मैं कहाँ आ गयी
नीरजा हेमेन्द्र
मैं एक छोटे से शहर सूरजपुर में रहती थी। मेरे बचपन से लेकर विवाह होने तक उस छोटे से शहर के आसपास चारों ओर गाँव बसे थे। गाँव के साथ खेत, बाग़ बग़ीचे से समृद्ध था छोटा शहर सूरजपुर।
मेरा सौभाग्य था कि मैं सूरजपुर में पैदा हुई। वहीं के स्कूल, काॅलेजों शिक्षा प्राप्त की। वहीं पर बड़ी हुई। वहीं से विवाह कर इस बड़े शहर में आयी।
बचपन से मुझे बड़े शहर में आने की अत्यन्त उत्सुकता रहती थी। विवाह होने से पूर्व तक मैं बड़े शहर तो क्या सूरजपुर से बाहर भी कभी नहीं गयी थी। अपने चार भाई-बहनों में सबसे बड़ी मैं थी। अतः ऐसा भी नहीं था कि मुझसे बड़ी कोई मेरी दीदी हो और उसके ससुराल में मैं घूमने गयी हूँ।
बड़े शहर में अपने विवाह की बात सुनकर मैं मन ही मन ख़ुश थी। अपनी ये ख़ुशी मैंने मन में छुपाकर रखी थी। घर में मेरे भाई बहन पूछते कि दीदी, तुम्हें ये विवाह पसन्द है? मैं बिना कुछ बोले दूसरे कमरे में चली जाती।
“वो देखो दीदी शरमा गयी,” मेरे भाई-बहन कह पड़ते। सत्य यह था कि मैं उस समय शरमाती नहीं थी बल्कि अपनी प्रसन्न्ता को छुपाती हुई वहाँ से हट जाती।
बातों-बातों में मुझे यह भी ज्ञात हुआ कि लड़का शहर में नौकरी करता है। उसकी आय ठीक-ठाक है। इसके आगे मुझे कुछ सोचना नहीं था। मेरे सपने भी यहीं तक थे।
मेरे विवाह में कुछ माह शेष थे। ये कुछ माह . . . कुछ पलों की भाँति व्यतीत हो गये। मैं व्याह कर ससुराल के लिए निकल रही थी। विदाई के समय अपना छोटा शहर, अपना घर जहाँ बचपन से लेकर युवावस्था तक व्यतीत हुआ। सबसे बढ़कर घर के दालान में लगा नीम का वो वृक्ष, जिसके नीचे बैठ कर मैं अख़बार और साहित्य की पुस्तकें पढ़ा करती थी तथा वृक्ष पर बैठे रंग-बिरंगे पक्षियों के कलरव सुना करती थी। वो सब कुछ छोड़ कर जाते समय मैं सचमुच बहुत रोई। दिल से रोई।
अपना छोटा-सा शहर छोड़ने में मुझे अत्यन्त पीड़ा हो रही थी। विदाई के समय मम्मी के साथ चलते हुए लाॅन में पहुँच कर मैं चारों ओर देख रही थी। मेरे छोटे शहर में, मेरे घर के आसपास ये सब कुछ देखकर मुझे बहुत रोना आ रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि इन सबको मैं पहली बार देख रही हूँ।
पास-पड़ोस में रहने वाले बड़े-बूढ़े, बच्चे, महिलाएँ मेरी विदाई के समय मुझे विदा करने मेरे घर के दरवाज़े पर खड़े थे। महिलाएँ बारी-बारी मेरे गले लग रही थीं। भेंट-अँकवार कर रही थीं और अपने भीगे नेत्र आँचल के कोनों से पोेंछ ले रही थीं।
उन सब को देख कर मैं फफक-फफक कर रो रही थी। पूरा मुहल्ला ही तो मेरा अपना था। अतः उनके साथ मेरा जुड़ाव-लगाव व रोना सब कुछ स्वाभाविक था।
