विशेषांक: दलित साहित्य

10 Sep, 2020

पन्द्रह दिनों की जी तोड़ मेहनत भागदौड़ और उससे पहले की भी ख़ूब सारी मीटिंग्स मेल मुलाक़ात। पूरे विभाग को ज़िम्मेदारी समझाते हुए विभाग के अध्यक्ष ने कहा, "अबकी बार कोई ग़लती नहीं होनी चाहिए! सब एकदम सटीक समय पर होगा! सबको शार्प टाइम पर पहुँचना होगा! ऐसा ना हो कि मुख्य अतिथि पहले आएँ और आप बाद में पहुँचे!"

थोड़ा साँस लेकर सबकी तरफ़ निहारकर उन्होंने कहा, "और हाँ हमें अपनी संस्कृति का ख़्याल भी रखना होगा! भारतीय संस्कृति की पहचान उसका पहनावा खानपान और आदर सत्कार है इसलिए कपड़े एथनिक लुक में ही होने चाहिएँ! भारतीय परिधान ही सबसे सुंदर होते हैं!"

"जी, जी हाँ सर भारतीयता दुनिया में विशिष्ट है हम इसका उदाहरण पेश करेंगे!" यह बात डॉक्टर दूबे ने कही जैसे उन्होंने विभाग अध्यक्ष का वाक्य हाथों हाथ लपक लिया। 

उनके समर्थन में डॉ. मृदुला शर्मा ने कहा, "महिलाएँ साड़ी पहनेंगी, और पुरुष फ़ॉर्मल पैंट शर्ट! स्वागत में कोई कमी नहीं रहनी चाहिए!"

विभागाध्यक्ष फिर बोले, "और हाँ मंत्री साहब भी आ रहे हैं भव्य स्वागत होना चाहिए सबका! किसी चीज़ की कोई कमी न रहने पाए एक बात और ध्यान रखना चौबे जी! सिंह साहब! मुख्य अतिथि और बाहरी अतिथियों के खा लेने के बाद ही खाना खाएँगे आप लोग! समझ गए सभी?"

सब ने सहमति में गर्दन हिलाई। कइयों को ऐसा लगा जैसे उनके हाथ से प्लेट छीन ली गई हो।

"अब सब अपने-अपने कोऑर्डिनेटर से बात कर लो वह आपको आपका काम समझा देंगे! फोन को साइलेंट मोड पर रखना है! व्हाट्सएप ऑन रखना है," दो घंटे की मीटिंग में इसी तरह की हिदायतें देते हुए पूरे विभाग को समझाया।

दूसरे दिन शहर की प्राईम लोकेशन पर सरकार द्वारा करोड़ों रुपए की लागत से बनाए गए डॉक्टर अंबेडकर सभागार में सभी लोग उपस्थित होने लगे।

जूनियर पहले सीनियर उसके बाद और फिर कोऑर्डिनेटर। प्रत्येक ने अपनी ज़िम्मेदारी अपने से जूनियर पर ठेल दी थी और आराम से आ रहा था। आने का क्रम कनिष्ठ से वरिष्ठता की तरफ़ था, लेकिन बताने का और आगे खड़े रहने का क्रम कनिष्ठ से वरिष्ठ की तरफ़ था।

भव्य सभागार रंग-बिरंगे फूलों, अशोक के पत्तों की लड़ियों से सजा था। जगह-जगह रंगोली बनाई गई थी। डॉक्टर अंबेडकर के साथ ही भगवद्‌ गीता के श्लोक और वेदों के पोस्टर। 

सब पूरे हाल को घूम-घूम कर देख रहे थे क्योंकि सभागार डॉक्टर अंबेडकर के नाम पर था तो उनकी स्मृतियों को तस्वीरों में उनके कहे गए विचारों को दीवारों पर लिख कर सजाया गया था। कार्यक्रम प्रारंभ हुआ।

इस सारे कार्यक्रम का विषय था "मौलिक अधिकार व भारतीयता"।

वक्ताओं ने भारतीय संस्कृति, भारतीय समाज, भारतीय परंपरा में मानव अधिकार के ऐसे-ऐसे सूत्र खोज कर प्रस्तुत किए जो ऐसा लग रहा था पहली बार आविष्कृत हुए हैं। वक्ता इस प्रकार पेश कर रहे थे जैसे वह बहुत दूर की कौड़ी लाये हैं।

दर्शक उन्हें ऐसे स्वीकार कर रहे थे मानो उनके भाग खुल गए हों।

आश्चर्य की बात थी कि उनके वक्तव्य से भारतीय संस्कृति का तो गौरव गान हो रहा था परंतु कोई भी डॉक्टर अंबेडकर का नाम नहीं ले रहा था।

एक आध ने झिझकते शर्माते से हुए नाम लिया भी तो इस भाव से जैसे मुँह का स्वाद ख़राब हो गया हो। हावभाव बिगड़ गए।

इस सारे कार्यक्रम में वह लड़की भी थी जो विभाग का अभी नया-नया हिस्सा बनी थी, उसके मन में डॉक्टर अंबेडकर के लिए कुछ विशेष था। वह इन चीज़ों को समझ पा रही थी।

आपस में जब कोऑर्डिनेटर और कार्यकर्ता बातें कर रहे थे एक दूसरे को मैसेज और कुछ फुसफुसाहट भरी आवाज़ में फोन पर बता रहे थे कि 

"कहाँ हो?" 

"फूल कहाँ रखे हैं?" 

"मालाएँ कहाँ पर रखी हैं?"

"और मुख्य अतिथियों को दिए जाने वाले शॉल-दुशाले कहाँ रखे हैं?"

इन पर उनके जवाब झुँझलाहट भरे होते।

"अरे वह अंबेडकर के स्टेचू के पीछे!"

"अरे वह मूर्ति के पीछे!"

"मूर्ति की बगल में ही तो खड़ा हूँ वहीं आओ!"

नाम के साथ जी या नाम से पहले डॉक्टर लगाना भी उन्हें गवारा नहीं था। लड़की समझ रही थी, चुप थी। इस उम्मीद में भी कि कम से कम लोगों के भीतर का ज़हर बाहर तो आ रहा है।

एक बार ऐसा भी मौक़ा आया कि जूनियर होने के नाते लड़की से पूछा गया कि "मोमैंटो कहाँ पर रखे हैं?"

लड़की ने बताया, "सर वहाँ जो बाबा साहब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर जी की मूर्ति लगी है, उनके पीछे मोमेंटो की पेटी रखी है!"

अब इन लोगों के लिए सोचने वाली बात थी।

सब अज़ीब नज़रों से उसे देखते हुए बातें बनाने लगे। भाव ऐसे जैसे लड़की ने कोई घटिया सी बात कह दी हो। चूँकि सेमीनार का विषय "मौलिक अधिकार" था परंतु यहाँ मानव और मौलिक अधिकार पर संविधान लिखने वाले का नाम नहीं था। न संविधान का कहीं ज़िक्र था।

पूरे कार्यक्रम में संविधान निर्माता तथा संविधान नदारद थे।

केवल भारतीय संस्कृति का स्वर्णिम इतिहास ठाठें मार रहा था।

लड़की सब कुछ बेचैनी के साथ देख रही थी।

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