खेतिहर
नीरजा हेमेन्द्र
आजकल ऋतु कितनी मनोरम हो रही है। आसमान में बहुधा हल्के-हल्के बादल छाये रहते हैं। कभी-कभी हल्की फुहार, तो कभी संगीत बिखेरती झमाझम बारिश। सब कुछ बहुत अच्छा लग रहा है। विशेषकर एक कृषक की दृष्टि से बुधई को।
सावन माह कुछ दिनों पूर्व अपना हरा-भरा रंग बिखेर कर जा चुका है। सावन माह में बारिश अवश्य कुछ कम हुई किन्तु सावन की छटा इस ऋतु के नाम के साथ जुड़ी रहती है अतः सावन के रंगत में कोई कमी नहीं आयी थी।
इस वर्ष वास्तविक बारिश तो भादों के साथ प्रारम्भ हुई है। एक-दो दिन छोड़ कर लगभग प्रतिदिन बारिश हो रही है। एक लय, एक धार से छप्पर की ओरी से गिरता पानी किसी पर्दे की भाँति प्रतीत होता था। जिसके कारण बाहर का मनोरम दृश्य कभी दिखाई देता, तो कभी पानी के पर्दे के पीछे छिप-सा जाता।
चारपाई बिछा कर दालान में बैठा बुधई दिनभर यह दृश्य देखा करता है। सावन के अन्तिम हफ़्ते जब झमाझम बारिश हुई तो पूरे गाँव-जवार के किसान बारिश के साथ झूम उठे। बुधई के पूरे घर ने मिलजुल कर दोनों खेतों में धान की रोपाई कर पूरी दी है। ये काम पूरा हो जाने से बुधई निश्चिन्त है।
लगभग पूरे गाँव ने अपने खेतों में धान के बेहन बो दिये हैं। सप्ताह-दस दिन पश्चात सभी खतिहर खेतों से खर-पतवार निकालने का काम करेंगे।
बुधई के घर में उसकी पत्नी बिमली, दो बेटे हैं। जिसमें बड़े वाले बेटे का विवाह हो गया है। उसके दो बेटे हैं। एक चार बरस का और दूसरा दो बरस का। बुधई का छोटा वाला बेटा भी विवाह लायक़ हो गया है।
बुधई के डेढ़-डेढ़ बीघे के दो खेत हैं। दोनों खेत पुश्तैनी हैं। यही खेत बुधई के परिवार के भरण-पोषण का साधन है। धान की रोपाई के समय पत्नी और दोनों बेटे तो बुधई के साथ जाते ही हैं। अब तो समय मिलने पर कभी-कभी बहू भी जाने लगी है। बुधई की पत्नी बिमली उसे खेतों में काम करने बहुत कम ले जाती है।
बिमली बहू से कहती है कि घर में ही कुछ कम काम है क्या? भोजन बनाना, बरतन मँजना, कपड़े-लत्ते, झाड़ू-बुहारू के साथ दोनों बच्चों की देखभाल करना। इतना काम कुछ कम है क्या? तुम खेत के काम से थक जाओगी। किन्तु बहू यदा-कदा सब के साथ खेतों पर काम करने चली ही जाती है। बुधई की बहू को खेती बारी का काम भी आता है। बड़ी गुणी बहू है।
बुधई प्रतिदिन की भाँति आज भी दालान में चारपाई पर बैठा था। संतुष्टि के भाव के साथ वह मन ही मन ख़ुश था। इस समय बारिश बन्द थी किन्तु असमान में श्वेत बादलों के टुकड़े इस प्रकार उड़ रहे थे मानों किसी रूई धुनिया ने अपने सारे रूईयों को धुनकर आसमान में उड़ा दिया हो। और श्वेत रूई के टुकड़ों से आसमान भर गया हो।
