पूर्णविराम
डॉ. विनीत मोहन औदिच्य
(सॉनेट)
सुखद क्षणों से जब भर रहा था मैं अपनी गागर
हुआ अनुभूत कि ये अस्थाई है हर्ष का महासागर
एक अदृश्य आकार में एकाकार हुआ सूक्ष्म शरीर
शीतल स्पर्श से हुआ मन का प्रांगण स्थिर -धीर।
कदाचित नीर सा कुछ बह गया अनेक द्वन्द्वों के पश्चात्
एक नैन में उजला सा जग, दूजे में घोर अँधेरी रात
कहीं ब्रह्मांड में स्वर सत्य का गूँजते हुए घुल गया
पंखों को समेट पक्षी ने ढूँढ़ लिया एक आकाश नया।
फिर भी समझ नहीं पाया अस्थायी सुख का कारण
इंद्र का स्वर्ग आधिपत्य अथवा याज्ञसेनी का लज्जा हरण
सबका साक्षी बना मैं, नदी की शुष्कता से होते सदानीरा
सागर को शांत गंभीर रहते, सरिता को होते अति अधीरा ।
अब चाहूँ मैं जन्म–मृत्यु से परे सायुज्य मुक्ति अविराम
कर्म - भाग्य का बोझ ढोते इस जीवन को देने पूर्णविराम॥