प्रीति की मधु यामिनी
डॉ. विनीत मोहन औदिच्य
(सॉनेट)
प्रेम रंगो से सजाओ, आज अपने गेह को
यह वचन है मैं सहेजूँगा, तुम्हारे नेह को
स्वप्न जो अँखियों ने देखे, मैं उन्हें पूरा करूँगा
मैं तुम्हारी माँग को भी, शुभ्र तारों से भरूँगा।
तीक्ष्ण वाणों से नयन के, है हृदय यह बिद्ध मेरा
रतजगा करते हुए ही नित्य होता है सवेरा
कंठ कोकिल से कभी जब, राग स्वर में फूटता
मुग्ध रह जाता है मन ये, तन कहीं पर छूटता।
मैं भ्रमर बन स्निग्ध तेरे रूप का रस पान करता
और विरह की वेदना में, डूब कर मैं आह भरता
हृद ये धड़के धौकनी सा, मंद हर पग चाप सुनकर
और मैं होता प्रफुल्लित, इन्द्रधनुषी स्वप्न बुनकर।
प्रीति की मधु यामिनी में, है अंतिम चाह मेरी।
मैं सदा सुमनित करूँगा, कामना की राह तेरी॥