पिता

डॉ. विनीत मोहन औदिच्य (अंक: 277, मई द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

(सॉनेट)
 
जब मुझे होता था यह प्रतीत मेरा स्वप्न जाएगा बिखर 
एक मृदुल स्पर्श से मिलता हृदय को असीम बल 
वटवृक्ष की छाया में यह जीवन कैसे गया था निखर 
मौन आशीष से..नेत्र में भरता रहा मैं अश्रुजल।
 
वह छवि मनगुहा में रहती सदा,बंद नयनों में है उभरती 
एक उष्ण निर्झर होता प्रवाहित शीतल होता तन 
कहता मैं कुछ नहीं पर मेरी आत्मा प्रतिक्षण मिलती 
रात्रि के गवाक्ष से सूक्ष्म प्रकाश से भर जाता मेरा मन।
 
नहीं मैं देख पाता जीवित शरीर उनका.. न उन्हें सुन पाता    
किंतु नीरव गगन में..वह होते सदा मंदिर की सुगंध में 
संस्कार व नैतिक मूल्य से यह गृह मेरा स्वर्ग बन जाता 
यही तो था उनका विश्वास है आज जो मेरे प्राण-छंद में।
 
अमिय वृष्टि से जिसकी, मेरा संसार हुआ है सदा पुलकित 
उस पितृ शक्ति की करता रहूँ अर्चना मैं दिवा-निशि नित।

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