दस्तक
नीरजा हेमेन्द्र
चैत्र की दोपहर
साँय . . . साँय . . . साँय फैलता सन्नाटा
किसी विरही की भाँति
उद्विग्न घूम रहा है
निपात वृक्षों के इर्द-गिर्द
गाँव की गलियों, सड़कों, पगडंडियों पर
गर्म हवाएँ दे रही हैं दस्तक
समग्र सृष्टि पर
धूल भरी हवाएँ
आशंकित करती हैं
क्षण भर के लिए
किन्तु मानव की जीवंतता/जीवटता के समक्ष
ये आँधियाँ नहीं ठहर पातीं
उद्विग्न विरहिणी-सी घूमती
ये दोपहर थक कर ढल जाएगी
धीरे . . . धीरे . . . धीरे . . .
आगमन होगा शीतल गुलाबी साँझ का
जब धूल भरी आँधियाँ, परिवर्तित हो जाएँगी
पुरवा के शीतल झोंकों में।
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