दालान में बैठा बुधई बारिश के पश्चात् निखर आये सृष्टि के इस मनोरम रूप को निहार रहा था। बारिश में भीगे पछुआ हवा के झोकों से वृक्ष के पत्ते ऐसे लहरा रहे थे मानो वे भी मौसम के प्रभाव में मदमस्त हो रहे हों। और कुछ सप्ताह पूर्व की वो तपती गर्मी विस्मृत कर बैठे हों जब उनके पत्ते पानी के बिना लटके रहते थे। तमाम पत्ते पीले होकर वृक्ष की जड़ों के पास गिर गये थे।
अब नन्हीं-नन्हीं दूबों से पगडंडियाँ हरी-भरी हो गयी थीं। सामने पड़े ख़ाली मैदान में स्वतः उग आये बिरवों पर रंगबिरंगे पुष्प निकल आये थे। उन पुष्पों पर बहुत सारी तितलियाँ न जाने कहाँ से आ गयी थीं। बिना एक क्षण ठहरे प्रत्येक पुष्प के कानों में न जाने क्या कह रही थीं और तुरन्त दूसरे बिरवे की ओर उड़ जा रही थीं। कदाचित् वे भी मौसम के सौन्दर्य की बात कर रही थीं।
बिमली बुधई का भोजन और लोटे में पानी ले कर आयी और दालान में ही चारपाई पर बुधई को देकर जाने लगी।
“अरे, सुनौ, सब बच्चन लोगल को भोजन दे दिया?” बुधई ने बिमली को हाँक लगा कर पूछा।
“हाँ . . . हाँ . . . सबै लोग भोजन कर रहे हैं। अब तुमहू खा लो। हमहू जात हईं भोजन करै,” बिमली ने कहा।
“तुहूँ आपन भोजन इहैं लेके आव। देख केतना नीक लागत बा बाहर,” बुधई ने बिमली से कहा।
“ठीक बा,” कह कर बिमली भीतर से अपनी भोजन की थाली लेकर आ गयी। वहीं ज़मीन पर पीढ़िया रख कर बैठ गयी और भोजन करने लगी।
आज चावल-दाल और तरकारी बनी थी। पूरा भोजन बना था। अन्यथा बहुधा दाल-रोटी या भात-तरकारी ही भोजन में बनता है। क्योंकि खेत में जितनी भी दाल, गेहूँ, धान की पैदावार होती है उसे इस प्रकार प्रयोग किया जाता है कि सभी अनाज पूरे वर्ष चल सकें।
“रोटी नाही बनी थी का?” बुधई ने पूछा। यद्यपि बुधई को चावल पसन्द है। उसके एक तरफ़ के दाढ़ के दाँत टूट गये हैं। इस कारण उसक रोटी खाने में थोड़ी परेशानी होती है। उसने रोटी की बात बच्चों के लिए पूछी।
“नाही। रोटी साँझ के बनी,” भोजन खाते हुए बिमली ने कहा।
ठीक बा,” सहमति में सिर हिलाते हुए बुधई ने कहा।
“लग रहा है आज शाम तक बदरा बरसेंगे,” भोजन कर लेने के पश्चात् बुधई दालान के बाहर हाथ धोने निकला तो आसमान की ओर देख कर बोला।
“हूँ, अब भादों में बरखा ने जोर पकड़ी है। एक-एक दिन छोड़ के बरसे त ठीके बा। धान के सिंचाई होत जाई। साग-भाजी भी ठीक बढ़ी। बहुत पानी न बरसै तबै ठीक बा,” बिमली ने बुधई से कहा।
“हूँ, किन्तु दू-चार दिन भी पानी न बरसै त बित्ते-बित्ते भर बढ़ आयी धान की फसल कुम्हला जाएगी,” बुधई ने कहा।
“हाँ, ठीक कहत हौ। आजकल घाम भी बहुत तेज होत है,” बिमली ने बुधई की बात का समर्थन करते हुए कहा।
दोनों ने मौसम और खेती की बात की। बुधई पानी पी कर चारपाई पर बैठ गया।
