सृष्टि का विनाश
डॉ. विनीत मोहन औदिच्य
(सॉनेट)
अधर्म की राह में बोया है बीज स्वार्थ का
मानव होकर दैत्य सा आचरण अपार्थ का
भूमि-वायु-जल हो गए दूषित व विषाक्त
लोभ-माया से करे नित सृष्टि को क्षताक्त।
घन पवन गगन चहुँ ओर है गरल ही गरल
वह्निमय हो गया वसुधा का सौंदर्य तरल
जीवन ऊर्जा में हो रहा अब श्वास अवरुद्ध
न रहा प्रेम जीव में हो रहा कण कण क्रुद्ध
ईश्वर का रचा यह मंडल तू है निमित्त मात्र
भूलकर स्वयं का सत्व, पाप से भरता गात्र
देख! पल्लव दल व अप्रस्फुटित कलिका
नहीं पिघलता मन तेरा ध्वस्त कर वाटिका
जब जब चाहेगा तू, रे! मानव सृष्टि का विनाश
निश्चित होगा लुप्त तू भी, भविष्य होगा निराश।
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