विशेषांक: दलित साहित्य

10 Sep, 2020

यात्रा में स्त्री

कविता | डॉ. रजनी अनुरागी 

एक स्त्री लगातार चल रही है,
 
अपने हिस्से की ज़मीन तलाशती बीहड़ के बीच
ढूँढ़ते हुए पानी के स्रोत, रेत से पानी निचोड़ती
समुद्र में मछलियाँ बचाती जोहड़ में घोंघे छोड़ती 
रास्तों और जंगलों के बियाबान में जलावन चुनती
आग को बचाने की जद्दोजेहद में लगातार जल रही है।
एक स्त्री लगातार चल रही है
 
इतिहास और भविष्य के बीच होते हुए
उसकी कमर पुल बनाते लगातार झुक रही है
वो एक हाथ से बच्चों को थामे
दूसरे से लगातार श्रम कर रही है,
समय के चाक पर लगातार प्रहार करती
दोनों पाटों पर अंकित हो रही है
और पत्थरों के बीच आटे सी झर रही है।
 
एक स्त्री लगातार चल रही है
 
समय के दिए कितने ही खुदने शरीर पर लिए
सभ्यता के खंडहरों को उलाँघती नदी सी
एक स्त्री लगातार यात्रा कर रही है
उसके मन में अब नहीं रही कोई गाँठ
उसने खोल दी हैं गिरहें तन की, मन की 
निसर्ग भाव से जीती यात्रा के हर पड़ाव को
उसका मक़ाम कोई नहीं उसे कहीं नहीं पहुँचना
वह किसी की तलाश में नहीं है
पर वह लगातार कुछ तलाश रही है।
 
एक स्त्री लगातार चल रही है

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