लड़कियाँ
नीरजा हेमेन्द्र
लड़कियाँ देखती हैं सपने
स्वच्छन्द हिरनी की भाँति
भरती हैं कुलाँचें
गाती हैं कोयल-सी
सजती हैं सौन्दर्य-सी
किताबों से करती हैं बातें
समझती हैं शब्दों को
गढ़ती है भाषाएँ
व्याह के पश्चात्
जब जाती हैं ससुराल
सपने कुछ टूटते हैं
नये कुछ बुनती हैं
पुरुष के संसर्ग में आने के बाद
नारी होने की पीड़ा की अनुभूति
उन्हें पल-पल होती है
बार-बार याद आती है
माँ के घर की देहरी
सावन में भीगते वृक्ष . . . फागुनी हवाएँ . . .
लड़कियाँ क्यों नहींं रह सकतीं
ससुराल में भी पीहर की भाँति।
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