दामू . . . एक परिस्थिति
नीरजा हेमेन्द्रप्रतिदिन की भाँति आज भी दामू भोर में उठ गया। उठने के पश्चात् नित्यक्रिया से निवृत्त होने के लिए सीधे खेतों की ओर चला गया। हाथों में लोटा, लोटे में साबुन का टुकड़ा तथा कंधे पर अँगोछा टाँगे वह चला जा रहा था।
अभी वह आगे गाँव के महाजन के खेत में लगे ट्यूबबेल से लोटे में पानी ले लेगा। अँगोछा वहीं किसी वृक्ष की टहनी पर टाँग कर दूर कहीं शौच कर आएगा। लौट कर इसी ट्यूबबेल पर रुक कर नहाकर अपनी मर्दानी (धोती) और बंडी धोएगा। लोटा माँजकर पानी भरेगा। कंधे पर धुली मर्दानी तथा बंडी रखकर, पानी भरा लोटा उठाकर घर की ओर चल देगा।
घर जाकर दामू अपने कपड़े दलान की अरगनी पर सूखने के लिए डालेगा। एक दिन पहले की सूखी धोती कुर्त्ता पहनेगा। जिसे उसकी पत्नी बिगनी ने तहा कर अरगनी के एक कोने में लटका दिया है, तत्पचात् प्रतिदिन की भाँति अपनी चाय-पकौड़ी का ठेला तैयार करेगा।
आज के अपने गीले कपड़े फैलाने के पश्चात् दामू ने अरगनी के कोने से सूखा कुर्ता-बंडी उतार कर पहन लिया।
“हमार धोती कहाँ है हो?” धोती नहींं दिखाई दी तो दामू ने बिगनी से पूछा।
“धोतिया हियाँ खूटी में टँगी है। काल कपड़ा धोये रहे त अरगनिया पर जगही नाही रहे तो खूँटी पर टाँग दिहली,” बिगनी ने कहा।
“ठीक बा,” दामू पर खूँटी पर धोती दिख गयी।
बिगनी ने धोती को चुन्नट करने के बाद थोड़ा-सा घुमा कर ऐंठ दिया था और अरगनी से हटा कर खूँटी में फँसा कर टाँग दिया था।
कपड़े पहन कर तैयार होकर दामू अपना ठेला तैयार करने लगा। सबसे पहले ठेले पर नमक, मिर्च, मसाले, तेल आदि के डिब्बे देखेगा कि आज काम भर का सामान है कि नहींं। कोई सामग्री कम होने पर अपने बेटे बंसी को हाँक लगा कर बुलाएगा तथा गाँव के परचून की दुकान पर सामान लाने भेजेगा। सभी सामग्री व्यवथित कर ठेले पर रखी बोरसी (अँगीठी) में लकड़ियाँ और गोईठें भरेगा। इतनी देर में एक भगौने में थोड़ी प्याज-मिर्च जितने में आज भर की दुकानदारी हो जाय उतनी, प्याज-मिर्च काट कर बिगनी ठेले पर रख देगी।
ठेले पर सभी सामग्री रखकर दामू गाँव के बाहर मुख्य सड़क की ओर ठेला लेकर चल पड़ेगा। सड़क के किनारे अपना ठेला लगा देगा। वहाँ पहुँचकर सबसे पहले अँगीठी सुलगा कर एक ओर चाय का पानी चढ़ा देगा। दूसरी ओर प्याज़ और बेसन, मसाले आदि मिलाकर पकौड़ी के लिए फेंट लेगा। चाय बनते ही तुरन्त तेल की कड़ाही चढ़ा कर पकौड़ियाँ छानकर बड़ी थाली में रख लेता है।
सुबह के नौ बजे तक दामू का ठेला चाय और गर्मागर्म पकौड़ियों से सज जाता है। इसी समय गाँव के दूधिये, सब्ज़ी वाले, शहर जाने वाले मजूर आदि इधर से निकलना शुरू कर देते हैं। चाय और ठेले पर सजी गरम पकौड़िया देखकर उनमें से अधिकांश लोग चाय पीने का लोभ संवरण नहींं कर पाते। गाँव के सामने के इस सड़क पर दामू का ही ठेला लगता है। हाँ, आगे जाकर पड़ने वाले छोटे चौराहे पर चाय, घुघनी और पकौड़ियों के दो-तीन ठेले और अवश्य खड़े रहते हैं।
यहाँ अकेले दामू का ही ठेला लगता है। इस काम से इतनी दामू को इतनी कमाई हो जाती है कि उसके परिवार की दाल-रोटी चल जाती है।
