रधिया और उसकी सब्ज़ी

01-10-2025

रधिया और उसकी सब्ज़ी

नीरजा हेमेन्द्र (अंक: 285, अक्टूबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

देखते-देखते साँझ का सुनहरा क्षितिज भी
ढल कर अदृश्य हो गया
गाँव कर सड़क पर बोरी बिछा कर
अपने दलान में उगे थोड़े से 
खीरे, नींबू और हरी मिर्च बेचने बैठी बूढ़ी रधिया
सुुबह से कोई ग्रहक नहीं आया
उसकी सब्ज़ियों पर धुँधलका उतरने तक
वह वहीं बोरी पर बैठी रही
हर आने-जाने वाले को देखकर 
निहोरा करती रही 
दो पैसे का ही सही
कोई कुछ ख़रीद लो
किसी ने रधिया को नहीं सुना
सभी गाँव की मण्डी में सब्ज़ी लेने जा रहे थे
चलने-फिरने में असमर्थ रधिया
ज़मीन पर बैठ कर चलती है
वृद्धावस्था के कारण वह खड़ी नहीं हो पाती
वह कठिनाई से अपनी कुछ सब्ज़ियों को लेकर 
गाँव के बाहर सड़क तक आ पाती है
अँधेरा घिरने से पूर्व रधिया 
बैठे-बैठे गाँव की ओर चल देती है
पहले बोरी में लिपटी सब्ज़ियों को खिसकाती 
तत्पश्चात् स्वयं खिसकती
इस प्रकार रधिया साँझ ढले घर पहुँचती है। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
कहानी
कविता-माहिया
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में

कहानी