“तू आराम कर। अब आज रात बरखा होई त बिहाने घास चिखुरै चलब जा। बिहाने सारा दिन खेत में लाग जाई। दूसरे खेत में भी काम बा। अब त ई पूरै पखवारै काम रही खेत में . . . चलीं तनी बहुरिया के साथे बरतन मंजवा ली। बहुतै काम हो जाला उन पर,” कह कर बिमली अपनी व बुधई की थाली लेकर भीतर चली गयी।
बुधई भी सिर के नीचे अपनी अँगोछी का तकिया-सा बना कर लेट गया। एक झपकी ही आयी थी कि पट् . . . पट् . . . पट् पानी गिरने की आवाज़ के साथ उसकी नींद खुल गयी। बाहर तो बारिश शुरू हो गयी है। साँझ हो गयी है। श्यामल बादलों के कारण साँझ और गहरी प्रतीत हो रही है।
बुधई ने बिमली को आवाज़ दी।
“अरे बाप रे। पानी बरसने लगा। चलौ, भीतर चलौ। साँझ हो गयी,” बिमली ने पानी बरसते देख तो बुधई से कहा।
बुधई ने चारपाई दलान में खड़ी कर दी और बिमली के साथ भीतर आ गया।
“बाबू बाहर का दरवाजा बन्द कर देना। अब ई बारिश में कौन आएगा?” बड़े बेटे ने बुधई से कहा। बुधई ने दरवाज़ा बन्द कर दिया।
घर के भीतर आ कर बुधई आँगन में बैठ गया। आँगन के आधे हिस्से में फूस की मड़ई है। आधा हिस्सा खुला है। खुले हिस्से में बैठ कर घर के कपड़े-बरतन आदि धुलते हैं। हैंण्डपम्प यहीं लगा है तो नहाना-धोना भी यही होता है।
आँगन की मड़ई में चारपाई बिछा कर बुधई बैठ गया। उसके दोनों पोते उसके पास आ कर बैठ गये।
“तोहार ईया (दादी) का करत बाड़ी?” उसने बड़े पोते से पूछा।
“माई के साथे खायका (भोजन) बनावत बाड़ी,” बड़े से पहले ही छोटे पोते ने झट से उत्तर दिया।
“बाबा, हुआँ देख मड़ई से पानी चुवत बा,” कहते हुए बड़ा पोता दौड़ता हुआ गया और रसोई से एक तसला ला कर चू रहे पानी के नीचे लगा दिया।
पोते का काम देख कर बुधई हँस पड़ा। ये क्या पानी तो दूसरी जगह से चूने लगा।
“बाबा इहाँ बाल्टी लगा दीं? बाल्टी ये बेरा खाली बा। दूसरे तसला में माई राटी बनावै खतिर आटा रखले बाड़ी,” बड़े पोते ने पूछा।
“ हँ, लिया के लगा द,” बुधई ने कहा।
वह सोच में पड़ गया, ‘ई मड़ई चुवै लगा। अबही बरखा महीना भर त बरसबै करी। गर्मी के अलावा जाड़े में भी बरसे ला। नयी मड़ईया छवावै क पड़ी।’
“ल हो भोजन कर ल। अबही इहाँ मड़ईया में बईठे लायक नाही रही। कीचड़ में गोड़वा बिछलाये लगी है। पुरानी मड़ईया छावै दू बरस हो गया। छान सड़ गयी है। नयी मड़ईया छवावै लायक हो गईल बा,” कहते हुए कमली ने थाली का भोजन चारपाई पर रख दिया।
दोनों बच्चे भी वहाँ से उठ कर रसोई में भोजन करने चले गये। बुधई का भोजन ख़त्म होते-होते छप्पर कई स्थानों से चूने लगा। यहाँ तक कि चारपाई पर भी पानी चूने लगा।
“अरे ये, मलकिन सुनत हऊ। मड़ईया कई जगही से चूवै लगा हो,” बुधई ने अपनी पत्नी बिमली को आवाज़ दे कर कहा।