घर से विदा होकर मेरी गाड़ी ससुराल की ओर चल पड़ी। आज मुझे पीछे छूटता अपना छोटा शहर बहुत अच्छा लग रहा था। ऐसा महसूस हो रहा था जैसे मैं सब कुछ पहली बार देख रही थी। मैं बार-बार रोने लग रही थी। हाथ में पकड़े हुए रूमाल से अपने अश्रु पोंछ ले रही थी।
“तुम अपने शहर से बाहर जाते हुए बहुत रो रही हो। अब दुबारा रोओगी तो गाड़ी तुम्हारे घर की ओर मोड़ देंगे,” मेरे बग़ल में बैठे मेरे पति ने ये बात इस लहजे में कही कि मैं अनायास हँस पड़ी।
फिर भी मैं रोती रही। मेरे पति बार-बार उँगली से न रोने का संकेत कर रहे थे। चार घंटे के सफ़र के पश्चात् मेरी गाड़ी एक बड़े शहर के अन्दर प्रवेश कर गयी। शहर में क्या था? शहर कैसा था? मैंने कुछ भी नहीं देखा।
मैं अभी तक मायके व अपने उस छोटे से शहर की स्मृतियों से बाहर नहीं निकल पायी थी। शहर में घूमते हुए कुछ देर पश्चात् गाड़ी ससुराल के द्वार पर पहुँच गयी।
ससुराल में मेरा स्वागत् नयी बहू के समान हुआ। सब कुछ अच्छा था। घर में सास-ससुर एक छोटी ननद रहते थे। मेरे पति के बड़े भाई दूसरे शहर में नौकरी करते थे अतः परिवार के साथ वहीं रहते थे। उनके दो बच्चे थे जो उनके साथ रहते थे।
शहर के मुख्य मुहल्ले में मेरे पति का दो मंज़िला मकान था। जो कि बड़ा नहीं था। किन्तु छोटा भी नहीं था। एक मध्यमवर्गीय परिवार के स्तर का घर था। नीचे के हिस्से में ड्राइंगरूम को मिला कर तीन कमरे तथा एक रसोई थी। ऊपर के हिस्से में दो कमरे, एक बालकनी, एक छोटा रसोईनुमा कमरा था जो प्रयोग नहीं होता था। उसमें घर की बेकार वस्तुएँ रखी जाती थीं। बाथरूम और टाॅयलेट ऊपर और नीचे दोनों हिस्से में थे।
कुल मिलाकर मेरे ससुराल का घर अच्छा था। घर में सबका स्वभाव बहुत अच्छा था। मेरे पति तो बहुत हँसमुख स्वभाव के थे। बड़ी से बड़ी बात और घर की किसी समस्या में पहले हँसी का प्वाइंट ढूँढ़ते फिर उस समस्या का समाधान भी ढूँढ़ते। मैं अपने पति के व्यवहार से संतुष्ट थी।
कुछ दिन ससुराल में ख़ूब मन लगा। मेरे पति के बड़े भाई जो कि दूसरे शहर में रहते थे, उनके बेटे का जन्मदिन था। मेरी सासू माँ और ससुर जी को उन्होंने बुलाया।
“वहाँ गुड्डू (मेरे जेठ जी का घर का नाम) का घर छोटा है यही कारण है कि वो बच्चों के जन्मदिन इत्यादि में सबको नहीं बुलाता,” मेरी सासू माँ ने कहा।
“इस बार मैं और गुड़िया (मेरी छोटी ननद) जा रहे हैं। गुड़िया के पापा यहीं रहेंगे,” सासू माँ ने आनी बात पूरी करते हुए कहा।
ये सब कुछ मैं ससुराल में पहली बार देखसुन रही थी। सब कुछ समझने का प्रयत्न कर रही थी। दूसरे दिन सासू माँ और मेरी ननद तीन बजे दिन वाली ट्रेन से चले गये।
मैंने पतिदेव से पूछा कि मम्मी और गुड़िया कब तक आएँगे?
