राजकुमारी 

01-03-2023

राजकुमारी 

नीरजा हेमेन्द्र (अंक: 224, मार्च प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

राजकुमारी तीव्र गति से टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों पर चली जा रही थी। चलते-चलते अस्फुट स्वर में वह स्वयं से बातें करती जा रही थी। वह जब कभी किसी परेशानी में घिरती या कोई कार्य-योजना बनाती तो एकान्त में अपने आप से बातें कर लेती या इसी प्रकार बड़बड़ा लेती है। अपने कार्य की सफलता-असफलता पर मानों स्वयं ही संतुष्ट होने का प्रयास करती। इस प्रकार अपने आप से बातें करना, बड़बड़ाना उसके स्वभाव में घुल-मिल गया था। 

उत्तर प्रदेश के छोटे-से शहर उन्नाव के पुसू का पुरवा नामक गाँव की रहने वाली राजकुमारी निर्धन परिवार की महिला थी। सामान्य से कुछ लम्बे क़द की, दुबली-पतली, गेहुँए रंग की राजकुमारी पुरानी-सी साड़ी पहने प्रतिदिन अपने गाँव पुसू का पुरवा से लगभग ढाई किलो मीटर दूर एक सरकारी प्राथमिक विद्यालय में बच्चों के लिए भोजन बनाने का कार्य करती थी। वह प्रति दिन खेतों के मध्य बनी पतली पगडंडियों से होती हुई विद्यालय जाती तथा उसी प्रकार पैदल वापस अपने गाँव आ जाती। उसका पति रामसमुझ शहर में जा कर मज़दूरी करता। जिस दिन जिस दिन काम न मिलता वह दिन-भर घर में बैठा ऊँघता रहता। उसके आलसी स्वभाव के कारण महीने के पन्द्रह-बीस दिन उसे काम नहीं मिलता या वह काम करना नहीं चाहता। गाँव में रोज़गार नहीं था। इसलिए अधिकांश दिनों वह घर में ही पड़ा रहता। 

राजकुमारी भोर में उठ कर घर के सभी कार्य करने के पश्चात् विद्यालय जाती तथा सायं जब विद्यालय से वापस आती, पुनः घर के कार्यों में जुट जाती। उसके तीन छोटे बच्चे जिनके पालन-पोषण, देख-भाल का उत्तरदायित्व भी राजकुमारी का ही था। उसका पति घर के कार्यो में न रुचि लेता था, न हाथ बँटाता था। 

आज राजकुमारी विद्यालय से वापस घर आयी ही थी। वह काफ़ी थक गयी थी। झोंपड़ी के बाहर बँधी गाय रँभा रही थी। राजकुमारी समझ गयी कि यह गाय को चारा-पानी देने की बेला है और गाय अपने करुण स्वर से चारा-पानी माँग रही है। हिम्मत न होते हुए भी राजकुमारी उठी और नाँदे को साफ़ कर के गाय को चारा-पानी देने का उपक्रम करने लगी। काम करते-करते उसने दालान में लेटे अपने पति की ओर देखा जो ज़मीन पर फटी चटाई डाले सो रहा था। 

राजकुमारी समझ नहीं पा रही थी कि वह आज मज़दूरी करने गया था या यूँ ही सुबह से घर में लेटा है। वह तो भोर में ही उठ कर घर के सारे कार्य करके आठ बजे से पहले विद्यालय के लिए निकल जाती है। सुबह वह घर में था, इस समय भी घर में पड़ा है। जिस प्रकार वह बेसुध हो कर लेटा है, उससे यह प्रतीत हो रहा है कि उसने दारू पी रखी है। वह मवेशियों के स्वर या किसी अन्य आहट से अनभिज्ञ हो कर पड़ा है। उसे इस प्रकार लेटा देख कर राजकुमारी को झुँझलाहट होने लगी। वह अपने भाग्य को कोसने लगी। 

कब तक वह घर-बाहर के सभी उत्तरदायित्वों को अकेले अपने कंधों पर उठाती रहेगी। उसके तीन बच्चें हैं। बड़ा श्यामू दस वर्ष का, दूसरा दीनू आठ वर्ष का सबसे छोटी कजली पाँच वर्ष की है। रामसमुझ इन बच्चों की परवरिश की तरफ़ भी ध्यान नहीं देता न ही न इनके भविष्य की सोचता है। कभी वह घर की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कुछ पैसे माँग लेती तो वह उसे मारने दौड़ पड़ता। शाम होते ही गाँव के अन्तिम छोर पर स्थित शराब की दुकान से सस्ती दारू पी कर घर लौटता। कभी-कभी दिन में भी चढ़ा लेता। 

