बिब्बो
नीरजा हेमेन्द्र
बड़े शहरों को जहाँ बड़े-बड़े बँगले, बिल्डिगें, चौड़ी साफ़ सुथरी सड़कें, माॅल्स, दुकानें, बड़े-बड़े कार्यालयों में कार्य करते अफ़सरों, बाबुओं व व्यापारियों का समूह बड़ा बनाता है, वहीं शहरों को बड़ा बनाने में यत्र-तत्र अवैध रूप से बसी झुग्गी-झोंपड़ियों व उनमें बसने वाले लोगों का भी योगदान कम नहींं है। सही अर्थों में इन तबक़े के लोग ही बड़े शहरों के निर्माणकर्ता हैं।
अवैध रूप से बसी इन बस्तियों में शहरों के आस-पास के गाँवों से आकर रहने वाले लोगों में बहुत से कुशल कारीगर हैं जो जीवनयापन के लिये अपनी झोंपड़ी के कम स्थान में ही रोज़गार का सृजन कर लेते हैं, जिन्हें हम कुटीर उद्योग भी कह सकते हैं।
इस बड़े शहर के पॉश कॉलोनी के मुख्य मार्ग के किनारे क़तारबद्ध रूप से बनी ऊँची-ऊँची बिल्डिंगें हैं। बिल्डिगों के सामने फ़ुटपाथों पर निर्धन वर्ग के लोगों ने छोटी-छोटी तम्बूनुमा झोंपड़ियाँ बना ली हैं। इनमें रहने वाले अधिकांश पुरुष दिन में मज़दूरी करने चले जाते हैं। महिलाएँ आस-पास के घरों में झाड़ू, चौका-बर्तन इत्यादि का कार्य करती हैं।
कुछ महिलाएँ इन फ़ुटपाथों पर ही बाँस की डलियाँ, कपड़ों के खिलौने, गमले, प्लास्टिक के सजावटी फूल इत्यादि बनाने का कार्य करती हैं। ये अपनी बनाई वस्तुओं कों उन्हीं फ़ुटपाथों पर विक्रय हेतु लगा देती हैं। आते-जाते लोग सड़क के किनारे लगी इन आर्कषक वस्तुओं को देख कर आकृष्ट होते हैं, तथा क्रय करते हैं। इनका यह धन्धा ख़ूब चल जाता है।
ऐसे ही एक टेन्टनुमा झोंपड़ी के सामने वह मुझे मिली। उससे मिलने का कारण बने उसके द्वारा बनाये गये वे प्लास्टिक के फूल जिन्हें वह फ़ुटपाथ पर बैठ कर बेच रही थी। साँवला रंग, उलझे बाल जिन्हें कई दिनों से सँवारा न गया हो, रूखे हाथ-पैर, रंगीन छीट का सलवार-कुर्ता, किशोरावस्था की बढ़ती उम्र, लम्बा होता हुआ क़द व अल्हड़-सा मन मस्तिष्क।
मैं न जाने किस आकर्षणवश कई फूलों की दुकानों को छोड़ कर उसके द्वारा बेचे जा रहे फूलों की तरफ़ बढ़ी। गमले में लगे एक आकर्षक प्लास्टिक के फूलों के गुच्छे का मूल्य उससे पूछा। उसने कुछ अनमने व अलसाये हुए हाव-भाव से मुझे मूल्य बताया। मूल्य मुझे उचित लगा और मैंने उससे उसे देने के लिये कहा।
इस बीच उस टेन्टनुमा झोंपड़ी से एक अधेड़ उम्र की महिला सिर निकाल कर बाहर झाँका व उसके सामान बेचने के ढंग से संतुष्ट हो कर पुनः अन्दर चली गई। मैंने उसे पैसे दिये, फूलों को गाड़ी में रखा व चली आयी।
घर में सभी ने उन फूलों को पसन्द किया। मैंने उन्हें उन फूलों को बेचने वाली लड़की के विषय में भी बताया। उसके अल्हड़पन की छाप बहुत दिनों तक मेरे हृदय पर पड़ी रही। इस घटना को व्यतीत हुए दो वर्ष हो चुके थे।