“कम से कम सप्ताह भर तो वो वहाँ रहेंगी ही। भइया ने रोक लिया तो हो सकता है एक-दो दिन और रुक जाएँ.” मेरे पति ने बहुत आराम से कहा।
पति की बात सुनकर मेरी चिन्ता बढ़ गयी। घर के काम मम्मी, गुड़िया और मैं तीनों मिलकर करते थे। मम्मी-पापा चले जाते तो उतनी परेशानी न होती। मैं और गुड़िया मिलकर घर का सारा काम सम्हाल लेते। इनके कार्यालय चले जाने के पश्चात् मैं गुड़िया के साथ रहती। दिन भर गुड़िया से इधर-उधर की बातें और गपशप करती, सारा दिन कट जाता।
गुड़िया मेरे साथ घर के कार्यों में भी सहयोग करती। भाभी . . . भाभी करती हुई दिन भर मेरे आगे-पीछे डोलती रहती। गुड़िया मेरी सहेली जैसी हो गयी थी।
मम्मी जी न जाने क्यों उसे लेकर चली गयीं। पापा जी के साथ चली जातीं तो कितना अच्छा रहता। अब तो अकेले मुझे आठ-दस दिन काटने ही थे। सारा दिन काम में लगी रहती तब भी आराम न मिलता। काम वाली आती और झाड़ू-पोछा और बरतन धो कर के चली जाती।
घर में इतने ही काम तो नहीं होते। चाय बनाना, नाश्ता बनाना, भोजन बनाना इन सबको डायनिंग मेज़ पर लगाना। वाशिंग मशीन में कपड़े डालना। धुल जाने पर सूखने के लिए फैलाना आदि अनेक काम करते दिन का पता नहीं चलता। काम करते-करते शाम हो जाती।
अब मुझे मायके की बहुत याद आने लगी थी। विवाह के पश्चात् मात्र एक बार पग फेरे के लिए मायके गयी थी। मात्र दो दिन वहाँ रही थी। पति के साथ गयी और उन्हीं के साथ वापस आ गयी।
विवाह के चार माह ही पूरे होने वाले थे कि अब घर में अकेली थी। मेरे पति दिन भर कार्यालय रहते और ससुर ड्राइंगरूम में समय व्यतीत करते। वो भोजन, चाय, पानी सब कुछ ड्राइंगरूम में ही माँगते। सारा दिन दौड़ते भागते व्यतीत होता।
घर में एक-दो सदस्य कुछ दिनों के लिए चले जाते हैं तो घर के काम कम नहीं हो जाते। ये बात मैं समझ गयी थी। इसी बीच एक दिन सहसा मम्मी का फोन आया।
“तुम्हें बुलाने के लिए तुम्हारे छोटे भाई को भेजने वाली हूँ। इसके लिए दामाद जी को फोन करने वाली हूँ। सोचा दामाद जी से कहने से पूर्व तुमसे बात कर लूँ,” मम्मी का बात सुनकर मुझे रोना आ गया।
“मम्मी मैं कैसे आ सकती हूँ?” कह कर मैंने मम्मी को ससुराल की वस्तुस्थिति से अवगत् कराया। ये सब बातें करते-करते मेरी आवाज़ रूँआसी हो गयी।
“अरे . . . रेेे . . . रे . . . इसमें परेशान होने वाली क्या बात है? कुछ दिनों की बात है। सब आ जाएँगे तब फोनकर बता देना। तुम्हें कुछ दिनों के लिए बुलवा लेंगे। अच्छे-बुरे सभी वक़्त कट जाते हैं। सब के आते ही फिर से सब ठीक हो जाएगा,” मम्मी ने समझाते हुए कहा।
पहली बार मैं घर में अकेली थी। मन नहीं लग रहा था। माँ के घर में भाई-बहनों के साथ हँसना-बोलना, घूमना-फिरना सब कुछ मेरी स्मृतियों में बना रहता। मुझे न ढंग के कपड़े पहनने का मन होता न बालों को सँवारने का।