दामू के परिवार में उसकी पत्नी बिगनी के अतिरिक्त दो बेटे बंशी और गोपी हैं। दामू का यह गाँव भटकटैया शहर से दूर स्थित एक पिछड़ा हुआ गाँव है। काम-धंधे का अभाव है यहाँ। रोज़ी-रोटी का मुख्य ज़रिया खेती-बारी है। आसपास के गाँवों में लगने वाले हाट-बाज़ार में यहाँ के लोग अपने खेतों में उगायी सब्ज़ी-तरकारी, अनाज आदि बेच लेते हैं उसी से जीवन व्यापन होता है।
कुछेक बड़े जोतनहारों को छोड़कर। इस गाँव में लगभग प्रत्येक परिवार अभावों में जीता है। पैसों की कमी बनी रहती है। दामू भी कहाँ शाम तक ठेला लगा पाता है। दोपहर बाद सामान ख़त्म हो जाता है और वह ठेला लेकर घर आ जाता है। सामान ख़त्म हो जाने का कारण उसके चाय की अधिक बिक्री नहींं बल्कि थोड़े से सामान के साथ ठेला लगाना है।
”बाबू रोटी ले आये हैं।” दामू ग्राहक के लिए चाय छान रहा था कि बंसी की आवाज़ सुन कर उधर देखा। हाथ में कपड़े का झोला पकड़े बंसी खड़ा था।
”अच्छा . . . अच्छा। हिया धई द,” ठेले के एक कोने की ओर संकेत करते हुए दामू ने कहा।
बंसी ने थैला ठेले पर रख दिया। दामू बाल्टी में रखे पानी को गिलास से निकाल कर हाथ-मुँह धोया और भोजन करने की तैयारी करने लगा। बंसी को अपनी जगह ठेले पर खड़ा कर दिया ताकि इस बीच कोई ग्राहक आये तो चाय पकौड़ी दे सके।
आज भोजन में घर से आलू का चोखा और रोटी आयी थी।
“ई ले के घरै जा। दू-चार गो पकौड़ी अउर पेनी में चाय बचल बा। उ बेच के हमहू आवत बानी।” संतुष्ट भाव से भोजन करने के उपरान्त दामू ने भोजन कर डिब्बा थैले में रखकर दामू को पकड़ाते हुए कहा। थैला लेकर बंसी घर की ओर चला गया।
कुछ ही देर में दो ग्राहक आये दामू की चाय बिक गयी। दो-चार पकौड़ियाँ बच गयी थीं। जिन्हें दामू ने यह सोचकर रख लिया कि नन्दू छोटा है। घर जाने पर दौड़कर वह ठेले के पास आता है। कभी-कभी बची हुई पकौड़ी, घुघनी आदि काग़ज़ में रख कर दे देता है तो नन्दू कितना ख़ुश होता है। घूम-घूम कर खाता है।
दामू ठेला समेट कर घर की ओर चल पड़ा। ठेला दालान में खड़ा ही किया था कि दौड़ता हुआ नन्दू उसके पास आ गया। कौतूहल के साथ ठेले पर रखी सभी वस्तुओं को छू कर देखने लगा। नन्दू को देने के लिए बची हुई पकौड़ियों को दामू काग़ज़ में लपेटने लगा।
“बाबू एगो पकौड़ी हमहूँ के दे द,” ठेले के पास आकर बंसी खड़ा हो गया। दामू ने क्षण भर के लिए बंसी की ओर देखा और दो पकौड़ी निकाल कर बंसी के हाथ पर रख दीं।
दोनों बच्चे पकौड़िया खाने व खेलने में लग गये थे। वे ख़ूब ख़ुश लग रहे थे। आज उन्हें पकौड़ी जो मिली है। ये उन्हें कभी-कभी ही मिलती है। वो भी तब, जब ठेले पर चाय ख़त्म हो जाती है और पकौड़ियाँ बिकने से बच जाती हैं। ठेला किनारे कर दामू हाथ-पैर धोने लगा।
हाथ-मुँह धोते हुए वह सोचता जा रहा था कि काश! चाय पकौड़ियों से इतनी कमाई हो जाती कि एक घानी पकौड़ी घर में अपने बाल-बच्चों के लिए भी ले आ पाता। अभी जो भी कमा कर लाया है उसमें कल के लिए चाय की पत्ती, चीनी और सबसे बढ़कर दूध आएगा। कहने को यह गाँव है। अधिकांश घरों में दुधारू जानवर भी पले हैं। किन्तु बात वही है कि घर चलाने के लिए लोग शहरों में जाकर दूध बेच आते हैं।
यहाँ गाँव में भी दूध शहर जितना महँगा मिलता है। वो भी पहले से बताना पड़ता है तब। नहीं बताने पर पैसों की ख़ातिर लोग पूरे दूध शहर में बेच आते हैं। दामू भी प्रतिदिन सुबह सुमेर के घर एक किलो दूध के लिए कह देता है तब जाकर दूध मिलता है। इसके अतिरिक्त अगले दिन की पकौड़ियों के लिए बेसन, तेल, नमक, मसाले आदि जो भी चीज़ें नहीं है वे सब बनिये के यहाँ से बंसी या बिगनी जाकर ले आते हैं। सारा दिन ठेले पर खड़े रहते-रहते दामू के पैरों में इतनी ताक़त नहीं बचती कि बनिये की दुकान से जाकर सौदा ले आये।
