प्रेम की ऋतुएँ
नीरजा हेमेन्द्र
आज जब कि मेरे साथ हैं
तुम्हारी स्मृतियाँ शेष
ऋतुएँ तो अब भी आती हैं
गुलमोहर की . . . रंगों की
वासंती हवाओं की . . . और बारिश की
सरसों के पीले पुष्पों भरे खेतों में
पत्तों से झरते पानी की बूँदों में
तुम अब भी मेरे समक्ष आकर
खड़े हो जाते हो
हृदय के के सूने वितान में
अब भी चमक उठता है
एक टूटा हुआ तारा
जिसे देखकर
तुम्हारे हाथों को पकड़े हुए मैंने
इच्छित कुछ माँग लिया था
तुम्हारे साथ व्यतीत वो ऋतुएँ प्रेम की
सिमटती जा रही हैं
तुम्हारी दी हुई डायरी के पन्नों में
पन्नों में खिल उठा है दूर-दूर तक
गुलमोहर के पुष्पों से भरा जंगल
एक नन्ही कोयल के गान से
संगीतबद्ध हो रहा है . . . पूरा का पूरा जंगल
उड़ रहे हैं सर्वत्र . . . गुलमोहर के पुष्प।