मेरी काम वाली ने अचानक एक दिन बताया कि वह अब काम पर नहीं आ सकेगी क्यों कि उसे गाँव जाना पड़ रहा है। उसके अचानक काम छोड़ कर जाने की बात सुन कर मैं कुछ विचलित-सी हो गयी व उससे कहा कि हो सके तो वह अपनी किसी परिचित महिला को मेरे यहाँ काम पर लगा दे, क्यों कि मुझे ऑफ़िस के साथ-साथ घर के कार्यों को व्यवस्थित रूप से करने में कोई कठिनाई न हो।
दूसरे दिन दरवाज़े की घंटी बजी। दरवाज़ा खोलते ही मेरी काम वाली के साथ एक लड़की खड़ी थी। मुझे समझते देर न लगी कि वह अपनी जगह पर इसे काम पर रखने के लिए लायी है। मैं मन ही मन प्रसन्न हो गयी कि काम वाली मिल गयी और मेरी एक बड़ी परेशानी दूर हो गयी। वह उस लड़की को ले कर अन्दर आ गई व मुझसे उसका परिचय कराते हुए बोली, ”मेम साब! यह बिब्बो है। आज से यह आपका कार्य करेगी। ये यहीं समीप ही नाले पर बने फ़ुटपाथ पर रहती हैं।
“इसका परिवार कई वर्षों से यहाँ रहता हैं। इसकी माँ ने कई बार मुझसे इसे अच्छी जगह काम पर लगा देने के लिये कहा था। यह अच्छा है कि ये आप लोगों के यहाँ काम करेगी तो इसका मन भी लगा रहेगा व धीरे-धीरे कुछ काम भी सीख जायेगी। घर में बेकार बैठी रहती है।” मैंने उस लड़की की तरफ़ ध्यान से देखा। धुँधली स्मृतियों में से उसका परिचय निकल आया। यह तो वही फूलों वाली लड़की है जो फ़ुटपाथ पर फूल बेचा करती थी।
दो वर्षों में यह कितनी बदल-सी गयी है। दो वर्षों के अन्तराल में वह कितनी लम्बी-सी हो गयी है। सामान्य से कुछ अधिक लम्बी। उलझे बालों का स्थान कस कर बँधीं दो चोटियों ने ले ली थी। अल्हड़ व अलसाई-सी दिखने वाली बिब्बो मुझे कुछ सकुचाई लगी। मैंने उसे काम के लिए पूछा तो वह कल से काम पर आने की बात कह कर जाने लगी। मैं उसे जाते हुए देखती रही। उस बिब्बो को देखती रही जो शनैः-शनैः बदल रही थी, एक आकर्षक युवती के रूप में।
अगले दिन से बिब्बो काम पर आने लगी। वह समय से काम पर आती, चुप-चाप से अपना काम करती व चली जाती। प्रारम्भ में डरी सकुचाई-सी रहने वाली बिब्बो हफ़्ते दस दिनों के पश्चात् मुझसे खुलने लगी। यदा-कदा अपनी पारिवारिक बातों से भी मुझे अवगत कराने लगी। उसकी बातों में सुखद कम, दुखद घटनाओं का उल्लेख कहीं अधिक रहता। मेरे यह पूछने पर कि वह इस पढ़ने-लिखने की उम्र में विद्यालय न जा कर घरों में काम क्यों कर रही है? वह उदास-सी हो गयी। तत्पश्चात् एक फीकी-सी हँसी हँस दी। बोली कुछ भी नहीं।
मैंने पुनः पूछा, ”क्या तुम्हारा मन विद्यालय जा कर पढ़ने का नहीं होता।”
पुनः वही फीकी-सी हँसी हँस कर बोली, “पढ़ना? हम पाँच भाई-बहनों में से किसी ने भी पढ़ाई नहीं की है, तो मैं क्या पढ़ाई करूँगी? बचपन में अपनी उम्र की लड़कियों को विद्यालय जाते देख कर मेरा भी मन विद्यालय जाने का होता था। किन्तु मेरा बाप शराबी था न! वह काम कुछ नहीं करता था। माँ ही मेहनत-मजदूरी कर के पाँच बच्चों के साथ ही साथ मेरे पिता का पेट भरती थी,” बिब्बो कुछ सोचती हुई बोल थी। मानो उस बचपन के अपने दिन याद आ रहे हों . . .