घर के लिए आटा-दाल, आलू, तरकारी, आदि बचे हुए पैसोें से ही आएगा। ये सब करने के पश्चात् दामू के पास पैसे नहीं बचते। कभी-कभी बनिए की दुकान पर उधार लगाने की स्थिति बन जाती है। उस उधार को दूसरे दिन ही चुकता करना होता है। दूसरे चुकता नहीं करने पर बनिया सामान नहीं देता है। यही कारण है कि दामू ठेले पर की सभी सामग्री बेच कर ही घर आता है।
हाथ-मुँह धोकर दामू छप्पर के नीचे खटिया डाल कर पर बैठ गया। आज की कमाई के पैसों का डिब्बा ठेले पर से लाकर हिसाब जोड़ने लगा।
“घर में आलू, प्याज़ अउर तेल ख़त्म है। आटा, चाउर त अईबे करी,” सौदे के लिए दामू को पैसे गिनते देख बिगनी ने कहा।
“जउन तरकारी खये का होवे उहो बता दिह। ले आइब,” हाथ रोक कर दामू को अपनी ओर देखते पा कर बिगनी ने आगे कहा। दामू से घर ख़र्चे का विवरण बता कर बिगनी दालान में लकड़ियाँ उठाने चली गयी।
“अरे ओ बंसी के माई! आज त पइसे कम पड़ रहे हैं। एतना समान ले आवे भर के पइसा नहीं बा,” अपनी मुट्ठी में आज की कमाई पकड़े हुए दामू ने बिगनी से कहा। लकड़ियाँ लिए हुए बिगनी मड़ई के ओसारे में आ गयी और वहीं खड़ी होकर दामू का मुँह देखने लगी। वह जानती है कि ऐसा तो बहुधा होता है।
“कई दिन से तरकारी नाही बनी है। सोचत हैं कि आज तरकारी अउर पाव भर दाल मंगा लेईं। हमन के नाही त बच्चों का तो मन होत है?” निराशा भरे स्वर में बिगनी ने कहा।
“पकउड़ी का सामान मंगावे का है। पकउड़ी का सामान मंगा लेब, त ई सब सामान नाही आ पायी . . . अइस कर तू आटा, चाउर के साथे तरकारी अउर दाल ले के आव। एक किलो चाना (चना) ले लीह। काल घुघनी लगा देब ठेला पर,” दामू ने बिगनी के हाथ में पैसे देते हुए कहा।
क्या करे दामू भी? लोग चाय के साथ पकौड़ी ही लेना पसन्द करते हैं। घुघनी शीघ्र नहीं बिकती। थोड़ी देर में बिकेगी किन्तु बिक जाएगी।
बस इसी प्रकार अभावों . . . संघर्षाें में छोटी-छोटी ख़ुशियाँ तलाशते, उन्हीं ख़ुशियों से संतुष्ट होते हुए दामू के जीवन के दिन व्यतीत हो रहे थे।
सर्दियाँ ढलान पर थीं। माघी नहान, संक्रान्ति आदि सब निपट गया था। फागुन का महीना लग गया था। फगुआ के आने की आहट हवाओं में सुनाई देने लगी थी। सुबह-शाम हल्की ठंड और दिन का मौसम फागुनी होने लगा था। देखेत-देखते बसंत की पंचमी आ गयी। गाँव में और गाँव के बाहर हर
खेत-खलिहाल, पेड़-पौधों, पशु-पक्षी सहित पूरा गाँव फगुआ के रंग में फगुआ गया था। कोई बच्चों के लिए कपड़े बनवाने की जुगत में लगा था तो कोई फगुआ के दिन पूड़ी-कचौड़ी छानने के लिए घी-तेल, मैदे के इन्तजाम में। महँगाई और पैसों की आवश्यकता को देखते हुए दामू ने भी चाय-पकौड़ी के दाम में एक-एक रुपया बढ़ा दिया है।
दामू भी प्रतिदिन की कमाई से कुछ पैसे बचाकर फगुआ पर्व पर ख़र्च करना चाहता है। कुछ नहीं तो दोनों बेटों के लिए नये कपड़े ख़रीदने तथा कुछ और गुंजाइश हो जाए तो बिगनी के लिए भी नयी साड़ी लेना चाहता है। उसकी साड़ी फटने लगी है। जब देखो तब सूई धागे से फटा सिलती रहती है। पर्व के बहाने ही वह उसे एक सस्ती-मद्दी साड़ी दिलाना चाहता है।
