मुक्त कर दो मुझे

15-06-2024

मुक्त कर दो मुझे

नीरजा हेमेन्द्र (अंक: 255, जून द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

मैं तीव्र क़दमों से कार्यालय की ओर बढ़ती जा रही थी। घर की ज़िम्मेदारियों को पूरा करने के साथ ही साथ मुझे कार्यालय भी समय पर पहुँचना है। यदि मैं अकेली होती तो अपने लिए खाने-पीने की व्यवस्था कहीं पर भी कर लेती। अथवा कुछ भी रूखा-सूखा खा कर जीवित रह लेती, किन्तु घर में माँ-पिताजी हैं। उनके लिए भी कुछ करना है। एक तो वृद्ध शरीर ऊपर से उम्रजनित बीमारियाँ। उनके खाने पीने की अलग से व्यवस्था कर उनके लिए दवा इत्यादि रख कर उन्हें समझा कर आने में मुझे कभी-कभी कार्यालय पहुँचने में विलम्ब होने लगता है। वैसे तो उसी घर के आधे हिस्से में मेरे बड़े भइया अपने परिवार के साथ रहते हैं। 

एक ही मकान में साथ रहते हुए भी माता-पिता से उनका सम्बन्ध औपचारिकता मात्र ही है। वह अलग रहते हैं . . . उनकी रसोई अलग है। घर का आँगन एक ही है। उस आँगन में सबका आना-जाना लगा रहता है। यदि माँ-पिताजी उन्हें आँगन में दिख जायें और कुछ बातें करने का भ‍इया की इच्छा हो जाये तो, वे इधर-उधर की बातें जैसे मौसम, महँगाई जैसी निरर्थक समस्याओं पर हल्की-फुल्की बातचीत कर लेंगे। किन्तु माता-पिता के स्वास्थ्य, उनके सुख-दुःख व उनकी आवश्यकताओं की बात कभी नहीं पूछेंगें। 

अपने ही माता-पिता से बातें करने की इच्छा भइया की कम ही होती है। भइया आँगन में दिख जाते हैं तो पिताजी कैसी कातर व आशा भरी दृष्टि से उन्हें देखते लगते हैं। भइया भी कभी व्यस्त रहते हुए तो कभी व्यस्तता का आवरण ओढ़े हुए चुपचाप अपने माता-पिता की अनदेखी करके आँगन में अपना कार्य करके अपने कमरे में जाते हैं। इन पारिवारिक समस्याओं व व्यस्तताओं से जूझते हुए मैं प्रतिदिन कार्यालय पहुँचती हूँ।

कार्यालय पहुँच कर घर की समस्याओं को दरकिनार कर के काम में मैं व्यस्त हो गयी। व्यस्तता कुछ कम हुई तो अपने लक्ष्य विहीन जीवन के विषय में सोचते-सोचते मैं विगत दिनों की स्मृतियों में विलीन होने लगी। कितने ख़ूबसूरत दिन थे . . . वे दिन जब मैं कॉलेज जाती थी। बचपन कुछ पग पीछे गया था व किशोरावस्था यौवन की ओर अपने पग बढ़ा रहा था। यहाँ, इसी छोटे से शहर के कॉलेज में मेरा नामांकन करा दिया गया था। घर में सब मेरी बु़द्धिमत्ता ही प्रशंसा करते थे। मैं पढ़ने में ठीक थी। साथ ही घर के कार्यों को करने में माँ का सहयोग करती। रसोई के काम भी सीख गयी थी।

पिता जी को मुझसे बड़ी आशाएँ भी थीं कि पढ़-लिख कर मैं आत्मनिर्भर बनूँगी। तथा सुखी जीवन व्यतीत करूँगी। वर्ष-दर-वर्ष व्यतीत होते जा रहे थे। मैंने स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। मेरेे पिता मुझे उच्च शिक्षा दिला कर आइ.ए.एस. ऑफ़िसर बनाना चहते थे। मैं भी उनके सपनों को पूरा करना चाहती थी। पूरे मनोवेग से अध्ययन में रुचि ले रही थी। सचमुच कितने सुखद थे वे दिन . . .। 