वह कुछ पल रुक कर पुनः बोली, ”माँ बताती है कि पहले हम गाँव में रहते थे। दाने-दाने को मोहताज हो जाने के कारण मेरा बाप हम सबको ले कर शहर आ गया। हम सब नाले के किनारे फ़ुटपाथ पर झुग्गी बना कर रहने लगे। हम सब भाई-बहन बचपन से ही काम करते हैं।”
बिब्बो काम करते हुए बताती जा रही थी। “मुझसे बड़ा भाई सड़क किनारे पान मसाले के पाउच बेचता है। मैं, माँ और मेरी छोटी बहन घर पर प्लास्टिक के फूल भी बनाते हैं।”
मैंने कहा, ”तुम बहुत ही सुन्दर फूल बनाती हो। कहाँ से फूल बनाना सीखा?”
“वो तोे मैंने वहीं फ़ुटपाथ पर सीखा। वो लक्ष्मी, रीता, उमा सब बनाती हैं। उन्हीं को बनाते देख कर मैं भी सीख गई।” बिब्बो अपनी धुन में बोली जा रही थी।
. . . ”मेरे पास पैसे भी नहीं थे। सामने बिल्डिंग में मिले अपने काम के पैसों से पहली बार फूल बनाने का सामान लायी थी। किन्तु उस काम में लाभ अधिक नहीं है। लागत की अपेक्षा ग्राहक कम पैसे देना चहते हैं। फ़ुटपाथ पर यह धन्धा करने वाले भी बहुत हो गये हैं। इस कार्य से घर का ख़र्च चलाना मुश्किल होता है।” अनपढ़ बिब्बो की समझदारी भरी बातें सुन कर मैं मुस्कुरा पड़ी।
बिब्बो चुप हो गयी। मैं भी अपने कार्य में व्यस्त हो गयी। मेरे विचारों में कहीं न कहीं मंथन होता रहा कि काश! ये भी समझ पाते शिक्षा का मूल्य। इनमें भी इतनी समझ आ पाती कि बच्चों की शिक्षा हेतु मिलने वाली सरकारी योजनाओं का लाभ फ़ुटपाथ पर झुग्गी बना कर रहने वाले लोग भी उठा पाते।
बच्चों की फ़ीस माफ़ी, मुफ़्त पुस्तकें, बस्ते, यूनीफ़ॉर्म, मध्याह्न भोजन, छात्रवृत्ति इत्यादि का लाभ उठाते हुए ये भी शिक्षा ग्रहण कर पाते तो इनकी आगे आने वाली पीढ़ियाँ ग़रीबी, शोषण व अशिक्षा से अवश्य मुक्त हो पातीं। किन्तु यह सब कुछ एक काश! के साथ दब गया। मैं भी वैचारिक मंथन छोड़कर जीवन के आपा-धापी में व्यस्त हो गयी। रात ढलती, सवेरा आता, बिब्बो भी प्रतिदिन काम पर आती और चली जाती।
शनैः-शनैः डेढ़ वर्ष व्यतीत हो गये। दिन बदले, ऋतुएँ बदलीं किन्तु बिब्बो के जीवन में कुछ भी बदलने वाला न था। वह काम पर आती अपने घर की, भाई-बहनों की, शराबी पिता की, प्रतिदिन रात को होने वाले माँ-पिता की गाली-गलौज की बातें बताती। काम समाप्त करती, घर चली जाती।
उसके जीवन में जैसे सब कुछ अपरिवर्तनशील था, कदाचित् एक चीज़ को छोड़ कर और वह था समय के साथ आकर्षक होता जाता उसका नैसर्गिक सौन्दर्य। किशोरावस्था का वह अल्हड़ पड़ाव जिसके प्रभाव स्वरूप आकर्षक होता उसका शारीरिक गठन व पंखुड़ियों-सा कोमल चेहरा।
एक दिन बिब्बो आयी और अचानक अगले दिन से काम पर न आने में अपनी असमर्थता प्रकट की मैंने उससे कारण पूछा तो अनमनी-सी होकर पारिवारिक मजबूरियों की बातें बताने लगी। यद्यपि उसके काम पर न आने की मजबूरियों की बातों से मैं संतुष्ट नहीं थी। मैंने उसे उसके काम के पैसे दिये। उसने विनम्रता से मुझे अभिवादन किया जैसा कि वह कभी-कभी करती थी। तत्पश्चात् वह चली गयी।