अपने लिए वह कुछ नहीं लेगा। परिवार के लोगन के लिए कुछ कर सके, यही बहुत है उसके लिए। पाई-पाई जोड़कर दामू फगुआ के लिए पैसे बचा कर रख रहा था।
फगुआ में एक हफ़्ता शेष रह गया था। गाँव की आबो-हवा बदल गयी थी। फगुनाहट भरी हवा चलने लगी थी। अमराइयों में दिन भर कोयल की कूक सुनाई पड़ने लगी थी। आम के वृक्ष बौर से लद गये थे। गाँव-चौराहों पर होली के लिए गड़े सम्मत में गाँव के बच्चे बीन-बीन कर पतहर, लकड़ियाँ, गोईठें, उपले, कंडे आदि डालते जाते। सबके गली चौराहों के अपने-अपने सम्मत हैं। जिसका सम्मत जितना ऊँचा उतना ही अच्छा।
फगुआ हँसी ठिठोली का भी महीना है। हँसी-हँसी में बच्चे नाटे काका के दुआर पर खड़ी उनकी चारपाई लेकर सम्मत में डालने के भागने लगे थे। शोर मचने पर नाटे काका डंडा लेकर दौड़ाये थे, तब वे चारपाई छोड़ की भागे हैं। जब तक होली नहीं जलती तब तक लोग अपने दुआर पर चौकी-खटिया, लकड़ी-लौना नहीं छोड़ते। हँसी-ठिठोली में न जाने कौन से बच्चों का झुंड उठा कर ले जाये और सम्मत पर रख दे। सम्मतों के चारों ओर लकड़ियों का ऊँचा ढेर लग गया था।
आजकल हवाओं में इतनी मादकता और फगुआ का रंग घुल गया था कि मेहनत मजूरी कर शाम को घर आने के बाद गाँव के पुरुष चौपाल पर एकत्र होकर फगुआ के गीत गाते। किसी के घर से ढोलक आता किसी के घर से खंजरी। जिनके पास वाद्य यंत्र नहीं थे वे लय के साथ ताली बजाकर गीत-मजमें में शामिल हो जाते। बच्चे और युवक भी ख़ूब आनन्द लेते। कोई युवक मस्ती भरा नृत्य कर झूमता तो कोई अँगोछे से घूँघट बनाकर स्त्री का स्वाँग रच कर नृत्य करता।
जैसे-जैसे साँझ ढलती जाती पूरे गाँव के मर्द, बच्चे, बूढ़े सभी चौपाल पर एकत्र हो जाते। देर रात तक ढोल, मजीरा, गीत-गँवनई, होता रहता। गीत-गँवनई वाली यह चौपाल प्रतिदिन पूरे गाँव में स्थान बदल-बदल कर लगती। ताकि मनोरंजन का यह फेरा पूरे गाँव में लोगों के दुआर के समीप पहुँच जाये। सभी लोग इसका आनन्द ले सकें। विशेषकर महिलाएँ, बेटियाँ जो साँझ को घर में रसोई बनाने में व्यस्त रहती हैं, वे भी अपनी दुआर से आड़ में रह कर होली का तमाशा देख सकें।
दामू के गाँव में ही नहीं बल्कि आसपास के गाँवों में भी फगुआ की चौपाल से लोगों के गाने-बजाने की आवाज़ इस गाँव तक आती रहती। मानों पूरा गाँव-जवार फगुआ के रंग में रँग गया था। यह रंग लोगों को कुछ नया करने के लिये उत्साहित-सा कर रहा था। जैसे कह रहा हो कि यही ऋतु है, यही अवसर है कुछ देर के लिए ही सही ख़ुशियाँ के क्षण को जी लो। इसके पश्चात् तो धूप भरे दिन आने वाले हैं जिसमें पूरी प्रकृति बेहाल हो उठती है।
गाँव के ग़रीब-गुरबों के लिए कोई साधारण-सा नया वस्त्र और भर पेट भोजन का मिल जाना ही किसी पर्व की ख़ुशियों को बढ़ाने के लिए पर्याप्त होता है।
आज गाँव का साप्ताहिक हाट लगा था। गाँव के बीचों-बीच जो बाबूजी की बग़िया है हमेशा से उसमें ही हाट लगता चला आ रहा है। सब्ज़ी-तरकारी के अतिरिक्त लकड़ी व लोहे की बनी घरेलू प्रयोग की वस्तुएँ, बेलन, पीढ़ा, खुरपी, कुदाल, डाला-डलिया, खांची-छबना, सूप-डगरा, से लेकर मिट्टी के खिलौने, पीपीरी, बाँसुरी, गट्टा, जलेबी, बताशा, गुड़-भेली सब कुछ हाट में दिख जाता है।