“भोजनवा क भईल त कमरे में चली आव। आवत बेरी आपन थरियवो ले के अईह। रात के बेरा अँगनई के बिछलन में के जाई? बदरिया से जबर अन्हार हो गईल बा,” बिमली ने कहा।
बुधई के घर में दो पक्के कमरे हैं। एक में बड़ा बेटा, बहू और दोनों पोते रहते हैं। दूसरे पक्के कमरे में बुधई, बिमली और उसका छोटा बेटा रहते हैं।
बुधई ने तो अपने कमरे में पुआल भर कर बोरियों से बड़ा-सा बिछौना बना लिया है जिस पर तीनों लोग आराम से सो जाते हैं। कभी-कभी दोनों पोते भी बिमली के पास आकर सो जाते हैं।
परेशानी तो बरसात में होती है। अन्य ऋतु में रहने की कमी नहीं है। पक्के कमरे के अतिरिक्त दो मड़ईयाँ भी हैं किन्तु बरसात में मड़ईयाँ कब कहाँ से चूने लगे, पता ही नहीं चलता।
“बरतन बिहान मँजीह दुलहिन। अबही बरखा बन्द नाही भईल बा। अँगने में कीचड़-कानों बहुत है,” बिमली ने बहू से कहा।
भोजन करने के पश्चात् सारे बरतन रसोई में एक कोने में रख कर बहू ने रसोई की कुण्डी बाहर से लगा दी। वह जानती है कि थोड़ी देर के लिए भी रसोई खुली रह जाये तो बिलार रसोई में ढुक (घुस) जाती है।
सवेरे तक कभी रुक-रुक कर, तो कभी तेज़ बरखा होती रही। भोर में बिमली की आँख खुल गयी। प्रतिदिन लगभग इसी समय बिमली की आँख स्वतः उठ जाती है। उठ कर बिमली नित्यक्रिया से निवृत्त होने गाँव की तलैया की ओर जाने लगी।
“तू तलैया से आ गईलू का?” बाहर दलान में बहुरिया मिल गयी।
“हाँ माई। मुँह अँधेरे चल जा त ठीक रहेला। कम लोग रहेला अउर अन्हार में केहू देख नहीं पावेला,” बहू ने कहा। “हम अबहीं नहा ली माई? झीसीं पड़ता। हम भींज गईल बानी।”
“ठीक बा। हम अबहीं आवत हईं,” बिमली ने कहा।
धीरे-धीरे घर के सब लोग उठ कर नित्यक्रिया से निवृत होकर अपने-अपने काम धन्धे में लग गये।
“हमन के खेत में हो आईल जा,” कह कर बुधई अपने दोनों बेटों को लेकर खेत कर ओर चला गया।
“दूनों खेत देख के आईब जा। आवे में अबेर (देर) हो जाई,” बुधई ने बिमली से कहा। और तीनों खेत की ओर निकल गये।
“दुलहिन तू नहा-धो भइल बाड़ू़ रसोई कई ल। हम अँगनई अउर दुआर, दलान लीप लीं। बरखा से बहुत कादों-कीचड़ हो गईल बा। गईया के गोट्ठा भी झाड़े-बहारै के पड़ी,” बिमली ने अपनी बहू से कहा।
“ठीक बा माई। बरतन माँज लेने बानी। चाउर बीन-फटक लेने बाड़ी। तरकारी बता द, का बनी?” बहू ने पूछा।
देख, छप्परा पर एक ठो बड़हन कोहड़ा तूड़े लायक हो गईल बा। उहै तुड़ लियाव अउर सरसों के मसाला में तरकारी बना द . . . एक बात अउर सुन दुलहिन, कोेहड़ावा में पहिले बेटवा से हँसुआ लगवईह,” बहू को बता कर बिमली पोतनहरी बाली बाल्टी ले कर दलान की ओर चली गयी।
