अदृश्य चक्षु
डॉ. विनीत मोहन औदिच्य
(सॉनेट)
ऐसा कह दूँ कि मैं आनंद में हूँ, मिथ्या यह तथ्य नहीं
मैं ही जानता हूँ अग्नि-वन में कैसे होता श्वास रुद्ध
और दुखित मेरा जीवन है— यह भी मेरा कथ्य नहीं
है ज्ञात मुझे कैसे काँटों की शय्या पर काया हो रही वृद्ध
जिस नदी को है आदेश मिल जाए वह सागर से
उसे न दिखे पत्थर, न जलता सूर्य, न वैशाखी पवन
बेल को मिले यदि आश्रय एक द्रुम का विशाल नगर के
कैसे न हो आयु की प्राण वायु में संघर्षरत शेष जीवन!
मैं जानता हूँ उत्तर मेरु की ऋतु है दक्षिण मेरु से भिन्न
परन्तु मनस्थिति मेरी है अंतरिक्ष की मौनता में स्थिर
यदि हो जाऊँ मैं विजयी दशानन के मस्तक कर छिन्न
तो नहीं होगा कल्पना के आकाश में एक आशा का मुदिर।
जिसके चक्षु में जन्म-जन्मातर से हूँ मैं रहता सुरक्षित
वह अदृश्य अमृतमय रक्तार्णव होता मेरी धमनी में प्रवाहित।
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