मैं नगर बस से काॅलेज जाती थी। बस में उसके काॅलेज में साथ पढ़ने वाले लड़के लड़कियाँ भी मिल जाते। सब आपस में ख़ूब बातें, हास-परिहास करते हुए काॅलेज आते-जाते। वे दिन भी क्या दिन थे। किसी प्रकार का कोई उत्तरदायित्व नहीं, कोई चिन्ता नहीं। समय की नदी में बहते जल की भाँति सरलता से वे दिन व्यतीत होते जा रहे थे। ऐसा लगता था, जैसे इन्हीं सुखद लम्हों से मिल कर जीवन बना है। बस! यही जीवन है। 

मुझे स्मरण हैं वे दिन। वह दुबली-पतली, सामान्य लम्बी तथा गेहुँए रंग की लड़की थी। लम्बे बालों की दो चोटियाँ बाँध कर सलवार-कुर्ता पहन कर मैं काॅलेज जाती थी। मेरी साथी लड़कियाँ उसकी सादगी युक्त सौन्दर्य की प्रशंसा करती थीं। उनकी दृष्टि में मैं अत्यन्त आर्कषक लगती थी। वे प्रति दिन मेरी प्रशंसा में कुछ न कुछ कहा करतीं थीं। मुझे अपनी प्रशंसा अच्छी नहीं लगती थी। 

 मैं स्वयं को साधारण रंग-रूप वाली युवती ही मानती थी। कदाचित् मैं अपना आकलन करने में भूल कर रही थी। ऐसा न होता तो वह प्रतिदिन बस में आते-जाते मेरी ओर क्यों आकृष्ट क्यों होता? वह भी बस से ही ऑफ़िस आता-जाता था। उस समय मुझे उसका नाम नहीं ज्ञात था न ही ज्ञात करने की इच्छा। वह गौर वर्ण का लम्बा, आर्कषक युवक था। यदा-कदा बस में दिखाई देता था। 

मैं जब भी उसकी तरफ़ देखती, वह मुझे अपलक मेरी ओर देखता मिलता। उसे यूँ अपनी तरफ़ देखता पा कर मैं सकुचा जाती व चुपचाप बैठी रहती। धीरे-धीरे वह प्रतिदिन मुझे मेरी बस में मिलने लगा। न जाने उसने मुझमें क्या देखा? 

वह मेरी ओर आर्कषित हो चुका है, इस बात का आभास मुझे उस दिन हुआ, जब वह बस में मेरे ठीक पीछे आ कर खड़ा हो गया। मेरे बस से उतरने तक वह मेरे पीछे खड़ा रहा। फिर तो वह प्रतिदिन बस में मेरे पीछे खड़ा रहता, तथा मुझे देखता रहता। 

एक दिन मेरे बस से उतरते ही वह भी मेरे पीछे-पीछे काॅलेज के पास उतर गया। जब कि वह उसी बस से आगे तक जाता था। बस से उतरते ही उसने अत्यन्त शालीनता से मुझे पुकारा तथा मुझसे मेरा नाम पूछा। मैं किसी अजनबी को अपना परिचय क्यों बताती? मैं आगे बढ़ गयी। वह वहीं खड़ा रह गया। 

इन सब बातों से निर्विकार मैं अपनी शिक्षा की तरफ़ पूरा ध्यान दे रही थी। वह पूर्ववत् बस में मुझे दिखता रहता। मैं अपनी सहेलियों के साथ बातें करती रहती या बस की खिड़की से प्राकृतिक दृश्यों से तारतम्य जोड़ लेती। उसकी तरफ़ से अनभिज्ञ होने का प्रयत्न करती। इसके लिए मैं प्रकृति को अपना साथी बनाती। 