बिमली ने यह सोचा कि पहले दुआर अउर दलान पोत ले। खेते से जब तक ऊ लोग आई तब तक सूख जाई। दलान-आँगन सब लीप-पोत कर बिमली नहाने की तैयारी करने लगी।
“माई, खायेका (भोजन) बन गईल बा,” बहू ने बिमली से कहा।
“ठीक बा लईकन के दे द। ऊ सब खा लें,” कह कर बिमली नहाने के साथ बाल्टी भर कपड़े भी धो लाई। दलान की अरगनी में कपड़े डालते हुए सोच रही थी कि इतनी बेर हो गयी। दूनू बेटवा और उनके बाबू अबहीं तक नाही आयें।
. . . उनके बारे में सोचती हुई बिमली भीतर आ गयी। दोपहर बीतने को हो गयी। वह थोड़ी चिन्तित होने लगी।
आँगन में खटिया पर बैठ कर बिमली अपने बाल सुलझाने लगी। बुधिया को भूख लग रही थी किन्तु वह बेटों और बुधई के आये बिना भोजन नहीं करती है। बहू भी उन सब के आये बिना कुछ नहीं खाएगी।
“माई लाव हम तोहार चोटी बना देई,” कह कर बहू ने बुधिया से कंघी ले ली और उसके बालों को ठीक कर के चोटी बना दी।
बुधिया अपनी बहू के साथ दालान में बैठ कर बेटों और पति के आने की प्रतीक्षा करने लगी।
कुछ ही देर में वो आ गये। दालान में बिछी चारपाई पर दोनों बेटे बैठ गये। बुधई नीचे बोरे पर बैठ गया। तीनों के चेहरे थके हुए धूप-छँईया से तप रहे थे। कहते हैं कि सावन-भादों की बदली के बीच की धूप जिसे धूप-छईयाँ कहते हैं वो बड़ी तपाती है।
बिमली ने आसमान की ओर देखा दोपहर जा चुकी थी। तिपहरिया लग गयी थी। प्रतीत हो रहा था कि घंटे-आधे घंटे में पानी बरसेगा।
“घर में रहले पर बुझाला नाही। काल दिन भर आ रात भर में एतना पानी बरसा है कि खेतन का पूरा फ़सल पानी में बूड़ (डूब) गईल बा। अब दई (भगवान) न बरसैं तबै ठीक बा,” बिमली को आसमान ताकते देख कर बुधई ने कहा।
बिमली ने देखा की दोनों बेटों के चेहरे मुरझाए हुए हैं।
“कउनो आपन मेंड त न नाही काट दिया अउर सब पानी हमरे खेत में आ गवा।” दोनों बेटों को चिन्तित देख कर बिमली ने कहा।
“भगवान जाने, कउन का किया? कुछ लउकत नाही बा। ये टेम त मेड़, खेत सब पानी में बूड़ गईल बा। दूनों खेत के इहै हाल बा,” बड़े बेटे ने अपनी माँ के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा।
बेटे की बात सुन कर बिमली भी कुछ देर के लिए सोच में पड़ गयी। तत्काल उसे ध्यान आया कि इन सबने सवेरे से कुछ भी नहीं खाया है।
“अच्छा बाबू, सब लोग उठ जा। हाथ-मुँह धो के भोजन कर ल जा। बहुरिया भी तुम लोगन के अगोरत-अगोरत भोजन नाही की है,” बिमली ने कहा।
“ठीक बा परोस हम लोगन के भोजन,” बुधई ने कहा।
“बुझाता फिर से पानी बरसी। ये बेरा के भोजन सँझलौके बना लीह जा। बरखा में परेशानी होई,” बुधई ने बिमली से कहा।
रात में पानी बरसा। ख़ूब बरसा। अँगना की, अउर दलान की मड़ई चूती रही। जिसके कारण बाहर भीतर कीचड़-कीचड़ हो गया।