वहीं ज़मीन पर चटाई, चादर बिछा कर कपड़ों की ढेरी लगती है। साड़ी, जम्फर, बच्चों के कपड़े, मर्दानी, कुर्ता, सब कुछ अब हाट में बिकने लगा है। बाहर गाँव के दुकानदार भी हाट में आकर अपनी चीज़ें लगाने लगे हैं। रोज़मर्रा की किसी चीज़ के लिए शहर जाने की आवश्यकता नहीं है। यहाँ तक कि पेट दर्द का चूरन, बुखार भगाने की दवा, हाथ-गोड़ पिराने का तेल सब कुछ हाट में मिलता है।
आज दामू ने सुबह ही बिगनी से कह दिया था ठेला लाने के बाद सब लोग हाट चलेंगे। बिगनी ने दोनों बच्चों का हाथ-मुँह धुलाकर धुली कमीज़ पहना दी थी। जब से बच्चों ने हाट जाने की बात सुनी है तब से ख़ुशी में मारे फूले नहीं समा रहे हैं। दालान में घूम-फुदक कर खेल रहे हैं।
बिगनी ने स्वंय के लिए धराऊँ साड़ी जो कि उसके पास एक ही है, पहनने के लिए निकाल ली हैं। गाँव-गिराव, नाते-रिश्तेदारी या कभी कहीं शादी-व्याह में जाने के लिए यही साड़ी वो पहनती है। नारंगी रंग की यह छींटदार साड़ी बिगनी को पसन्द भी है। साड़ी पहन, चोटी, बिन्दी-सिन्दूर कर वो भी हाट जाने के लिए तैयार हो गयी।
दिन के तीसरे पहर दामू ठेला लेकर वापस लौटा। ठेला दालान में किनारे लगा कर हाथ-मुँह धोया तथा भेली (गुड़) खाकर भर पेट पानी पिया तत्पश्चात् परिवार को लेकर हाट की ओर चल दिया।
इस हफ़्ते हाट में बहुत भीड़ थी। दामू के गाँव के लगभग प्रत्येक परिवार के लोग यहाँ दिख रहे थे। पड़ोस के गाँव के लोग भी दिख रहे थे। होली से पहले की आख़िरी हाट जो लगी थी यह। आज से बस एक हफ़्ते होली को और शेष रह गये हैं। सामान लेने से पहले लोग ख़ूब मोलतोल भी कर रहे थे। कदाचित् कुछ पैसे दुकानदार कम कर दे। दो पैसे बच जायें तो अच्छा। त्योहार के दिन हैं। बचे पैसे किसी ज़रूरत के काम आ जाएँगे। कुछ दुकानदार दो-चार पैसे कम कर दे रहे थे तो कुछ ने दाम पक्के कर दिये थे। एक पाई नहीं कम कर रहे थे।
“अरे भइया, का करीं? सब सामान महंग हो गईल बा। एहिमें हम नमक भर भी मुनाफा नाही लेत हईं। दाम बढ़ा के त बेचत नाही बानी, जो घटा देई,” पैसे कम कराने पर दुकानदार यही कह पड़ते।
दामू ने सबसे पहले बच्चों के लिए कपड़े लेने की सोची और बच्चों के कपड़े की दुकान पर चला गया। बंसी और नन्दू के नाप की कमीज़ें मिल गयीं। दामू ने उनके नाप से थोड़ी बड़ी कमीज़ पसन्द की थी। यह सोचकर कि जतन से रख-रख कर कपड़ों को पहनेंगे। दोनों बेटे बड़े हो जाएँगे तब भी कमीज़ें उनको अंटती रहेंगी। छोटी नहीं पड़ेंगी।
कमीज़ें बड़ी महँगी थीं। दाम सुनकर दामू का हाथ पैसे की अंटी पर चला गया। इतने पैसे में ही सब कुछ ख़रीदना है। दुकान पर देर तक खड़ा सोचता रहा, फिर दूसरी दुकान पर गया। वैसी कमीज़ सभी जगह उतने ही दाम में थी। कहीं कहीं तो दस-पाँच रुपए और महँगी।
लौटकर दामू उसी दुकान पर वापस आया और दोनों लड़कों के लिए एक-एक कमीज ले ली। उसने सोचा कि अब बिगनी के लिए एक साड़ी और जम्फर ले ले। उसके बाद जो पैसे बचेंगे उसमें लड़कों लिए पैण्ट और शेष चीज़ें ख़रीदने की सोचेगा। पैसे की तंगी को देखते हुए बिगनी ने अत्यन्त साधारण छींट की साड़ी और जम्फर पसन्द किया।
बिगनी का साया (पेटीकोट) भी फटकर तार-तार हो गया था। बिगनी ने कहा नहीं किन्तु दामू ने उसे एक साया भी दिला दिया। अब बच्चों की पैण्ट लेने की बारी थी। अतः दामू पैण्ट की दुकान पर गया। पैण्ट के दाम सुनकर उल्टे पैर वापस आ गया। दो क्या एक पैण्ट के पैसे भी नहीं बचे थे उसके पास।