शाम को मेरे पति घर आये। मैं रसोई में भोजन तैयार कर रही थी। मुझे काम करते देख वे मेरे चेहरे की ओर देखने लगे।
“चाय बनाऊँ?” अपनी ओर पति को देखते पाकर मैंने उनसे पूछा।
“नहीं रहने दो। आज पीने का मन नहीं है। काम हो गया है तो आओ। थोड़ा आराम कर लो,” कह कर मेरे पति कमरे में चले गये।
रसोई का काम लगभग समाप्त था। मैंने अपना हाथ साफ़ किए, आँचल से पसीना पोंछा और अपने कमरे में चली गयी। मेरे पति चुपचाप बैठे थे। मैं भी उनके समीप बैठ गयी।
“आज बाल वग़ैरह नहीं सँवारे हैं। स्वास्थ्य ठीक नहीं है क्या?” उन्होंने पूछा।
“स्वास्थ्य ठीक है,” कह कर मैं चुप हो गयी।
“थोड़ी देर के लिए कहीं घूमने चलें?” मेरे पति ने कहा।
“इस समय? अभी पापा जीे के भोजन का समय हो जाएगा,” मैंने कहा।
“भोजन आने के बाद दे देना। एक दिन कुछ देर हो जाएगी तो पापा कुछ नहीं कहेंगे,” पति ने कहा।
“मैं थक गयी हूँ। फिर किसी दिन चलते हैं। पहले से बता दीजिएगा तो काम समाप्त कर तैयार रहूँगी,” मैंने पति से कहा।
मुझे याद आया कि लगभग चार माह हो गये हैं मेरा विवाह हुए। अब तक एक बार बाहर निकली हूँ। उस दिन मेरे पति एक माॅल में लेकर गये थे। उस दिन एक कप काॅफी पी कर आयी थी। किसी चीज़ की शाॅपिग नहीं की। क्यों कि विवाह में मिली बहुत सारी चीज़ें नयी-नयी रखी थीं। अतः आवश्यकता नहीं थी।
उस दिन मुझे कुछ नहीं पता चला कि मैं घर से कैसे व किधर से माॅल में पहुँची और किन रास्तों से होकर थोड़ी ही देर में घर आ गयी। शहर बड़ा था या छोटा मैं कुछ भी अनुमान नहीं लगा सकी।
चार माह पश्चात् आज पुनः दूसरी बार ऐसे अवसर पर जाने के लिए कहना जब कि घर की देखभाल करने वाली मैं अकेली हूँ।
लगभग दस दिनों पश्चात् सासू माँ और गुड़िया आ गये। घर में जैसे रौनक़ आ गयी।
“बहू, तेरे लिए साड़ी लाये हैं। पसन्द आये तो ले लेना,” सासू माँ कहा।
“मेरे पास साड़ियाँ बहुत है माँ जी। जब आवश्यकता होगी आपसे ले लूँगी,” मैंने मन ही मन सोचा कि आना-जाना कहीं होता नहीं। कपड़ों का ढेर लगा कर क्या करूँगी?
“हाँ बहू, एक बात कहनी थी। तुम्हारी मम्मी का फोन आया था। तुम्हें देखने का उनका मन है। तुम्हें मायके बुलाया है। अब हम आ गये हैं, तुम जब चाहो मिलने जा सकती हो,” मेरी सासू माँ ने कहा।
“ठीक है माँ जी, मैं कल चली जाऊँ?” मैंने शीघ्रता से पूछा। कारण यह था कि मैं स्वयं को बहुत अधिक थका हुआ महसूस कर रही थी। मन में निरसता घर कर गयी थी। इस समय मैं थोड़़ा बदलाव व खुले वातावरण में जाना चाह रही थी।
“ठीक है बहू। पैकिंग कर लो। कल सुबह ही गीतेश (मेरे पति का नाम) तुम्हें छोड़ने चला जाएगा,” मेरी सासू माँ ने कहा।
मुझे आज रसोई के कार्यों से कुछ समय मिल गया। उतनी देर में मैंने सामान पैक कर लिया। सबने भोजन कर लिया और सोने चले गये। मेरी आँखों से नींद कोसों दूर थी। माँ के घर जाने की प्रसन्नता में जैसे सवेरा शीघ्र नहीं हो रहा था। न जाने कब रात्रि में नींद आयी।