“सोचत हईं कि आज अँगना के मड़ईया के ऊपर एक नई छान लगा दीं,” बुधई ने बिमली से कहा।
“आज सारा दिन एके मड़ई के छवाई करै में लाग जाई,” बिमली ने कहा।
“हाँ, त का करीं? पईसा जोड़ पाई त खपरैल के छत बनवाई। मन त पक्का लिंटर डलवावै के बा। पर दू पईसा हाथे में नाही बचेला। एक बेर पक्का बन जा त हरदम के झंझट खत्म हो जाई। किन्तु खेतिहर के ई भाग (भाग्य) कहाँ?” बुधई ने निराशा भरे स्वर में कहा।
उस दिन दिन भर बुधई अपने दोनों लड़कों के साथ बाँस का टट्टर बना कर उस पर सरकंडा बिछा कर, ऊपर से दूसरी बाँस की टट्टर बना कर रस्सी से पूरी छप्पर बाँध कर छान बनाया। लड़कों के साथ मिलकर छप्पर ऊपर चढ़ाया।
इस प्रकार सुबह से लेकर शाम तक एक मड़ई का छप्पर बन पाया। रात को भोजन में रोटी दाल बनी। बरसात में गाँव के सब्ज़ी वाले जहाँ सब्ज़ी लेकर बैठते हैं, वहाँ पानी भर गया था। दूसरे बरसात में खेत से सब्ज़ी तोड़ने कोई खेतिहर नहीं गया। खेतों में अभी भी पानी भरा था। जहाँ कुछ पानी निकल गया था, वहाँ खेत की ज़मीन दलदली थी। उसमें पैर रखने पर सब पौधे टूट जाएँगे। इस कारण सब्ज़ी का जो छोटा बाज़ार लगता था, वो नहीं लगा।
छप्पर छाने के बाद रोटी-दाल खाकर थका हुआ बुधई बेख़बर उसी दलान में चारपाई बिछाकर सो गया। घर के अन्य सदस्य भी भोजन कर के सो गये।
“सुनत हौ, चारपाई पर चादर तो बिछा लेते। निखहरी (बिना चादर बिछी चारपाई) चारपाई पर सो गये,” बिमली ने कहा।
थके हुए बुधई ने कुछ नहीं सुना। वह सिर के नीचे अँगोछी का तकिया बना कर सोता रहा। बिमली भी कमरे में सोने चली गयी। उस रात बारिश नहीं हुई।
प्रातः की भाँति नित्य समय पर बुधई की आँख खुल गयी। बिमली भी तलैया से लौट आयी थी।
“आज रात में पानी नहीं बरसा है। सोच रहे हैं कि खेत में नम मिट्टी हो गयी होगी। घास चिखुरे (हाथ से घास निकालना) लायक माटी हो गईल होई,” बुधई ने बिमली से कहा।
“हूँ ,” बिमली ने कहा।
“जियरा बहुत थक गईल बा हो। खेत जाये के हिम्मत नाही बा। देहियाँ जईसे की टूटता,” बुधई ने कमली से कहा।
“काल दिन भर बेटवा के साथ छप्पर छावत रहल। पहिलै वाला शरीर त रहा नहीं। शरीर के जांगर (ताकत) उमर के साथ कम होत जात बा। कहाँ ले जी तोड़ मेहनत कर पईब?” बिमली ने कहा।
“हाँ, तू ठीकै कहत हऊ। पर काम त करिहै के पड़ी। जब तक ये शरीर में जान है, तब तक काम से कहाँ बच सकत है खेतिहर,” बुधई ने कहा।
“अरे नीके-नीक बोल ई सब का बोलत हव। अबहीं त छोटका के बियाह करेके बा। केतना काम बा ये जिनगी में। तू अंट-शंट बोलत हव,” बिमली ने मीठी झिड़की देते हुए बुधई से कहा।
“तू ठीक कहत हऊ बाकिर आज हाथ-गोड़ सब पिरात बा,” बुधई ने कहा।