गाय को चारा-पानी देते-देते राजकुमारी को वे दिन स्मरण हो आये, जब वह पन्द्रह वर्ष पूर्व व्याह कर इस घर में आयी थी। बूढ़े सास-ससुर के दो पुत्रों में रामसमुझ छोटा था। बड़ा पुत्र मज़दूरी की तलाश में शहर गया तो उसने वहीं झुग्गी बना ली, तथा व्याह कर वहीं बस गया। बूढ़े होते सास-ससुर की ज़िम्मेदारी, उनके खाने-पीने, दवा-दारू के साथ उसके अपने तीनों बच्चों की परवरिश का बोझ उसका पति राजकुमारी के कंधों पर डाल कर धीरे-धीरे अपने कर्त्तव्यों से विमुख होने लगा। बिना काम-धंधे के ख़ाली बैठे-बैठे वह गाँव के ग़लत लड़कों के सोहबत में आकर शराब का लती बनता गया। उसकी निराशा व झुँझलाहट का शिकार बनती गयी राजकुमारी। 

घर के कार्यों के बोझ तले दबी-दबी वह कृशकाय हो गयी व बीमार-सी रहने लगी। गाँव के प्रधान की पत्नी से उसकी दुर्दशा देखी न गई और उन्होंने प्रयत्न कर के विद्यालय में बच्चों के लिए भोजन बनाने का काम दिला दिया। इसके बदले जो कुछ पैसे मिलते उससे वह बच्चों की आवश्यकतायें पूरी करने केे लिए कुछ सोच पाती। 

कभी-कभी ऊपर वाला किसी के भाग्य में दुखों का समावेश अधिक मात्रा में कर देता है, उन्हीं में से एक राजकुमारी है। मेहनत-मज़दूरी करके दुर्भाग्य को भगाने का उसका प्रयत्न असफल होता जा रहा है। उसे कभी-कभी अपने नाम के ऊपर भी हास-परिहास करने की इच्छा होती, जब उसके नाम के विपरीत उसका भाग्य उसके सहनशक्ति की परीक्षा लेने को तत्पर रहता। ‘राजकुमारी’ शब्द का अर्थ तो उसके जीवन में कहीं था ही नहींं। कभी-कभी उसे लगता कि यदि वह कुछ पढ़ी-लिखी होती तो इतने दुःख उसके जीवन में कदाचित् न होते। वह इन दुःखों का सामना दृढ़ता से कर सकती। यही सोच कर जब दो पैसे उसके पास आने लगे तो उसने दोनों बच्चों का नामांकन वहीं गाँव के प्राथमिक विद्यालय में करा दिया। 

बच्चों की शिक्षा अनवरत चलती रहे तथा बच्चे भूखे न सोयें इसके लिए वह हाड़-तोड़ मेहनत करती। घर के कार्यों के अतिरिक्त बुआई-कटाई के समय खेतों में पसीना बहाने के बाद किसी तरह घर का ख़र्च चलता। उसका पति तो अपनी कमाई के अधिकांश पैसे दारू में उड़ा देता। इधर कई दिनों से राजकुमारी का स्वास्थ्य ठीक नहींं था। 

चार दिनों तक ज्वर में पड़ी रहने के पश्चात् आज स्वास्थ्य मेें कुछ सुधार की अनुभूति हाने पर राजकुमारी ने घर के बिखरे कार्यों को समेटा। बच्चों के खाने के लिए कुछ बना कर विद्यालय के लिए निकली है। हरे-भरे खेतों के बीच बने पगडंडी पर चलती हुई राजकुमारी स्वभावानुसार स्वयं से बातें करती जा रही थी कि “ऋतुएँ भी कितनी परिवर्तनशील होती हैं। अभी कुछ समय पूर्व तपती गर्मी में वह इन्हीं पगडंडियों पर चलती हुई विद्यालय जाती थी। अब न वो धूप है, न वो गर्मी। अब शरद ऋतु की पुरवाई चलने लगी है। काश! ऋतुओं कर भाँति उसके जीवन में भी कुछ सुखद परिवर्तन हो जाये।” सचमुच ऋतुओं में सुखद परिवर्तन हो चुका है। 

शरद् ऋतु का आगमन के साथ अब प्रातः-सांय गर्म हवाओं के स्थान पर शरीर में सिहरन भर देने वाली ठंडी हवायें बहने लगीं हैं। अब से पूर्व जो खेत सुनसान पड़े रहते थे, उनमें गाय-बछड़े चरते दृष्टिगोचर हो रहे हैं। वातावरण में पशु-पक्षियों का कोलाहल व्याप्त है। कृषक खेतों में में कार्य करते दिखाई दे रहे हैं। सब्ज़ियों व फलों के वृक्ष पुष्पित-पल्वित हो रहे हैं। शरद् ऋतु के आगमन के साथ मानों सम्पूर्ण सृष्टि नवयौवना-सी उल्लसित हो रही हो। ऋतु का यह परिवर्तन दुलहन के नव शृंगार की तरह है-चित्ताकर्षक तथा कर्म को प्रेरित करता हुआ। चहल-पहल भरा वतावरण है। हो भी क्यों न? 