पैण्ट की दुकान छोड़कर वह पैजामे और जाँघिया की दुकान की ओर बढ़ गया। दुकान से बड़ी-बड़ी दो धारीदार जाँघिया लिए और झोले में रख लिया। बहुत दिनों बाद परिवार के साथ हाट आया था। हाट में जलेबी, गट्टे और खुरमे के ठेले भी लगे थे। बच्चे बार-बार ठेलों की ओर देख रहे थे किन्तु एक बार भी खाने की इच्छा प्रकट नहीं कर रहे थे। दामू जानता है कि ये सब चीज़ें खाने का मन बच्चों का होता है अतः दामू ने दस रुपए की जलेबी ले ली।
एक जलेबी दामू ने ली। एक उठाकर बिगनी की ओर बढ़ा दी। शेष बची दो-चार जलेबियों को दोनों बच्चों में बराबर बाँट दिया। बिगनी ने जलेबी लेने से मना किया किन्तु दामू ने हठपूर्वक उसे एक जलेबी दे दी था। सबने जलेबी खाई। बग़िया में लगे ट्यूबबेल पानी पीया और घर की ओर चल दिये। मार्ग में आते-जाते गाँव के लोगों से हालचाल पूछते-पाछते परिवार सहित दामू घर पहुँच गया।
दूसरे दिन से पुनः वही दिनचर्या प्रारम्भ हो गयी। कभी थोड़ी पकौड़ी बनाता तो कभी पैसे कम पड़ जाने पर चाय के साथ ठेले पर घुघनी लगा लेता। होली में चार दिन शेष रह गये थे। आजकल दामू को पैसों की आवश्यकता कुछ अधिक थी तो बिक्री कम हो गयी थी। त्योहार के लिए दो-चार पैसे बचाने के फेर में लोग कभी मात्र सादी चाय पी लेते तो कभी वो भी नहीं। दामू थोड़ी सामग्री बनाता फिर भी बेचने के लिए देर शाम तक ठेले पर खड़ा रहता। घुघनी, पकौड़ी बची रह जाती। अँधेरा घिरने लगता और दामू घर चला आता।
फगुआ के दिन बिगनी सुबह से ही घर के काम में लग गयी थी। झाड़ू-बुहारू दलान लीपने से लेकर अनेक काम थे, जिन्हें बिगनी शीघ्र कर लेना चाहती थी। वह जानती है कि दिन बाहर आते ही होरियारों की टोली रंग खेलने निकल पड़ेगी और दुआर पर काम करते नहीं बनेगा। होरियारे किसी को देखते ही उस पर रंग, मिट्टी, कीचड़-कानो सब फेंकते। साथ ही यह भी कहते कि बुरा न मानो होली है। घर के भोजन में दामू ने आज पूड़ी, छोले और आलू की सब्ज़ी बनवा दी थी। बड़ा त्योहार है आज अच्छा भोजन बनना चाहिए।
गाँव के बच्चे गाँव की गलियों में घूम-घूम का सुबह से ही माटी, कानों (कीचड़), पानी से होली खेल रहे हैं। साथ ही बुरा न मानो होली है का शोर भी करते जा रहे हैं। पैसे वाले घरों में थोड़-बहुत अबीर, रंग भी आया है, वो बच्चों के लिए नहीं है। अबीर, रंग लेकर घर के बड़े-बुज़ुर्ग जब होली मिलने गाँव में निकलेंगे तब एक-दूसरे को उसका टीका लगाकर गले मिलेंगे।
दिन चढ़ने लगा है। अब कहीं-कहीं बड़े बुज़ुर्गों की टोली भी सबके दुआर पर जाकर होली मिलन कर रही है। मुट्ठी में पकड़ी अबीर की पुड़िया से चुटकी में अबीर निकाल कर एक-दूसरे के माथे पर लगा कर गले मिल रहे हैं। कुछ पैसे वाले लोगों के घरों के बाहर बाल्टी में रंग घुली हुई रखी है। पैसे वाले घरों के बच्चे प्लास्टिक की पिचकारियों से हम उम्र से लेकर बड़े-बूढ़े सब पर रंग डाल रहे हैं।
आज के दिन लड़कियाँ, महिलाएँ अपने घरों से बाहर नहीं निकलतीं। एक तो आज घर में काम बहुत रहता है, उस व्यस्तता में कहीं और देखने-समझने का समय नहीं मिलता, दूसरे गाँव में सब कहते हैं कि होली में बुढ़वा भी देवर लगता है। आज के दिन मस्ती के मूड में युवक भी रहते हैं। यही कारण है कि घर के बड़े-बुज़ुर्ग बहू-बेटियों को आज के दिन बाहर नहीं निकलने देते।