“ठीक बा। एक-दू दिन बाद भी खरपतवार चिखुरा जाई। तू आराम कई ल। बड़का बेटवा पुआरा सुखावत बाने। बरखा से सगरी ओदा (गीला) हो गईल रहल। छोटका गेहूँ से भूसी छँटले में लागल बाने। बहुरिया बीनत-पछोरत बाड़ी।”
“ठीक बा। पुआरा सूख जाई त गाय-बछिया के चारा के इंतज़ाम घर ही पर हो जाई। पुआरा सड़ जाई त गईया खतिर खरीदे के पड़ जाई,” बुधई ने कहा।
उस दिन बुधई ने आराम किया। अगलेे दिन बुधई दोनों लड़कों के साथ खेत की देखभाल और निराई-गुड़ाई करने के लिए निकल पड़ा।
“ई दुपहर के खाना ल। न जाने कब काम काम खत्म होई त घरे आ पईब। बहुरिया तीनों जनी के खतिर रोटी-अचार, पियाज बाँध देले बाड़ी। दुपहर में खा लीह सभै,” कहते हुए बिमली ने कपड़े के टुकड़े में बँधा भोजन बड़े बेटे के हाथ में थमा दिया।
“ठीक बा माई,” बेटे ने कहा।
तीनों खेत की ओर बढ़ गये। बिमली उन्हें जाते देखती रही और मन ही मन सोच रही थी कि दू-दू कोस पैदल चलिहैं, तब कहीं खेत तक पहुँचिहैं।
बिमली भीतर आ कर घर के पिछवाड़े के हिस्से में बँधी गईया के नाँद में पानी डाल कर गईया को पिला कर वहीं किनारे सूखे स्थान पर बाँध दिया तथा नाँद के पास से गोबर और कीचड़ खरहरे से झाड़ने लगी। पूरा कचरा झाड़ कर एक किनारे जहाँ खाद इकट्ठी होती थी, उठाकर उसी में फेंक दिया।
“माई का करत बाड़ू? अब काम बाद में हो जाई। चल के भोजन कर ल,” बहुरिया वहाँ आयी और बिमली से बोली।
“चलत हईं। गईया जहाँ बँधाइल रहल हम उहाँ सफा कर देहली हईं। दुपहर ले सूख जाई,” कह कर बिमली ने खरहरा वहीं किनारे खड़ा कर दिया।
आँगन में आकर हाथ-मुँह धोकर बिमली ने भोजन किया। दोनों बच्चे भोजन कर चुके थे। बिमली के साथ बहुरिया ने भी भोजन कर लिया।
“जा तनिक आराम कर ल। साँझ के फिर घर गृहस्थी के काम लागी त सब करल जाई,” बिमली ने बहू कहा।
“ठीक बा माई। बस बरतन माँज के रसोई में रख दीं। फिर आराम कर लेब,” बहुरिया ने कहा।
बिमली बाहर की कोठरी में लेटने चली गयी। दोनों पोते भी वहीं खेल रह थे। दोनों कोठरी में पुआल पर बोरियाँ बिछा कर लगभग गद्दे भी भाँति करके बिछावन बना था। जिस पर जाड़े गर्मी बरसात प्रत्येक मौसम में घर के सदस्य सोते हैं।
वैसे अतिथि तो कोई नहीं आते। किन्तु बुधई के बहनोई कभी-कभी आते हैं। बहन को गुज़रे पाँच वर्ष हो गये। बहनोई भी बाहर के कमरे में पुआल के बिस्तर पर बुधई व उसके बेटों के साथ वहीं पर सोते हैं। ग़रीबों के अतिथि कहाँ होते हैं? अतिथि तो पैसे वालों के घर आते-जाते हैं।
बिमली ने सोचा कि अतिथि नहीं आते हैं तो एक तरह से ठीक ही है। अतिथि आने लगें तो जो थोड़ी-सी दाल कातिक, पूस तक के लिए बचकर रखी है वो भी ख़र्च हो जाएगी। धान अगहन में कटेगा। इसी थोड़ी-सी आधी बोरी दाल पर चार महीने गुज़ारना है।
