पत्रलेखा
डॉ. विनीत मोहन औदिच्य
(सॉनेट)
श्रंगों पर आच्छादित स्वर्णिम परतें हृदय हुआ कुसुमित
उसकी चिट्ठी पर लगे सिंदूर सा नभ हुआ आलोकित
सभी शब्द आए ओढ़ कर व्यर्थ अभिमान की चादर
भूल गया मैं लिखना उत्तर जो नयनों में उभरा आदर।
उतर आया मैं संग पश्चिमी तट पर लिए अनेक सितारे
किन्तु लिख नहीं पाया मम प्रेयसी के स्वर भीगें इशारे
ये मौन शिलाएँ कह रहीं जैसे वो लिए हों सपने हज़ार
किन्तु निशा भी तो गुफाओं में छुपी सी लिए निद्रा अपार।
स्वर्ण मंडित शिखरों से यह प्रश्न करना है अकारण
अंबर का आँचल क्यों है मात्र उनके लिए आवरण
व्यथा की अपेक्षा शीतल पवन समेटे है विस्फोटक चिंगारी
मैं नहीं, यह घना अंधकार ही कहेगा स्वयं की पीड़ाएँ सारी।
चलो, पत्रलेखा! अलकों को समेटों नभ के गहरे नीलेपन से
मैं चन्द्रापीड तुम्हें क्षितिज तक ले चलूँ दूर अधूरेपन से।
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