तुम कहाँ हो गोधन
नीरजा हेमेन्द्र
ऋतुओं का चक्र प्रतिवर्ष की भाँति
परिवर्तन की ओर अग्रसर हो गया है
वसंत जा चुका है
गर्म हवाएँ पूरी सृष्टि को
अपनी गिरफ़्त में लेने लगी हैं
निर्माणाधीन बड़ी बिल्डिंग में
मज़दूरी करने वाला गोधन
कोसों पीछे अपना गाँव छोड़कर कमाने आया है
उसके पास अपने वृद्ध पिता का हाल पूछने
का कोई साधन नहीं है
न फोन . . . न अक्षर ज्ञान
अपढ़ गोधन ठेकेदार से पैसे मिलने की प्रतीक्षा
तीन माह से कर रहा है
गोधन का पिता प्रतिदिन गाँव आने वाली
पगडंडी की ओर निहारता रहता है
वह पिता जो अनभिज्ञ है
अपने उस कर्मठ बेटे की बिल्डिंग की ऊँचाई से
गिर कर दुनिया में न रहने की ख़बर से।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- अंकुरण
- आग
- कोयल के गीत
- कोयल तब करती है कूक
- गायेगी कोयल
- चादरों पर बिछे गये सपने
- जब भी ऋतुओं ने ली हैं करवटें
- जीवित रखना है सपनों को
- तुम कहाँ हो गोधन
- दस्तक
- धूप और स्त्री
- नदी की कराह
- नदी समय है या . . .
- नीला सूट
- पगडंडियाँ अब भी हैं
- परिवर्तन
- पुरवाई
- प्रतीक्षा न करो
- प्रेम की ऋतुएँ
- फागुन और कोयल
- भीग रही है धरती
- मौसम के रंग
- यदि, प्रेम था तुम्हें
- रंग समपर्ण का
- रधिया और उसकी सब्ज़ी
- लड़कियाँ
- वासंती हवाएँ
- विस्थापन
- शब्द भी साथ छोड़ देते हैं
- संघर्ष एक तारे का
- सभी पुरुष ऐसे ही होते हैं क्या?
- कहानी
- कविता-माहिया
- विडियो
-
- ऑडियो
-