मैं, नदी, सागर
डॉ. विनीत मोहन औदिच्य
(सॉनेट)
कौन हूँ मैं? प्रश्न बारंबार मन को कर जाता ये विचलित
आया कहाँ से? कहाँ है जाना? सोच हो हृद, विगलित
तन यथार्थ है या कथित आत्मा, कौन भला सत्य पहचाना?
अंतर का स्वर या संतों की वाणी, क्या सबने उसको माना?
नदी मन की भावनाओं की, बहाकर अति दूर दूर ले जाती
चंचल लहर करे अठखेली, सुख दुख में बहुधा बहलाती
आ जाती जब बाढ़ उग्र तब, दुष्कर होता ज़रा सँभलना
कभी निराशा घर कर लेती, कभी कभी आशा का पलना।
गहरे सागर से जीवन की, मिथ्या जग में कोई थाह नहीं है
पूरा जो हो पाये प्रति क्षण, ऐसी मन की कोई चाह नहीं है
अंतर्द्वंद्व बन, भीषण तूफ़ानों से, हृदय पटल से हैं टकराते
और चेतनाशून्य मृदा पर, मेघों के काले साये गहराते।
मैं, नदी, महासागर की पहेली, चैन न मुझको लेने देती।
ईश्वर के ब्रह्मांड की रचना नव स्वरूप नित नित ही लेती॥
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