सबेरे गीतेश के उठाने के स्वर से मेरी नींद खुली।
“उठो, साढ़े दस बजे की ट्रेन है। तुम्हें मम्मी के घर जाना है कि नहीं?” मेरे पति ने उठाते हुए कहा।
“ओ! छह बज गये। रात में देर से नींद आयी। अब कैसे शीघ्रता से तैयारी करूँ? आप थोड़ा और पहले उठा सकते थे,” मेरी बात सुनकर गीतेश हँस पड़े।
“मम्मी जी मैं क्या कर दूँ? आटा गूँथ दूँ?” वाशरूम से लौट कर मैं सीधे रसोई में गयी।
“नहीं मैं या गुड़िया कर लेंगे,” सासू माँ ने कहा।
सासू माँ के मना करने के बावजूद मैंने घर के लोगों के हिसाब से आटा गूँथा और रोटियाँ सेंकने लगी। कुछ रोटियाँ ही सेंकी थीं कि सासू माँ ने मना कर दिया।
“बस करो बहू। दोपहर में भोजन करते समय गरम रोटियाँ सिंक जाएँगी,” कहते हुए सासू माँ के चेहरे पर प्रसन्नता के भाव थे।
“और कोई काम है मम्मी जी?” गूँथा आटा रखकर मैंने सासू माँ से पूछा।
“नहीं . . . नहीं . . . अब तुम जाओ, तैयार होना है। ट्रेन का समय हो जाएगा,” सासू माँ ने कहा।
प्रसन्न मन से मैं रसोई से निकल कर अपने कमरे में आ गयी और शीघ्रता से तैयार होने लगी।
“नौ बजने वाले हैं। तैयारी हो गयी कि नहीं?” मम्मी जी की आवाज़ रासेई से आयी।
“मैं तैयार हूँ माँ जी, ये भी आ रहे हैं,” मैं झट से एक छोटा बैग और पर्स लेकर बाहर आ गयी।
कुछ ही सेकेण्ड में एक छोटा सूटकेस लेकर ये भी बाहर आ गये।
“चलो, कैब बुक कर दिया है। बाहर निकलो, कैब आती ही होगी। ट्रेन आने से कुछ समय पहले पहुँचना भी है,” गीतेश ने कहा।
मैं मम्मी-पापा के पैर छूकर बाहर गेट पर निकल आयी। गुड़िया भी मेरे गले लगी।
“जल्दी आना भाभी,” चलते-चलते गुड़िया ने कहा।
मैंने मुस्कुरा कर हाँ में सिर हिलाया और कैब में बैठ गयी। ट्रेन में बैठ कर मम्मी को अपने आने की सूचना दे दी।
माँ के घर पहुँच कर मैं चारों ओर भौचक्क हो कर देखने लगी सब कुछ कितना बदल गया था मात्र छह-सात महीनों में।
कुछ देर ड्राइंगरूम में बैठे थे हम लोग। चाय और मेरी पसन्द का नाश्ता बनवाया था मम्मी ने। मैंने और गीतेश ने बढ़िया से नाश्ता किया।
मैं अपने कमरे में जाने के लिए उठी जो विवाह के पूर्व मेरा हुआ हुआ करता था। मेरा छोटा भाई मेरा सामान लेकर मेरे साथ चला।
“अरे बेटा, इस कमरे में सामान लगा दो। उसमें तो छोटी ने अपना पूरा सामान भर रखा है। उसमें कहीं स्थान नहीं है,” कहते हुए माँ ने गेस्ट रूम में मेरा सामान रखवा दिया।
मेरी बड़ी इच्छा थी अपना कमरा देखने की जिसमें कभी हम और छोटी एक साथ रहते थे। मैंने कमरे के दरवाज़े ही झाँक कर अपना कमरा देखा।
. . . सचमुच छोटी ने अपने सामानों से पूरा कमरा भर रखा था। एक ओर पढ़ने की मेज़, एक ओर कपड़ों की अलमारी, मेरे जाने के बाद एक नया बुकशेल्फ़ भी ले रखा था उसने वो भी एक दीवार से लगा कर रखा था। कमरे के एक साइड में बेड था। उसका भी स्थान बदल दिया था। कमरे में उसके कपड़े बिखरे थे। सजावटी चीज़ों का भी शौक़ अब हो गया होगा उसे अतः अनेक सजावटी चीज़ें भी कमरे में रखी थीं।