गाँव में कई बार ऐसा हुआ है किसी के घर की बहू-बेटी दालान . . . छत पर दिखी और आते-जाते हुरियारों की किसी टोली में से किसी ने मज़ाक भरी फगुआ गा दी। फिर क्या कि रंग में भंग पड़ गया। बहू-बेटी के घर वाले लट्ठ लेकर हुरियारों के साथ गाली-गलौज करने और मारने पर उतारू हो जाते। फिर तो पूरे गाँव की होली के रंग में भंग पड़ जाता। होली बहू-बेटियों का नहीं बल्कि पुरुषों का पर्व बनकर कर रह जाता।
फगुआ बीत गया। दामू ने फगुआ और परेवा के दिन अपना चाय का ठेला नहीं लगाया। इन दोनों दिन गाँव में न तो किसी की दुकान खुलती न ही कोई ठेला आदि लगता। आज तीसरे दिन दामू की चाय कर ठेला सजा।
ठेले कर लेकर वह सड़क की ओर बढ़ गया। सड़क के किनारे पहुँचकर हमेशा की भाँति चाय पकौड़ी बनाकर ठेले पर लगा दिया। कुछ ही देर में दो-तीन लोग चाय पीने आ गये। चाय पीने के साथ ही वो सब आपस में इधर-उधर की चर्चा भी कर रहे थे। दामू भी उनकी इस चर्चा-परिचर्चा में शामिल रहता। आसपास के गाँव-जवार की खोज-ख़बर उसे यहीं मिल जाती।
”अरे भग्गन भइया! एक बात सुनने में आवत है हो,” जगरनाथ ने अपने साथ खड़े चाय पी रहे भग्गन से कहा।
“का बात हो?” भग्गन ने पूछा। जगरनाथ की बात सुनकर दामू भी अचम्भे से जगरनाथ की ओर देखने लगा कि वह भी तो जाने कि जाने क्या बात सुनने में आ रही है?
“चीन देस में कउनों अइसन बेमारी फईली है जबना के लाग गईला पर लोग बचत नाही हैं,” जगरनाथ ने कहा।
“हाँ हो भइया। हमहूँ ई बात सुनत हईं कि कउनो चीन देस है, वोहिमा से ई बेमारी निकसी है। अउर बहुत देसन में ई फईल गयी है,” वहीं खड़े सुखई को भी याद आ गया और उसने भी जगरनाथ का समर्थन करते हुए कहा।
“अच्छा! दई जाने ई कउन बेमारी है? हम त पहिली बेर सुनत हईं,” चन्नर ने कहा।
“अउर ल भइया? सब ओर हल्ला हो गईल बा। अउर तू जनते नाही बाड़? एकर नाव (नाम) किरौना (कोरोना) हवै . . . किरौना,” जगरनाथ ने चन्नर से कहा।
“अच्छा?” चन्नर ने कहा।
दामू सबकी बातें आश्चर्य से सुन रहा था। वह भी तो पहली बार इस बीमारी के बारे में यहीं सुन रहा था।
शाम को घर आकर दामू ने बिगनी को सभी बातें बतायीं। बिगनी आश्चर्य से उसकी बातें सुन रही थी।
“ ईहाँ . . . अपने गाँव-जवार में त ई बेमारी नाही बा?” डरी-सहमी बिगनी ने दामू से पूछा।
“नाही . . . नाही। ई किरउना त चीन देसवा में बा,” दामू ने बिगनी को आश्वस्त करते हुए कहा।
दिन व्यतीत होते जा रहे थे। आजकल दामू के ठेले पर जब भी दो-चार लोग एकत्र होते कोरोना की चर्चा अवश्य करते। यदि किसी के घर में रेडियो है तो वो रेडियो पर समाचार सुनकर नयी-नयी बातें बताता। दामू अचम्भे से सबकी बातें सुनता। घर आकर वहाँ की सब बातें बिगनी से बताता।
दस-पन्द्रह दिन इसी प्रकार और व्यतीत हो गये। प्रतिदिन की भाँति सुबह उठकर दामू आज भी अपना ठेला सजा रहा था।
“अरे भइया दामू . . . कहाँ चल दिये?” ठेला सजने की खटर-पटर की आवाज़ सुनकर बग़ल की अपनी मड़ई से बेचू बाहर निकल आया।
“अउर कहाँ जाईब? रोजी-रोटी के फेर में जात हईं। तू आज मजूरी करै ना गईल?” कड़ाही, छनौटा ठेले पर रखते हुए दामू ने बेचू से पूछा।