प्रकृति तो मुझे बाल्यावस्था से ही अपनी ओर आकृष्ट करती थी। सड़क के दोनों ओर फैले हरे-भरे खेत मुझे मख़मली कालीन के सदृश्य लगते, और उनमें बनी सर्पीली पगडंडियाँ कालीन में बने अद्भुत चित्र के समान। मैं प्रकृति के मनोरम सौंदर्य में स्वयं को आत्मसात् कर लेती। 

सड़क के दोनों ओर क़तारबद्ध रूप से उगे शीशम, पलाश, आम, अमलतास व ढाक के वृक्षों पर ऋतुओं का आना-जाना व उनका प्रभाव देखती वृक्षों व ऋतुओं के सम्बन्धों में मुझे पूरा दर्शन शास्त्र समाहित नज़र आता। समय के साथ ऋतुओं का आगमन व प्रस्थान होता रहा। मेरे शिक्षा सत्र भी समापन की ओर बढ़ चले। वह युवक भी बस में मुझे दिखता रहता, मेरे पीछे खड़ा रहता। 

धीरे-धीरे मुझे उसको देखने की आदत-सी होने लगी थी। कभी भीड़ के पीछे उसके अदृश्य होने की स्थिति में मेरे नेत्र उसे ढूँढ़ लेते। मार्च का महीना प्रारम्भ होने वाला था। वार्षिक परीक्षा की तिथियाँ घोषित हो चुकी थीं। कॉलेज में मेरा यह अन्तिम वर्ष था। मैं पूरे मनोवेग से पढ़ाई में लगी थी। 

पूर्व की भाँति में उस दिन भी मैं बस से उतर कर काॅलेज के मुख्य गेट की ओर बढ़ रही थी। सहसा किसी ने पीछे से मेरा नाम ले कर मुझे आवाज़ दी। मैंने पलट कर देखा। वह ठीक मेरे पीछे खड़ा था। मैं चौंक-सी गयी। मेरे चौंकने का कारण यह था कि उसे मेरा नाम कैसे ज्ञात हो गया

मैंने क्रोध भरी प्रश्नवाचक दृष्टि उस पर डाली। वह सकपका कर मेरी ओर देखते हुए बरबस बोल पड़ा, “मैं . . . मैं . . . आपसेे कुछ कहना चाहता हूँ . . .” उसके वाक्य पूरे भी न हुए थे कि मैं तेज़ स्वर में उसे डाँटने लगी। मेरा क्रोध देख कर वह चुप हो गया था। मैं बोलती चली जा रही थी। न जाने क्या-क्या कह दिया था मैंने उसे उस दिन। प्रत्युत्तर में वह सिर्फ़ इतना ही बोल पाया था, “क्षमा कीजिएगा।” मैं काॅलेज चली गई। 

इस घटना के पश्चात् भी वह काॅलेज आते-जाते बस में मुझे मिलता रहता। परीक्षाएँ समाप्त होने वाली थीं। मेरे सभी प्रश्न-पत्र अच्छे हो रहे थे। मैं प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी पर विचार कर रही थी। मेरे जीवन में फ़िल-वक़्त कोई अन्य लक्ष्य नहीं था। 

मैं आगे की शिक्षा अनवरत् रखते हुए नौकरी हेतु प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी का मन बना चुकी थी। उधर माँ-पिता जी मेरे ब्याह की चर्चा-परिचर्चा कर रहे थे। शीघ्र ही एक दिन वह भी आ गया जब मेरा ब्याह निश्चित कर दिया गया। विवाह निश्चित होते ही नौकरी कर आत्मनिर्भर बनने की इच्छा ही नहीं बल्कि मेरे जीवन में बहुत कुछ अपूर्ण रह गया। 

आगे बढ़ कर कुछ कर पाने का जो स्वप्न मैं जी रही थी, जिसके लिए माँ मुझे प्रेरित भी कर रही थी वह युवावस्था तक आते-आते समाप्त क्यों हो गया? उनकी क्या मजबूरी थी? भ‍इया भी तो उच्च शिक्षा प्राप्त कर आगे बढ़ रहे थे। उन्हें किसी ने नहीं रोका, फिर मुझे क्यों रोक दिया गया? माँ के घर में मैं अपनी कोई इच्छा पूरी नहीं कर पाई थी। 