छोटी का कमरा देखकर मैं गेस्ट रूम कर ओर बढ़ रही थी तथा मन ही मन सोच रही थी कि माँ ने ठीक ही किया ये बाहरी गेस्टरूम वाला कमरा रहने के लिए देकर। अब मैं अकेली थोड़ी हूँ मेरे साथ गीतेश भी तो है।
माँ के घर मैं एक सप्ताह रही। मुझे छोड़कर गीतेश चला गया था। इस एक सप्ताह में मैं अपनी बहन के साथ उन जगहों को देखने जाती रही जहाँ विवाह पूर्व घूमने-फिरने जाती रही थी। यहाँ तक कि काॅलेज भी गयी। काॅलेज के गेट तक ही नहीं, बल्कि अन्दर गयी। अपना क्लासरूम देखा। सब कुछ वैसा ही था। कुछ भी नहीं बदला था।
“मात्र छह-सात माह में क्या बदल जाएगा? बस मेरे साथ पढ़ने वाले लड़के-लड़कियाँ नहीं दिख रहे है?” मैंने छोटी से कहा।
“दीदी, आप इस काॅलेज की उस वर्ष की अन्तिम बैच की स्टूडेण्ट थीं। वो सारे स्टूडेण्ट पासआउट हो गये हैं। वो सब बाहर सड़कों पर मिलेंगे। काॅलेज के अन्दर सभी नये स्टूडेण्ट हैं,” छोटी ने ऐसे कहा कि मुझे हँसी आ गयी।
“आज मुझे अपने गाँव का वो आम का बाग़ देखना है, जिसमें हम अमिया चुराया करते थे,” अगले दिन मैंने छोटी से कहा।
“हाँ . . . हाँ . . . दीदी चलो। उधर ही चलते हैं। मुझे भी उधर गये हुए बहुत दिन हो गये हैं। जब आप का विवाह नहीं हुआ था तब आपके साथ गयी थी। और हाँ . . . स्मरण है आपको, जब हमें अमिया चुराने का अवसर नहीं मिलता था तब हम सीधे-सादे बनकर माली काका से अमिया माँग लेते थे,” छोटी विगत स्मृतियों को सजीव कर रही थी।
“ये क्यों भूल जा रही है कि जब हम फ्राक की घेर में अमिया भर कर ले आते थे तो मम्मी कितना डाँटती थीं। कहती थीं कि तुम लोगों ने फिर से अमिया की बाग़ से माली से बिना पूछे अमिया उठाया? और मम्मी पूरी अमिया काम वाली काकी को दे देती थीं,” मैंने कहा।
“काकी ले लेती थीं किन्तु कहती थीं कि उनके दुआर पर भी एक आम का पेड़ है, जो इस समय अमियों से भरा है। वो बताती थी कि वो आम आम्रपाली क़िस्म का है जो पकने पर ख़ूब मीठा होता है। जब पक जाएगा तो वे लाकर हमारे घर भी देंगी,” छोटी ने कहा।
इन्हीं सब खट्टी-मीठी यादों के साथ हम बाग़-बगीचा टहलते रहे। बुढ़िया माई का मन्दिर, डाॅक्टर चाचा का अंगूरों का बाग़, पुराने धनाढ्यों के खण्डहर पड़ी हवेलियाँ, अपने शहर का छोटा-सा बाज़ार, पूर्व राजा का महल जिसका मुख्य भाग ताला बन्द रहता है। आधा भव्य हिस्सा हम जैसे लोगों को देख कर आश्चर्यचकित होने के लिए खुला रहता है। उसी महल में एक ख़ूबसूरत पक्का तालाब और वहीं पर एक भव्य मन्दिर भी है। ये सभी स्थान हमारे घर के आसपास ही हैं। अतः हम लोग बचपन में अपने मित्रों के साथ इन्हीं स्थानों पर घूमने-खेलने आते थे। सभी स्थानों की, माँ के घर-आँगन की सभी स्मृतियाँ सहेजने का प्रयास कर रही थी। एक सप्ताह में मैं अपना मायका भरपूर जी लेना चाहती थी।
