चादरों पर बिछे गये सपने
नीरजा हेमेन्द्र
वो बच्ची 
माता-पिता के प्यार-दुलार में पली बढ़ी
गाँव क़स्बे में बड़ी हुई
पेड़-पौधों, बादलों, हवाओं से बातें करती
बसंत में अमलतास व मोगरे के पुष्प
बालों में सजाती
समय आगे बढ़ा, वो भी बड़ी हुई
शरीर बढ़ा तो बचपन हृदय में कहीं छुप गया
वे बच्ची इतनी बड़ी नहीं हुई थी कि
उस बड़े शहर के छल से सतर्क रह सके 
जहाँ वह व्याह दी गयी थी 
बड़े शहर ने उसे छला
मोंगरे के पुष्प बालों में नहीं
उसे कई चादरों पर कुचला, 
मोगरे के फूल धूल में पैरों से रौंदे गये। 
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
- 
              - अंकुरण
- आग
- कोयल के गीत
- कोयल तब करती है कूक
- गायेगी कोयल
- चादरों पर बिछे गये सपने
- जब भी ऋतुओं ने ली हैं करवटें
- जीवित रखना है सपनों को
- तुम कहाँ हो गोधन
- दस्तक
- धूप और स्त्री
- नदी की कराह
- नदी समय है या . . .
- नीला सूट
- पगडंडियाँ अब भी हैं
- परिवर्तन
- पुरवाई
- प्रतीक्षा न करो
- प्रेम की ऋतुएँ
- फागुन और कोयल
- भीग रही है धरती
- मौसम के रंग
- यदि, प्रेम था तुम्हें
- रंग समपर्ण का
- रधिया और उसकी सब्ज़ी
- लड़कियाँ
- वासंती हवाएँ
- विस्थापन
- शब्द भी साथ छोड़ देते हैं
- संघर्ष एक तारे का
- सभी पुरुष ऐसे ही होते हैं क्या?
 
- कहानी
- कविता-माहिया
- विडियो
- 
              
- ऑडियो
- 
              