मुझे स्मरण है काॅलेज के दिनों की वो बात, जब एक बार मेरी कुछ सहेलियों ने छुट्टियों में फ़िल्म देखने का कार्यक्रम बनाया था। वो मुझे भी साथ ले जाना चाहती थीं। मेरी भी इच्छा थी, उन सब के साथ फ़िल्म देखने की। मैंने माँ से जाने के लिए पूछा तो माँ ने कहा था, “घूमना-फिरना, फ़िल्में देखना यह सब विवाह के पश्चात् करना।” उस दिन के लिए तो माँ ने अनुमति दे दी, किन्तु मैं पुनः कभी भी माँ से ऐसी किसी बात के लिए पूछने का साहस नहीं जुटा पायी। 

उन्होंने मेरा विवाह तय कर दिया था और उसमें मेरे माता-पिता द्वारा मेरी सहमति-असहमति पूछने का प्रश्न ही कहाँ उत्पन्न होता? लड़की की इच्छा जानने की आज्ञा समाज कहाँ देता हैं? मेरे द्वारा प्रतिरोध करने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। 

मेरा विवाह अवश्य हुआ, किन्तु इसी समाज में रहने वाले मेरे ससुराल के सामाजिक प्राणियों ने, जिनमें मेरे पति भी सम्मिलित थे, सबने जब दहेज़ के लिए मुझे भीषण प्रताड़ना दी और तब मेरे माता-पिता को यह अनुभूति हो पायी कि उनसे भूल हुई है। काश! वे मुझे आगे बढ़ने के कुछ अवसर और देते। मैं आत्म निर्भर हो पाती। 

इसे भाग्य का लिखा कहें कि मानवीय भूल जिसका मूल्य अब मुझे अपनी इच्छाएँ, अपने सपने, अपने जीवन की तिलांजलि दे कर चुकाना है। मेरे माता-पिता मेरी दुर्दशा देख कर टूट गये। उन्हें इतना आघात लगा कि उनकी वृद्धावस्था जो कदाचित् कुछ विलम्ब से आती शीघ्रता से उनकी ओर बढ़ने लगी। 

मैं ससुराल में रह कर दुर्बलता व बीमारियों का शिकार हो रही थी। धीरे-धीरे मैं अपनी शिक्षा भूल रही थी। पुस्तकें व क़लम मेरे लिए अजनबी हो रहे थे। समाज का कोई भी व्यक्ति मेरी इस दुर्दशा का साक्षी न था। मैंने ससुराल में रहने का, समायोजित होने का अथक प्रयत्न किया, किन्तु मैं टूट गयी। मेरी सहनशक्ति जवाब दे गयी। 

एक दिन माता-पिता की दहलीज़ पर आ कर पुनः खड़ी हो गयी। माँ, पिता व भाई सबने मुझे सहारा दिया, मेरा साहस बढ़ाया। मैं पुर्नजीवित हुई, और नौकरी हेतु प्रयत्न करने लगी। शनैः-शनैः इन सबमें व्यस्त हो कर अपना अतीत किसी दुःस्वप्न की भाँति भूलने का प्रयत्न लगी। 

मैं वो बेगाना शहर छोड़कर अपने शहर में आ तो गयी, जहाँ की हवाएँ, वृक्ष-पत्ते, ऋतुएँ, सब कुछ जानी पहचानी-सी थीं। किन्तु अकेलेपन के क्षणों में मेरे हृदय में एक प्रश्न बार-बार उत्पन्न होता कि—क्या यह शहर मेरा है? क्या यह समाज एक लड़की को पिता का शहर, पिता का नाम अपनाने की स्वीकृति देता है? यदि नहीं देता है तो क्यों? यह प्रश्न अनुत्तरित ही रहता। 