मुझे प्रतीत होता था कि जीवन के आगे का मार्ग कदाचित् इन्हीं स्मृतियों के साथ सुगमता से तय होगा। अपने ससुराल का बड़ा शहर देखना शेष था। थोड़ी-सी झलक जो मैंने देखी थी उसमें कुछ भी दिखा नहीं था।
एक सप्ताह पश्चात् गीतेश को आना था। एक सप्ताह का अन्तिम दिन अगला दिन ही था जब अवकाश था और गीतेश को आना था। कितनी शीघ्र एक सप्ताह व्यतीत हो गया। मैं मायके में ठीक से कुछ भी देख नहीं पायी और विदा होने का समय आ गया।
मैं गीतेश के साथ ससुराल आ गयी। ससुराल में सब कुछ, पूरी दिनचर्या पूर्व की भाँति चल पड़ी। गीतेश का कार्यालय आना-जाना। मेरे बड़े बेटे का इस दुनिया में आना। और इसी बीच मेरी सहेली जैसी ननद का विवाह हो जाना। सब कुछ पाँच वर्षाें में हो गया।
बड़े शहर में रहते हुए पाँच वर्ष हो गये। बेटा छोटा था। मेरा काम बढ़ गया था। न कहीं आना, न कहीं जाना। यदाकदा बच्चे का सामान लेने पास के बाज़ार में पति के साथ चली जाती। इसके अतिरिक्त बड़े शहर में मैं कुछ अधिक नहीं देख पायी थी। यहाँ तक के मैं घर से कुछ दूर के ही मार्ग से अनजान थी। मुझे अकेले किसी काम से कहीं जाना पड़े तो मैं कदाचित् नहीं जा सकती थी।
समय कुछ और आगे बढ़ा कि छोटी बेटी मेरे जीवन में आ गयी और मैं दो बच्चों की माँ बन गयी।
अब मेरा समय घर-गृहस्थी के कार्यों के साथ दोनों बच्चों के बीच बँट गया। मेरी ननद जो कि घर के कार्यों में मेरी सहायता करती थी वह भी विवाह कर ससुराल चली गयी थी। मेरी सासू माँ घर के कार्यों में मेरी सहायता करना चाहती थीं किन्तु उनकी बढ़ती उम्र इसकी इजाज़त नहीं देता। बहुत कर पातीं तो बच्चों को अपने पास बैठा लेतीं। उसी समय मैं घर के अधिकांश काम निपटा देती।
सासू माँ का इतना सहारा मेरी घर गृहस्थी के लिए बहुत था।
समय आगे बढ़ता जा रहा था। बच्चे भी बढ़ रहे थे। उनकी स्कूलिंग प्रारम्भ हो गयी। समय आगे बढ़ता जा रहा था। ऋतुएँ आती रहीं, जाती रहीं . . . घर के उत्तरदायित्वों को वहन करने की आपाधापी में मुझे कुछ भी अनुभव नहीं हुआ। बच्चे काॅलेज जाने लगे।
भाई के विवाह में मुझे माँ के घर जाना पड़ा। माँ के घर के खुले हरियाली से भरे-पूरे वातावरण में मुझे तो अच्छा लगा ही क्योंकि मेरा बचपन और युवावस्था वहीं व्यतीत हुआ था। मेरे बच्चों को भी यहाँ बहुत अच्छा लग रहा था। मेरे घर पास-पड़ोस के लोगों का आना-जाना लगा रहता था। मेल जोल भी था जिसका बड़े शहर में अभाव था।
ऐसा वातावरण देखकर बच्चे बहुत ख़ुश थे। माँ के घर के प्रांगण में लगा नीम का वृक्ष, वृक्ष पर बैठी चिड़ियों की चहचहाहट, पत्तों की सरसराहट सब कुछ देख कर बच्चे अचम्भित थे।
