स्वयं में . . .
डॉ. विनीत मोहन औदिच्य
(सॉनेट)
जिस प्रश्न से हूँ मैं अतिशय व्यथित
उस प्रश्न का क्यों होता सदा आविर्भाव
मैं उत्तर से होता हूँ अत्यंत विचलित
रहता हूँ उससे विच्छिन्न . . . लिए दुराव
शंकित मन को दे धैर्य व आश्वासन
करता शांत पर नहीं होता विस्मृत
जन्म लेकर बारम्बार मैं करता दमन
स्थिर नहीं होता यह लौकिक वृत्त
मैं स्वयं से हो विरक्त करता याचना
महायोगी के द्वार पर हो संपूर्ण रिक्त
वृक्षों पर देख जीर्ण नीड़ की वेदना
क्षताक्त हृदय को करता नित्य सिक्त
क्यों इस सागर को कहते हो मरुथल?
कहाँ है मरीचिका कहाँ है वह पुष्पदल?
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