अपरिचित

15-08-2025

अपरिचित

डॉ. विनीत मोहन औदिच्य (अंक: 282, अगस्त प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

(सॉनेट) 
 
मैं भिक्षु नहीं था . . किन्तु था एक मेरा पुराना भिक्षा पात्र 
जिसमें रखकर शून्य आशाएँ मैं चुप खड़ा था राजपथ पर 
किसीने देखी उसमें मेरी दयनीयता . . किसी ने लोभ मात्र 
मेरी उद्विग्नता की पोशाक में काँप रहा था अवयव जर्जर
 
किन्तु मैं भिक्षु नहीं था। बादलों से भरे आकाश में जब 
एक एकाकी पतंग उड़ते हुए अकस्मात्‌ है भीग जाता 
उसकी डोर से जुड़ा एक जीवंत हाथ स्तब्ध रह जाता तब 
अधरों पर मृत शब्दों का एक निर्झर हृदय तक बह आता 
 
भिक्षा पात्र की शून्यता महाकाश तक होती है विस्तृत 
किन्तु मैं भिक्षु नहीं था . . दृगों के बादलों में थी समाहित 
करुण याचना . . प्रार्थना . . संवेदनाओं का अस्पष्ट अर्धवृत्त 
कोई नहीं जो देख पाता . . वक्ष में हो रही वह ध्वनि स्पंदित 
 
मैं किन्तु भिक्षु नहीं था . . विशाल चक्षु की दीप्ति से निस्सृत 
प्रलंबित मौन के साया में था मैं श्याम रंग का निषिद्ध वृत्त। 

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  • रचना प्रकाशित करने के लिए आदरणीय संपादक महोदय का हार्दिक आभार ।

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