आग

नीरजा हेमेन्द्र (अंक: 282, अगस्त प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

ये धूप भरे गर्म दिन
तप रही धरती
व्यग्र हो उठती है
किन्तु यह तपिश, यह व्यग्रता कम है
सड़क के किनारे 
ईंट के चूल्हे पर रोटियाँ सेंकते
उस मज़दूर की जठराग्नि से
उसके नेत्रों से निकलने वाली 
अतृप्त आग से
आग जिसे भूख, प्यास व अभावों ने सुलगाया है
व्यवस्था ने हवा दी है
धधकती आग को चूल्हे में समेट कर 
वह सेंक रहा है दो राटियाँ
प्रयासरत् है आग बुझाने के लिए
आग असीमित . . . 

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