मैं पुनः नौकरी के लिए प्रयत्न करने लगी। जी-जान से प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने लगी। मेरा परिश्रम रंग लाया। ऊपर वाले को भी मुझ पर दया आ गयी। 

मेरे जीवन में प्रसन्नता के कुछ पल आये जब मेरा चयन नौकरी के लिए कर लिया गया था। मेरे आत्मविश्वास में कुछ वृद्धि हुई। कम से कम मैं अब आर्थिक रूप से सबल थी। किसी पर बोझ नहीं थी। यह मेरा सौभाग्य था कि मेरी प्रथम नियुक्ति इसी शहर में हुई। कदाचित् मुझे जीवन में अभी और संघर्षों का सामना करना था, क्यों कि भ‍इया विवाह के पश्चात् माँ-पिता जी से अलग हो गये। 

जब कि पुत्र होने के कारण माँ-पिता जी ने उन पर स्नेह की विशेष कृपा की थी। आर्थिक रूप से भी भ‍इया को सबल बनाया था। फिर भी उनके व्यवहार में न जाने कहाँ से परायापन समाता चला जा रहा था। मैं माँ-पिता का एक मात्र सहारा बन गयी थी। मेरा लक्ष्य विहीन जीवन और कठोर संघर्ष देख कर माँ-पिता जी भी दुःखी हो जाते, किन्तु मैं यन्त्रवत् जिए जा रही थी। अब तो तलाक़शुदा जीवन जी रही थी। 

समय का पहिया अपनी गति से घूमता जा रहा था। एक दिन निलय मुझे पुनः बस स्टैण्ड पर खड़ा दिख गया। मैं कार्यालय जाने के लिए बस की प्रतीक्षा में खड़ी थी। मुझे देखते ही वह मेरी ओर बढ़ा ही था कि मैंने उसे अनदेखा करते हुए अपना चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया। दरअसल मैं उसके प्रेम का तिरस्कार कर शर्मिन्दा थी, और उससे दृष्टि चुरा रही थी। 

मेरा नाम तो उसने उसी समय ज्ञात कर लिया था, किन्तु उसका नाम मुझे जीवन के इस दूसरे दौर के मुलाक़ात में ज्ञात हो पाया। निलय! उसके नाम में भी मुझे उसी जैसा आर्कषण व शालीनता की अनुभूति होती। वह मेरे पास आ कर खड़ा हो गया। मुझसे मुख़ातिब हो कर बातें करने लगा। 

इन विगत वर्षों के दरम्यान ऐसी बहुत सी बातें थीं जो वह मुझसे पूछना चाहता था। मैं बताना चाहती थी। उसने अनेक बातें पूछीं व मैंने बताईं भी। उसने मुझे फ़िक्र न करने के लिए कहा। मुझे वह अपना-सा लगने लगा था। वह स्नेहिल नेत्रों से मुझे देखता रहा, उसी प्रकार जैसे काॅलेज के दिनों में भाव पूर्ण नेत्रों से मुझे चुपचाप देखता रहता। उसकी आँखें वही थीं, किन्तु मैं बदल गयी थी। मैं उससे दूर जाना चाहती थी, किन्तु वह . . . 

मैं नयी नौकरी व वृ़द्ध माता-पिता की देख भाल की ज़िम्मेदारियों में व्यस्त हो गयी थी। निलय मेरे आस-पास ही रहता। उसने बताया कि उसका भी विवाह तय हो गया था, किन्तु उसने वह रिश्ता तोड़ दिया है। क्यों? क्या कारण है? मैं उससे पूछना चाहती थी किन्तु पूछ न सकी। 

मैं उसके योग्य अब नहीं हूँ। मैं तो एक परित्यक्ता हूँ। रूढ़िगत् समाज के योग्यता-अयोग्यता के ये पैमाने उसके क़दमों को मेरी ओर आगे बढ़ने देंगे? किन्तु निलय उन रूढ़ियों को तोड़ते हुए मेरे माता-पिता से मिलना चाहता है। मेरे समक्ष अनेक प्रश्न खड़े हैं। मैं स्त्री हूँ और स्त्री का एक गुण है संवेदनशीलता और मानवता। 

