मृगतृष्णा
डॉ. विनीत मोहन औदिच्य
(सॉनेट)
जीवन की आपाधापी में भौतिक विलासिता से प्रभावित
रक्तबीज सी बढ़ती कामनायें हो चुकी हैं कदाचित् अनियंत्रित
स्वयं को सहेजने का करते हुए असफल प्रयास व अश्रुपात
भीड़ संग अंधी दौड़ में हो सम्मलित, भविष्य है अज्ञात।
साथ ही हो चुके हैं धूल धूसरित संस्कृति व सभ्यता के संवाहक
पुरातन, शाश्वत, आदर्श मानवीय मूल्य की
दशा है हृद-विदारक
जिन पर करती आयीं थी कई पीढ़ियाँ, हाँ सदियों से गर्व
समस्त शृंखलाएँ हो चुकी हैं मृत देह सी निश्चल और नीरव।
काम, क्रोध, मद, लोभ की मरूभूमि पर आज मृगतृष्णा में
शोकाकुल आत्मा, कर रही अनवरत क्रंदन आहा, वितृष्णा में
आध्यात्मिक क्षरण पर अब नहीं रहा वश किसी दैव्यबल का
कर रहा हूँ पश्चाताप, निर्गुण यह जीवन हुआ अब गरल सा।
इस महाभू की प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक कामनाएँ हैं असंपूर्ण
कदाचित, मनुष्य रहे दूर बिडंबना से, कर पाए अहंकार को चूर्ण।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- अदृश्य चक्षु
- अपरिचित
- अप्सरा
- अप्सरा
- उद्विग्न आकाश
- जीवन का उत्तरार्ध
- तुम जो हो ऐसी . . .
- देवता
- नीलांबरी
- पन्द्रह अगस्त
- पिता
- पूर्णविराम
- प्रश्न
- प्रीति का मधुमास
- प्रीति की मधु यामिनी
- भारत वर्ष
- माँ
- माँ
- मृग मरीचिका
- मृगतृष्णा
- मैं, नदी, सागर
- वसंत
- वीर गति
- वेदना की राह में
- समय
- साँझ की बेला
- सिंदूर
- सिक्त मन का श्रावण
- सिक्त स्वरों के सॉनेट
- सुरसरि
- सृष्टि का विनाश
- स्वर्णिम भारत
- अनूदित कविता
- ग़ज़ल
- विडियो
-
- ऑडियो
-