“मम्मी, हमारे घर में इतना बड़ा वृक्ष नहीं है। वो देखो कितना सुन्दर पक्षी उस डाल पर बैठा है,” मेरे बेटे ने डाल पर बैठे एक पक्षी को दिखाते हुए कहा।
“और भइया, वो देखो कितने सुन्दर पंखों वाला पक्षी छत की मुँडेर पर बैठा है। उसके सिर पर सुन्दर कलगी भी है,” बेटी ने भाई को घर की मुँडेर की ओर दिखाते हुए कहा।
“और कितना सुन्दर है नानी के घर का लाॅन,” दोनों बच्चे एक साथ बोल उठे।
बच्चों की बातें सुनकर मैं मन ही मन मुस्कुरा रही थी। मेरे लिए ये कोई नयी बात नहीं थी। मैं तो बचपन से ही ऐसे खुले, हरियाली से भरपूर वातावरण में पली थी। चार दिनों के अवकाश में बच्चे ख़ूब घूमे। मेरा काॅलेज, छोटे शहर का व्यवस्थित बाज़ार, सब्ज़ीमण्डी में कृषकों को ताज़ी हरी सब्ज़ियाँ बेचते देख बच्चे इतना ख़ुश हो रहे थे कि जैसे सब कुछ पहली बार देख रहे हों। कहाँ वे द्वार-द्वार फेरी लगाते सब्ज़ी वालों को देखने तक सीमित थे।
“मम्मी आपका शहर कितना सुन्दर है। जी चाहता है यहीं रहने लगे,” मेरे बेटे ने कहा।
“नहीं बेटा, पापा जहाँ रहते हैं, उनके बच्चों का भी घर वहीं होता है। अतः हमें पापा के बड़े वाले शहर में चलना होगा,” मैंने बच्चों को समझाते हुए कहा।
“मम्मी, आप मुझे पहले क्यों नहीं नानी के घर ले कर आती थीं,” बेटी ने पूछा।
“मैं पहले भी नानी के घर तुम्हें लेकर आती थी। तुम छोटी थी, इसलिए तुम्हें याद नहीं है बेटा,” मैंने बेटी को समझाते हुए कहा।
“कल पापा आएँगे। हमें अपने घर चलना है। तुम दोनों थोड़ा-थोड़ा अपना सामान समेट लो। शेष सामान कल रख लिया जाएगा,” मैंने बच्चों से कहा।
एक सप्ताह बच्चे नानी के घर रहे। ये एक सप्ताह ऐसे उड़ गये जैसे कुछ पल। अब तो एक ही दिन बचा था। ये कितनी शीघ्र व्यतीत हो जाएगा कि पता भी नहीं चलेगा।
अगले दिन दोपहर में गीतेश आ गये। पापा को देखते ही बच्चों के चेहरे पर जो ख़ुशी आनी चाहिए वो नहीं आयी। मैं समझ गयी कि बच्चे नानी के छोटे से शहर के घर से अपने पापा के बड़े शहर वाले घर जाना नहीं चाहते।
“पापा, हमें कब चलना है?” बेटी ने पूछा।
“आज नहीं चलना है। कल चलेंगे आराम से,” पापा ने कहा।
जाने वाला कल शीघ्र आ गया। माँ के गले लग कर मैं हमेशा की भाँति रोई। मेरा रोना स्वाभाविक हो गया है जो कि मैं हमेशा करती हूँ। इस बार मेरी बच्ची के नेत्रों में अश्रु थे।
“मम्मी, क्या हम नानी के घर कुछ दिन और नहीं रह सकते थे?” हम ट्रेन में बैठे थे। ट्रेन अपनी गति से आगे बढ़ती जा रही थी। मेरे जीवन की भाँति। मेरी बेटी के प्रश्न का कोई उत्तर मेरे पास नहीं था। मैंने उसे गले लगा कर उसके सर पर उसी प्रकार अपना हाथ रख दिया, जैसे मेरी माँ ने मुझे विदा करते समय मेरे सिर पर अपना हाथ रख दिया था।
एक माँ अपने बच्चों के ऐसे प्रश्नों के उत्तर में और क्या कर सकती है? यही मेरे लिए सम्भव था और मैंने यही किया। ट्रेन बड़े शहर की ओर चलती जा रही थी।