जीवन का उत्तरार्ध 

15-05-2024

जीवन का उत्तरार्ध 

डॉ. विनीत मोहन औदिच्य (अंक: 253, मई द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)


(सॉनेट) 

 

था समय हमारी मुठ्ठी में सारे सपने साकार किए
जब खिले फूल प्रेमांगण में, हम दोनों एकाकार हुए
सौंदर्य शिखर पर बैठी तुम मैं मधुप बना गुंजन करता
स्वप्निल आँखों में झाँक तेरी मैं रूप राशि दृग में भरता। 
 
जब प्रेम शिखर पर पहुँचा तो होता भावों का संप्रेषण
खोकर एक दूजे में अक्सर करते थे सुखों का अन्वेषण
संग देखे जीवन में ऊँच नीच हमने बहुधा निस्पृह होकर
बाँटी ख़ुशियों की भेंट यहाँ अपनी सारी निजता खोकर
 
यौवन तो पीछे छूट गया अब कंपित गात हमारे हैं
आँखों के तारे दूर गये हम अपने स्वयं सहारे हैं
अव्यक्त हो चुका प्रेम मुखर, श्रद्धा का सागर बहता
करता हूँ अब भी प्यार तुम्हें हर साँस मेरा यह कहता। 
 
 फूलों की वेणी गूँथ केश, मैं मधु प्रेम का पीता हूँ
जानूँ जीवन का उत्तरार्द्ध, प्रति पल तेरे संग जीता हूँ॥

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