प्रीति का मधुमास
डॉ. विनीत मोहन औदिच्य
(सॉनेट)
प्यार का जब फूल खिलता झूम उठता मन
काव्य की धारा बनाती रंगमय जीवन
फूटते जब गीत उर से दृश्य हो न्यारा
मान लो बिछुड़ा हुआ ज्यों मिल गया प्यारा।
नेह के बादल घुमड़ते नैन से मोती
काश कोई साधना भी पूर्ण तो होती
हाथ लेकर प्रेम का जब साथ में चलते
दीप आशा के हमारे हृदय में जलते।
भावना का ज्वार जब भी तीव्र हो उठता
प्रीति का आभास तब तब उर सदा करता
रूप का सानिध्य पाकर मन हरा डोले
प्रेम में पागल पपीहा मीत से बोले।
प्रीति का मधुमास देखो द्वार पर आया।
हर किसी के मन यहाँ उल्लास है छाया॥
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- अनूदित कविता
- कविता
-
- अदृश्य चक्षु
- अप्सरा
- अप्सरा
- उद्विग्न आकाश
- जीवन का उत्तरार्ध
- तुम जो हो ऐसी . . .
- नीलांबरी
- पन्द्रह अगस्त
- पिता
- पूर्णविराम
- प्रश्न
- प्रीति का मधुमास
- प्रीति की मधु यामिनी
- भारत वर्ष
- माँ
- माँ
- मृग मरीचिका
- मृगतृष्णा
- मैं, नदी, सागर
- वसंत
- वीर गति
- वेदना की राह में
- समय
- साँझ की बेला
- सिंदूर
- सिक्त स्वरों के सॉनेट
- सुरसरि
- सृष्टि का विनाश
- स्वर्णिम भारत
- ग़ज़ल
- विडियो
-
- ऑडियो
-