समय अपनी ही गति से व्यतीत होता रहा। ऋतुएँ आतीं रहीं, जातीं रहीं। मुझे तो ये ऋतुयें भी मनोभावों के अनुरूप प्रतीत होतीं हैं। सुख के क्षणें में ख़ुशनुमा ऋतुएँ तो उदासी के क्षणें में उदास-सी प्रतीत होतीं ऋतुएँ। ऋतुओं का प्रकृति के साथ-साथ हृदय से भी गहरा नाता लगता है। उस पर ये वसन्त ऋतु! ये वसन्त ऋतु तो प्राकृतिक सैन्दर्य से परिपूर्ण होने के साथ-साथ विरह की ऋतु भी प्रतीत होती है। अपूर्ण स्वप्न, अपूर्ण इच्छाएँ, समय की गति के साथ पीछे छूटते गये भावनात्मक पल, सब कुछ इस ऋतु में विस्मृतियों के गर्त से निकल कर विस्मृतियों के सुनहरे पंख लगाा कर हमारी कल्पनाओं में उड़ने लगते हैं।
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मार्च का महीना प्रारम्भ हो चुका था। उस साँझ मैं छत पर बैठ कर नीले आसमान में बिखरे हुए प्रकृति के मनोहारी चित्रों को देख रही थी। सूर्य का सुर्ख़ गोला अपनी स्वर्ण-रश्मियों को आसमान में बिखेर चुका था। इन रश्मियों की आभा में बादलों के छोटे टुकड़े सोन बलाक की भाँति आसमान में उड़ रहे थे। तोतों के झुंड कलरव करते हुए पेड़ों की शाखाओं में समाते जा रहे थे। मैं प्रकृति के इस सौन्दर्य में कहीं गुम हो रही थी एक अल्हड़ किशोरी की भाँति। सब कुछ नवीन लग रहा था, किन्तु मैं उम्र का एक पड़ाव पार कर चुकी थी। बच्चे अपनी शिक्षा पूर्ण कर के अपने जीवनयापन हेतु नौकरियों में लग चुके थे। ज़िम्मेदारियाँ कम हुई तो प्रातः सायं कुछ समय भ्रमण के लिये भी निकलने लगा। वरना समय की कमी हृदय की ये साधारण-सी इच्छा भी पूरी न होने देती।
समय कुछ आगे बढ़ा तो गर्मी धीरे-धीरे अपना प्रभाव बढ़ाने लगी। प्रातः की हवा सुखद लगने लगी। मैं प्रतिदिन प्रातः टहलने का लोभ संवरण न कर पाती तथा सैर हेतु दूर-दूर तक निकल पड़ती।
पैदल टहलते-टहलते मार्ग में जीवन के अनेक रूपों से साक्षात्कार करने का अवसर मिलता। कहीं पर तो मार्ग के किनारे छोटी-छोटी गुमटियों व ठेलों में चाय वग़ैरह बेचने वाले दिन की तैयारियों में व्यस्त दिख जाते, तो कहीं गुमटियों, ठेलों के पास झाड़ू लगाते, अंगीठियाँ सुलगाते किशोरवय बच्चे रुआँसी शक्लों में काम करते मिल जाते। जो हमारी विकास प्रक्रिया पर प्रश्न चिह्न की भाँति प्रतीत होते।
तो वहीं कहीं आस-पास जूठे पत्तलों व कूड़े में प्लास्टिक की पन्नियाँ व गिलास इत्यादि बीनते मैले कुचैले से बच्चे, युवतियाँ व महिलाएँ। जो अपने साथ प्लास्टिक की बोरियाँ ले कर घूम-घूम कर हम सभ्य लोगों द्वारा शहर भर में फैलाये गये कूड़े से कबाड़ बीनते दिख जाते। उस दिन इन्हीं दृश्यों से दो चार होती हुई मैं टहलते-टहलते दूर निकल आयी।