दामू जानता है कि बेचू शहर में मजूरी करने जाता है। यह भी कि वह ख़ूब सवेरे ही रोटी का डिब्बा साइकिल पर बाँध कर शहर के लिए निकल पड़ता है। घर से निकलने में यदि विलम्ब हो जाती है तो उसे काम नहीं मिलता। शहर यहाँ से दूर है। पहुँचने में घंटा-डेढ़ घंटा तो लग ही जाता है। आज बेचू अभी तक घर में ही है। प्रतीत हो रहा है आज काम पर नहीं जाएगा।
“मजूरी करै? त तू नाही जानत बाड़ कि किरौना बेमारी बदै सरकार काम-धंधा पर जाये ख़ातिर मना कर दिहलै हई। काम धंधा त छोड़ द घर से बहिरै निकलै के भी मना है। सरकार इहौ कहत बाड़ी कि सब लोग एक-दूसरै से दू-दू गज़ दूर रहें त ई बेमारी नाही होई,” बेचू ने वर्णनात्क ढंग से थोड़े में सब कुछ दामू से बता दिया।
“अच्छा भइया बेचू, ई सब तोहके कइसे पता लाग?” काम करते-करते दामू के हाथ रुक गये थे।
“काल साँझ के सूरन के दुआर पर चौपाल जमी रहै। सब लोग बईठल रहैं। ऊँहैं रेडियो में सब बतावत रहै,” बेचू ने कहा।
“अच्छा भइया। ई बात त हम नाही जानत रहनी। हम काल साझी के आपन ठेला ले के रग्घू के गल्ली के रास्ते घरै आ गईली,” दामू ने कहा।
“हे दई अब का होई?” बड़बड़ाता हुआ बेचू खेतों की ओर निकल गया।
“अरे, सुन हो बंसी के माई। अब पियाज (प्याज़) जिन काट। आज दोकान नाही लागी,” दामू ने दलान से ही बिगनी को आवाज़ देते हुए कहा।
दामू की आवाज़ सुनते ही बिगनी ने प्याज़ काटना बन्द कर दिया। दो-चार प्याज़ वह काट ही चुकी थी।
दामू की बात सुनकर बिगनी बाहर आ गयी। वह उत्सुकता से दामू की ओर देखने लगी कि उसने ठेला लगाने के लिए मना क्यों कर दिया? दामू ने बिगनी से सारी बातें बताईं। थहरा कर दामू अपने दालान में ही खटिया पर बैठ गया।
कुछ देर में बेचू खेतों की ओर से वापस आता दिखाई दिया।
“अरे बेचू, ई बताव सब काम-धंधा बन्द हो जाई, केहू घर से नाही निकली त हम सब का खाईब?” दामू दलान से बाहर आ गया और बेचू से पूछा। बेचू की भी स्थिति दामू जैसी ही थी, रोज़ कमाना-खाना।
“कुछ समझ में नाही आवत है भइया। भगवान जानै कईसै बच्चे पलिहैं। कईसे घर परिवार चली। अबहीं त ये महीना के राशन कोटेदार से मिल रहै। उहौ ख़त्म होवे वाला है,” बेचू ने चिन्तित होते हुए कहा।
“क दिन अइसन बन्दी रही भइया?” दामू के चेहरे पर बेबसी छलक आयी।
“ई बन्दी नाही है। रेडियो में बतावत रहे कि ई का नाव लॉकडाउन है। अबही त दू हफ़्ता अईसन रही। लोग बतावत रहैं कि जदि ई बेमारी ना ख़त्म होई त लॉकडाउन आगे अउर बढ़ सकत है,” बेचू ने कहा।
“केतना दिन अउर बढ़ सकत है भइया?” दामू इस नयी समस्या की पूरी जानकारी ले लेना चाहता था।
“ई कोई नाही बता सकत है। ई त सरकारे बता सकत है,” सिर से बह रहे पसीने को पोछते हुए बेचू ने कहा। बेचू अपनी मड़ईया में चला गया।
दामू घर के भीतर आ गया और बेचू से सुनी सारी बातों से बिगनी को अवगत कराया।
“कोटेदार के ईहाँ से मिलल गेहू के पिसान त दू दिन पहिलै ख़त्म हो गईल। अब त दू दिन से पिसान ख़रीद के आवत बा,” कह कर बिगनी रो पड़ी।
“रोअ जिन। देखत हईं दू-चार दिन के खरचा चलावै भर के पईसा त घर में होईबे करी। ओहि से हम सब नून रोटी खाईब,” बेचू ने बिगनी से ढाढ़स बँधाते हुए कहा। बंसी ने ठेले पर से सारा सामान उतार कर आँगन में लाकर रख दिया और ठेला दालान में किनारे खड़ा कर दिया।
दामू आँगन के कोने में पड़े कड़ाही, छनौटा, मिर्च-मसालों के डिब्बे को कातर दृष्टि से देख रहा था। बिगनी अँचरा के कोने से अपने आँसुओं को पोेंछती जा रही थी।
नीरजा हेमेन्द्र