तो आफ़त को न्योता देना है, कोई शिक्षक स्वतः संज्ञान लेकर डाँट-डपट दे तो मन माँगी मुराद। वह मना रहा था कि कोई शिक्षक कहीं से निकल आये। कोई खिड़की से झाँक ले.. लेकिन नहीं। सबने उसे घेर लिया। चेहरों पर ग़ुस्से और घृणा के भाव, वो लोग भी खिड़की की तरफ़ आशंकित होकर देख रहे थे, जैसे रेकी कर रहे हों। बालक ने माहौल हल्का करने की कोशिश में फिर थोड़ा मज़ाक करना चाहा। वह ख़ुद प्रिंसिपल है तो, बोला–
"आओ जी गुप्ता जी.. शर्मा जी.. आओ.. क्लास जल्दी छोड़ दी क्या.. चाय मँगवाऊ भारद्वाज जी.."
उसे लगा की माहौल हँसी मज़ाक में बदल जायेगा; मगर यह अभिनय तो उन पर वज्रपात था। सुमेर और महीपाल उसकी पीठ की तरफ़ आ गये! अब प्रिंसिपल ऑफ़िस की खिड़की से कोई झाँके भी तो इन लड़कों की पीठ ही नज़र आयेगी..। कोई दसवीं का था कोई ग्यारहवीं का। पर इरादे सबके एक से थे।
प्रेम प्रताप सिंह सामने आ गया और चढ़ता हुआ बोला–
"ईब म्हारे ये दिन आगे.. बणावै तनैं प्रेंसीपल..?” कहकर उसने गिरेबां पकड़कर कुर्सी से उठा दिया। मेज़ को इतनी ज़ोर से धकेला कि उसके पेट पर जा लगी। खड़ा होते ही एक ने उसकी शर्ट खींचकर पैंट में से बाहर निकाल दी बोला–
"बरसट दाबेगा.. बणेगा साहब.. म्हारे गाम मैं ठाकर साहब की जय करे बिना घर के आगे तै बी ना लिकड़ते ढेड़.. अर तू.." हाथों की हरकतों, बातों के तेवर, आँखों की तेज़ी ने बालक को डरा दिया। माँ की बात याद आई– "और तीन चार महीने.. फेर तै पास अर कोलिज.. अर इन नै तो यहीं पड़े रहणा है.." वह मन मसोसकर रह गया हर उठने वाले हाथ पर बचाव की मुद्रा में दोनों हाथ चेहरे के आगे करके बचता। इस उपक्रम में झब्बेदार बालों का पफ़ रेशम सा लहरा गया, मानों किसी हेयर ऑयल या शैम्पू का विज्ञापन है, या फ़िल्म के स्लोमोशन में हीरो के बाल लहराते हैं। एक गंझेड़ी को यह अखर गया। पीछे खड़े लड़कों के कंधों पर से प्रिंसिपल रूम की खिड़की को देखने की कोशिश करते हुए बालक के बाल बाएँ हाथ की मुट्ठी में भर लिये। बालों को झरूड़ते हुए बोला– "बणवाऊं तेरा छज्जा.. जुल्फी बहणच्यो.. पफ़ बणावैगा.. बणेगा प्रेंसिपल.. तेरी बहना कै.." कहकर सिर में ही तीन चार मुक्के मार दिये... जैसे जज ऑर्डर-ऑर्डर करते हुए गेवल (लकड़ी की हथौड़ी) मारता है। बालक चकरा गया। कराह निकल गई। सबने खिड़की की तरफ़ देखा। उनमें से दो-एक साथ गुर्राकर बोले, "चुप्प!! आवाज ना लिकडै.. ना तै बाहर लिकड़ते साले की खाल तार लेंगे.. ईब भाझ ले यहाँ तै.." कहकर उन्होंने उसे धक्का सा दिया। जैसे जान बची हो वह रूआँसा सा अपनी कक्षा की तरफ़। कमरों की खिड़कियों से छात्र ताँक-झाँक रहे थे।
"ओ बेटे आज तै प्रेंसीपल पीट दिया.."
"अर वो बी ड्राईग वाले मास्टर नै.."
"अर योगा वाले नै तै पफ़ का रफ बणा दिया, प्रेंसीपल का पफ़…"
बातें, आवाज़ें खिलखिलाहट। सिर में दर्द। आँखों में आँसू और मन में दबा ग़ुस्सा। कानों में शब्द ज़हर से–
"बहणच्यो.. पफ़ बणावैगा.. तेरी.."
पफ़! पापा मेरा पफ़! बेटे की आवाज़ सुनकर निगम जी अतीत की यात्रा कर वर्तमान में लौटे।
"ठाकुर ध्यान से भाई! लड़के का पफ़ नहीं बिगड़ना चाहिये.. बस कानों पर से छांट दियो थोड़े.. और बाक़ी बराबर कर दियो..." निगम जी सैलून में बेटे की कुर्सी के पीछे खड़े शीशे में उसका माथा निहार रहे थे, जैसे ख़ुद को ही देख रहे हों। बेटा ख़ुशी से सोफ़ा चेयर पर ही उछल पड़ा, बोला– "थैंक यू पापा" और निचले होंठ को आगे कर हवा मारी तो उसका पफ़ अनुमोदन में हिला। उसने हल्के से सिर झटका तो बाल रेशा-रेशा लहराकर पुनः पफ़ बन गया। बेटे से कहा– "स्कूल में ध्यान से रहा कर! बस अपने टीचर्स के सामने ये स्टाईल मत मारना.. ठीक है?”
"ठीक है पापू.." बच्चे ने रीझकर लाड़ से कहा।
निगम जी को बेटे के बालों का पफ़ ताज की तरह लग रहा था। निगम जी ने मोबाइल का डाटा ऑन किया और जय भीम व शिक्षित बनो जैसे मैसेज यहाँ-वहाँ फॉरवर्ड करने लगे। शीशे में बेटा मुस्कुरा रहा था। उससे नज़रें मिलीं तो निगम जी भी गर्व से मुस्कुरा दिये।