सहसा कबाड़ बीनती दो महिलाओं के बात चीत के स्वर कानों से टकराये। उनमें से एक महिला द्वारा दूसरी महिला के संबोधन के स्वर को सुन कर मैं पीछे मुड़े बिना न रह सकी। वो महिलाएँ बस कुछ क़दमों की दूरी पर खड़ी थीं। बातचीत में वो महिलाएँ एक दूसरे के नाम का संबोधन भी करती जा रहीं थीं। उनमें से एक संबोधन था बिब्बो।
इस संबोधन से मुझे वर्षों पहले के एक नाम का स्मरण हो आया। मैं उन महिलाओं की शक्लों में डरते-डरते उस बिब्बो को तलाशने का प्रयत्न करने लगी। मन ही मन यह भी सोचती जा रही थी कि मैली-कुचैली सी दिखने वाली महिलाएँ व कूड़ा बीनने का यह काम! वह बिब्बो यहाँ नहीं हो सकती, किन्तु मेरा हृदय धक् से रह गया जब मैंने देखा कि उनमें से एक महिला वही बिब्बो थी। मैंने उसकी तरफ़ देखा तथा मेरे मुँह से आश्चर्य मिश्रित स्वर में निकल पड़ा, “बि . . . ब् . . . बो!” वह पलट कर मुझे देख कर पहचानते हुए भी देर तक न पहचानने का यत्न करती रही।
मैंने उससे पूछा ”बिब्बो, कहाँ थी तुम इतने दिन?”
उसने मेरी तरफ़ देखा। जीवन के निर्मम यथार्थ से कठोर हो चुके अपने चेहरे पर मुस्कान लाते हुए बोली, ”मैं . . . मैं . . . मेम साब! बहुत परेशानियाँ आ गयीं थीं।” कह कर वह चुप हो गयी व मेरी तरफ़ देखने लगी।
“यदि ऐसा था तो काम छोड़ कर तुम कहाँ चली गयी थी?” मैंने प्रश्नवाचक दृष्टि उस पर डाली।
वह हाथ में पकड़े हुए मैले से बोरे को अपने पैरों के पास रख चुकी थी।
“मैं तो उसके साथ दूसरे शहर चली गयी थी। उसने मुझसे विवाह करने की बात कही थी। किन्तु वह शराब पीता था। मुझे मारता-पीटता था, तथा खाना व कपड़ा भी नहीं देता था,” दृष्टि नीचे झुकाये हुए बिब्बो ने जवाब दिया, तथा नीचे ही देखती रही।
मेरे पुनः सन्न रह जाने की बारी थी। तो क्या किसी ने किशोरावस्था में किसी ने उसे बहकाया था? उसका शोषण किया व छोड़ दिया? बिब्बो के काम छोड़ कर जाने का यही कारण था?
मैंने पुनः पूछा, “तुम वापस अपने पिता के घर नहीं गयी?”
“गयी थी। पिता के घर भी गयी थी, किन्तु वह क्या मुझे सहारा देता? शराबी था। मिनट दो मिनट भी घर में रहने न दिया। भगा दिया। पेट की ज्वाला शान्त करने के लिये मैं क्या करती? किसी से भीख तो न माँगती फिरती?” दृष्टि झुकाये ही बिब्बो ने जवाब दिया।
कठोर हो चुके उसके चेहरे पर मुझे कभी-कभी पहले-सी मासूमियत के भाव भी दृष्टिगत् हुए।
“आप जैसे भले लोगों के साथ मैंने भी ज़िन्दगी के दो-चार अच्छे दिन जी लिये मेम साब!” कहते हुए बिब्बो ने मेरी तरफ़ देखा।
“रहती कहाँ हो?” मैंने पूछा।
“वहाँ, उस रेल की पटरी के किनारे बसी हुई झुग्गी में। एक बिटिया भी है पाँच वर्ष की,” उसने बताया।
मैं स्तब्ध रह गयी। पूछ बैठी, ”वह कहाँ है? किसके पास है?