मैं सोचती हूँ मेरे विवाह कर के कहीं और बस जाने के उपरान्त मेरे माता-पिता का क्या होगा? उनकी देखभाल कौन करेगा? माँ से पूछने पर वह कहतीं हैं कि “मैं उनकी फ़िक्र न करूँ। निलय अविवाहित है, क्या उनका परिवार और हमारा समाज उन्हें एक परित्यक्ता से विवाह की अनुमति देगा? 

“क्या वह इस समाज के कटु प्रहारों के समक्ष खड़ा रह पाएगा? कहीे समय के थपेड़ों से वह डगमगा गया तो?” आज इन सभी प्रश्नों के उत्तर उसे निलय से जानने हैं। वह कार्यालय के कार्यों को तीव्रता से निपटाने लगी। उसने सोच लिया है आज जब मैं कार्यालय से घर जाने के लिए निकलूँगी तो निलय से इन सभी प्रश्नों के उत्तर पूछूँगी। 

सायं निलय उसे बस स्टैण्ड पर प्रतीक्षारत मिला, सदैव की भाँति। मैंने उसके समक्ष अपने हृदय में पल रहे अनेक प्रश्नों की झड़ी लगा दी है। मेरी बातें सुन कर वह मुस्कुराता रहा। कुछ क्षणों के उपरान्त वह मुझसे बोला, ”इतने दिनों में क्या तुमने मुझे इतना ही जाना है कि मैं विपरीत परिस्थितियों में परिवर्तित हो जाऊँगा? ऐसा नहीं हूँ मैं। मैं तो आज भी वहीं खड़ा हूँ जब मैंने तुमसे तुम्हारा नाम भर पूछा था, और तुम ही मुझे प्रतीक्षारत छोड़ कर आगे बढ़ गयी। मुझे तुम्हारे जीवन में आने वाली दुःखद परिस्थितियों का आभास था। मैं दृढ़ प्रतिज्ञ था कि मैं अविवाहित रहूँगा। जब भी तुम्हें संबल की आवश्यकता होगी तुम मुझे पाओगी।” निलय ने मेरे हाथों को अपने हाथो में लेकर कहा। 

निलय की बातें सुन कर मेरे नेत्रों से अश्रु की धारा बह पड़ी। इन अश्रुओं को मैंने उन दिनों से रोक रखा था, जब मेरी इच्छा के विपरीत मेरा ब्याह कर दिया गया और मैंने कोई प्रतिवाद नहीं किया था। इन आँसुओं को मैंने उन दिनों से रोक रखा था 

जब ससुराल में मेरी शिक्षा, योग्यता को दरकिनार करते हुए दहेज़ के चन्द पैसों के लिए मेरे साथ अमानवीय व्यवहार किया गया। इन अश्रुओं को मैंने उन दिनों से रोक रखा था, जब ससुराल से वापस पिता के घर आते ही मेरे भइया ने अपने उत्तरदायित्व से मुँह मोड़ते हुए वृद्ध माता-पिता को तिरस्कृत कर मेरे सहारे कर दिया था। 

मेरे इन इन अश्रुओं को निलय के अपने सबल हाथों ने अपनी हथेली पर रोक लिया है। मैं भावशून्य-सी यह समझने में असमर्थ हो रही हूँ कि अपनी इस दुर्दशा का दोष किसे दूँ? कदाचित् स्वयं को। काश! मैं उस समय प्रतिरोध करने का साहस कर पाती जब मेरे माता-पिता ने मेरी इच्छा के विपरीत मेरा विवाह कर दिया था। मैं अब ये साहस करूँगी। मैंने सोच लिया है, भइया को भी उनके उत्तरदायित्व का बोध कराऊँगी। मैं चल पड़ी हूँ निलय के साथ अपने घर की ओर . . .॥

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