घर गृहस्थी के बारे में सोचते-सोचते बिमली की आँख लग गयी। तीसरे पहर साँझ उतरने लगी तक बुधई व बेटों की आवाज़ सुनकर बिमली हड़बड़ा कर उठ बैठी। पति व बेटों के चेहरे की ओर देखने लगी।
“बड़ा थक गईल बाड़े तोहे सभै,” बिमली ने बेटों और पति के घाम से लाल, मुरझाये, थके चेहरे को देखकर कहा।
“ई खेती किसानी बड़ा जी के जंजाल बा। थोड़ी बेहन तो बरखा के पानी में गल गईल। बाकी सगरै खेत में मोथा, घास जाम गईल बा। हम तीनों लोग मिलकर घास चिखुरना शुरू किये तो दिन भर में आधा खेत कर पाये हैं। अबही एक खेत वईसे पड़ल बा। ओहि में हाथ नाही लगा पाये हैं। एकै खेत नाही पूरा हुआ . . . काल हमन के साथ मजूर लगावावै के पड़ी। तब दूनों खेत जल्दी होई। घास, मोथा हाली (शीघ्र) नाही निकली त फसल कमजोर हो जाई। काल एक आदमी साथ में ले के जाये के पड़ी। काल ही दूनों खेत के घास, मोथा साफ करे के सोचत हईं,” बुधई ने बिमली से कहा।
“मजूरी के पईसा देबे के पड़ी,” बिमली ने एक नई समस्या सामने रखी जो आवश्यक थी।
“हाँ, खाद, बीया (बीया-बीज) के पईसा रखले बाड़ी ओहि में से दे देब। का करीं। इहौ काम जरूरी बा,” बुधई ने निराशा भरे स्वर में कहा।
“ठीक बा बाबू। इहै कई ल। हम अउर छोटका मिल के महीना, आधा महीना कहीं मजूरी कई लेहल जाई। हो सकेला कि खाद बीज के पईसा हो जाई,” पिता की बात सुनकर बड़े बेटे ने कहा।
“अरे बेटवा, खेती किसानी करे वाला मजूरी . . . ” कह कर बुधई चुप हो गया। वह बेटों का हौसला कम नहीं करना चाहता था।
दूसरे दिन खेत जाना था। गाँव के एक व्यक्ति से अगले दिन की मजूरी के लिए बात पक्की कर आया। भोजन कर के पूरा घर बेख़बर सो गया। सभी तो थके रहते हैं। नींद के लिए कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता है।
राते में चुपके से न जाने कब से कब तक पानी बरसा किसी को पता नहीं चला। बुधई सुबह बाहर निकला तो दलान के छप्पर से पानी चूँ-चूँ कर चारों ओर कीचड़ भरा था।
“अरे, सुनत हउ। रतिया के बरखा है। भगवन जाने अब खेतव का हाल का हो रहा होई,” बुधई भीतर आया और बिमली से बोला।
“चल काका खेतवा की ओर चला जाये,” थोड़ी देर में गाँव का मजूर आ गया।
“रोटी बन गईलबा हो?” बुधई ने बमली से पूछा।
“अबही रोटी बनवले में तनिक टेम लागी। तू लोग आगे बढ़। हम अबही रोटी छोटका के हाथे भेजवावत हईं,” बिमली ने कहा।
. . .खेतिहर के जिनगी में कब का होई केहू नाही जानत। दूसरे दिन के भोजन नसीब होई कि नाही इहौ खेतिहर नाही जानत बाड़े। बड़ी कठिन जिनगी बा खतिहर-किसान के . . . मन ही सोचता हुआ बुधई अपने बड़े बेटे व मजूर के साथ खेत की ओर बढ़ा चला जा रहा था।