“वो! वो झुग्गी के बाहर खेल रही होगी। उसे वहीं अकेले छोड़ कर आती हूँ मेम साब!”
“पढ़ने जाती है?” मैंने पुनः पूछा।
“पढ़ने क्या जायेगी। हम लोगों के भाग्य में पढ़ना कहाँ लिखा है? कुछ बड़ी हो जाएगी तो अपने साथ ही काम पर रखूँगी। कुछ पैसे मिल जाएँगे,” बिब्बो ने जवाब दिया।
“अरे! नहीं . . . नहीं . . . उसे मत लाना। उसे पढ़ाना-लिखाना। उसकी क़िस्मत बन जायेगी,” मैंने शीघ्रता से कहा।
मैंने शीघ्रता इसलिये दिखाई कि मुझे लगा कि यदि ऐसा कहने में मैंने विलम्ब किया तो कहीं बिब्बो उसे भी अपनी तरह न बना दे। यद्यपि अपनी इस सोच पर मुझे कुछ हास्य की अनुभूति हुई।
“कौन पढ़ायेगा मेम साब! पढ़ाने के लिये पैसे कहाँ से आएँगे? मैं अकेली क्या कर पाऊँगी उसके लिए? जैसा भाग्य ले कर आयी है वैसे ही जी लेगी मेम साब। जाने दीजिए,” कह कर बिब्बो जाने के लिये मुड़ने लगी।
मैंने तत्काल कहा, “यदि तुम पढ़ाना चाहो तो उसकी पढ़ाई व अन्य ख़र्चोें का उत्तरदायित्व मैं लूँगी। उसका भविष्य अच्छा बनाना है तो तुम्हें मेरा साथ देना होगा। बदले में मुझे कुछ नहीं चाहिए,” मेरे इतना कहते ही बिब्बो पुनः पलट कर मेरी तरफ़ देखने लगी।
“क्या ऐसा हो पाएगा मेम साब? मैं भी उसे ये नारकीय जीवन कहाँ जीने देना चाहती हूँ। मेरी बिटिया अच्छा जीवन व्यतीत करे यह मैं क्यों नहीं चाहूँगी?” बिब्बो ने प्रसन्न होते हुए मुझसे कहा।
“मैं कल तुम्हारे पास आऊँगी। उसका यहीं पास के किसी विद्यालय में नामांकन करवा दूँगी। कल तुम मुझे अपने घर पर मिलना,” मैंने कहा।
“ठीक है मेम साब। आप वहाँ पहुँच कर किसी से भी पूछ लीजिएगा बिब्बो कबाड़न की झुग्गी। मैं घर पर ही रहूँगी तथा आपकी प्रतीक्षा करूँगी।” कहते हुए बिब्बो मेरी तरफ़ देखने लगी। उसकी आँखों में एक चमक थी। आगे बढ़ने की दृढ़ इच्छा का प्रकाश था। वो प्रकाश जो किशोरावस्था में मार्ग दर्शन के अभाव में कहीं विलुप्त हो गया था।
मैं वापस अपने घर की तरफ़ चल दी। मेरा हृदय असीम आत्मसंतुष्टि का अनुभव कर रहा था। मैं सोचती जा रही थी कि ‘यदि मैं एक बच्ची को बिब्बो से बिब्बो कबाड़न बनने से रोक लूँ तो यह मेरे जीवन की अल्प सार्थकता होगी। इसे सार्थक बनाने का अवसर दिया है बिब्बो ने।’ बिब्बो विपरीत दिशा की तरफ़ जा चुकी थी।
आगे बढ़ते अपने क़दमों को रोक कर मैंने पलट कर देखा पीठ पर कबाड़ का बोरा लटकाये बिब्बो तेज़ क़दमों से चली जा रही थी। दूर . . . दूर . . . . . . कहीं दूर।