यह पर्वों का माह है। सभी तैयाीरयों में व्यस्त हैं, पर्व मनाने की तैयारियों में। राजकुमारी भी मन ही मन सोचती है कि “वह भी जी भर कर परिश्रम करेगी। अपने बच्चों व बूढ़े सास-ससुर के लिए नये कपड़े बनवायेगी। घर को साफ़-सुथरा करेगी। अपने परिश्रम से अपने घर में हँसी-खुशी के कुछ पलों का सृजन करेगी।” यह सोचते-सोचते वह विद्यालय पहुँची। वहाँ प्रसन्नचित्त हो कर कार्य करती रही। प्रतिदिन की भाँति संध्या चार बजे उल्सित भावों तथा प्रकृति के मनोरम को निहारती हुई राजकुमारी घर पहुँची। घर में भी वह गाय को चारा-पानी देने व अन्य कार्यों में व्यस्त हो गई। 

साँझ धीरे-धीरे ढल रही थी। मवेशी, कृषक सभी घरों को लौट रहे थे। वृक्षों की परछाँइयाँ वृक्षों से भी लम्बी हो कर खेतों में, सड़कों पर, तलैया के ठहरे पानी पर पसर गयीं थीं। सूर्य का पीला गोला वृक्षों के झुरमुट के पीछे छिपना चाह रहा था। इन सबसे इतर राजकुमारी अपना घर संसार सँवारने के संघर्ष में तल्लीन थी। अचानक बाहर से आ रही कुछ कोलाहल की ध्वनियों से उसके कार्य करते हाथ रुक गये। वह घास-फूस के बने दालान से बाहर निकल कर चारों ओर देखने लगी। यह क्या? आठ-दस लोग उसके पति रामसमुझ को पकड़े हुए चले आ रहे थे। रामसमुझ मानों निढाल-सा गिरा जा रहा था। इतने लोग उसे कस कर पकड़े न हाते तो शायद वह भूमि पर गिर जाता। 

राजकुमारी सिहर उठी। वह तो काम पर जाने के लिए घर से बता कर निकला था। अच्छा-भला था, फिर यह क्या हो गया? लोगों ने रामसमुझ को दालान में पड़ी ढीली, टूटी-सी चारपाई पर लिटा दिया और बताया कि ”गाँव के बाहर स्थित देसी शराब के अड्डे पर आज लागों ने जो दारू पी है वह विषाक्त थी। गाँव में कई लागों की हालत चिन्ताजनक है। इसे ले कर शीघ्र चिकित्सक के पास जाओ।”यह सुनते ही राजकुमारी के हाथ-पैर बेजान-से होने लगे। घबराहट के मारे उसके माथे पर पसीने की बूँदें चमकने लगीं। 

गाँव के लोग उसके पति को छोड़ कर जा चुके थे। राजकुमारी को समझ में नहीं आ रहा था। क्या करे, क्या न करे? वह अकेली है। हाँ! अकेली ही तो है वह। कृषकाय शरीर तथा कमज़ोर दृष्टि वाले उसके सास-श्वसुर स्वयं अपनी देख-भाल करने में असमर्थ थे, तो वह राजकुमारी का सम्बल क्या बनते? राजकुमारी चिन्ताग्रस्त होने लेगी कि वह अकेली क्या करेगी? कैसे रामसमुझ को अस्पताल ले जायेगी? वह असहाय-सी इधर-उधर देखने लगी किन्तु कहीं कोई सहारा न दिखा। बच्चे पिता की दुर्दशा तथा माँ का चिन्ताग्रस्त चेहरा देख कर रोये जा रहे थे। राजकुमारी ने बच्चों को चुप कराया। बूढ़े सास-श्वसुर को भी ढ़ाढ़स बँधाया। 

तत्पश्चात् द्रुत गति से वह उठी। सामने पड़ी उपले ले जाने वाली ठेलिया को साफ़ किया। किसी प्रकार रामसमुझ को पकड़ कर उसमें बैठाया और ठेलिया को स्वयं चलाती हुई अकेले अस्पताल की तरफ़ निकल पड़ी। ठेलिया चलाते-चलाते रास्ते में सोचती जा रही थी कि ऊपर वाला क्यों उसकी इतनी परीक्षा ले रहा है? मानों वह ईश्वर से पूछ रही हो कि क्या उसके कंधे इतने सबल हैं कि इतना बोझ उठा सकें। उसने स्वयं ही उत्तर दिया कि ”हाँ! उसके कंधों को समय के थपेड़ों ने इतना सबल बना दिया है कि वह बहुत सारा बोझ उठा सकते हैं। अनवरत् संघर्ष ही उसका भाग्य है और संघर्षों में ही उसे जीवन का मार्ग तलाशना है।” 

राजकुमारी रामसमुझ को एक बार मुड़ कर देखती है। वह चिन्ता से मुक्त, निढाल हो कर ठेलिया में पड़ा था। राजकुमारी और भी तीव्र गति से ठेलिया चलाने लगती है। साँझ शनैः-शनैः रात्रि के रूप में परिवर्तित होती जा रही है। राजकुमारी सुनसान होती सड़क पर ठेलिया ले कर बेतहाशा भागी जा रही है। 

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