समय 

डॉ. विनीत मोहन औदिच्य (अंक: 276, मई प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

(सॉनेट)
  
एक ऐसा समय था, जो पर्वत पर नित्य पंख फैलाए 
जीवन को करता था सदा आमंत्रित, देता था विश्वास 
सूक्ष्म सुविधाओं से दूर, चेतना के अतल गर्भ में समाए 
पुकारता था उड़ते मेघों को मुखपर लिए हर्ष-उल्लास 
 
वह सत्य की पीठ पर रहता था स्तीर्ण स्वर्णिम रंग सा 
मिथ्या की परिभाषा कहाँ थी!! कई रूप-बिंब लेकर 
रहता था वही समय . . . विवेक की सीढ़ियाँ चढ़ता था
तमस को कर प्रताड़ित दीप्त होता था शून्य मंडल पर। 
 
वह समय जो कभी ऋतु बदलने से होता था आतुर 
शौर्य व धैर्य का दे प्रमाण, खद्योत को रखता था जीवित 
प्राक सभ्यता की भित्ति पर टाँगकर अर्वाचीन का मुकुर 
ॐ-ध्वनि से नभ-नगर-नागलोक करता था प्रकंपित। 
 
वह समय आज क्यों है खड़ा मुँह मोड़कर . . . भर उदास
वही पृथ्वी . . . वही ऋतु सब कुछ खो दिए क्यों उजास? 

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