उपन्यास अंश-
लट्ठे कपड़े जैसा घुटा मेघ, सेठजी की फिक्र का सबब था। मेघों की घुमड़ बिजली की कड़क, सेठजी का दिल धड़कने लगता। मेह बरस गया तो नींव में पानी भर जायेगा। ना साँप पकड़ा जाएगा, ना नींव रखी जाएगी। बादलों का कोई वजूद नहीं होता। वे तो हवा के रुख तितर-बितर, घुटते-छंटते हैं। हवा दो-चार झोंकें ऐसे आए, बादल तितर-बितर हो गये और आसमान मटमैली चादर-सा दिखने लगा था। सेठजी के फाख्ता हुए होश लौट आए थे।
सेठजी गाड़ी से उतरे, आँखों पर चश्मा चढ़ाये, धोती के छोर अँगुलियों की चिकौटी से उठाये। लखीनाथ गाड़ी से उतरा, अपनी टोकरी लिये, बाँहें संगवाये।
दोनों की आँखें एक साथ उधर गईं। नींव के बिल में घुसे नाग को देखने वालों का ठट्ठ का ठट्ठ जुड़ा था।
चिहुंकें हुईं– "सपेरा आ गया। सपेरा आ गया। साँप पकड़ेगा। साँप पकड़ेगा। टोकरी साथ लाया है, ले जाएगा बंद करके।" आवाज़ें सपेरे को जोहर के लिये ललकार रही थीं।
चिहुंकें लखीनाथ सपेरा के कानों में पड़ीं। चिहुंकें सेठ मुकुंददास के कर्णपटों से टकराईं।
चिहुंकें फिर गूंजी– "सपेरा आ गया। साँप पकड़ेगा।"
"कैसे पकड़ेगा? गहरी खुदी है, नींव। नींव के बिल में है, नाग। पूँछड़ी कटी है, उस की। फण काढ़े मधुमक्खी के छत्ते जैसा। छोहभरी दोहरी जीभ लपलपाती है, मौत सरीकी। साँप डरावना है। खूंखार हुआ है। रौद्ररूप दिल दहलता है।" आवाज़ें लगातार उठ रही थीं।
फिक्रज़दा मिलनदेवी साँस भूली थी। उसने कपड़ा बँधी टोकरी बगल में दबाये सपेरा देखा। उसकी साँसें संबल पाने लगी थीं। रूमाल से आँसू पोंछ लिये थे। सुबकियाँ, सुबकन सहज हुईं।
मुहूर्त के वक़्त नींव में साँप निकल आना, मिलनदेवी की मंशा का मरन था। उसी की जिद पर पति मुकुंददास ने अपने बड़े भाई सुकुंददास से न्यारा होने का मानस बनाया था। हेतु, जेठानी सूरतदेवी का व्यवहार मिलनदेवी को दिनोंदिन कचोटने लगा था।
सेठजी और लखीनाथ तमाशबीनों को छितराते-बितराते नींव के निकट पहुँचे। सेठजी का देखाभाला था। चिंता सबब थी।
ठेकेदार सरिया थामे खड़ा था। हलवाई के हाथों झर था। सपेरे को देख, दोनों की चिंता का ग्राफ गिरा।
पंडितजी वहीं उपस्थित थे। उनके हाथ में नाग-नागिन का जोड़ा था। वह जोड़े को वैसे ही पकड़े थे, जैसे पहले पकड़े थे। हाथों कंपकंपाहट थी, जैसे पहले थी। दिल धड़क थी, जैसे पहले थी। विश्वास और अविश्वास की ऊहा के बीच अटकी थीं, उनकी साँसें।
लखीनाथ नींव के किनारे बैठ गया। निगाह साँप के फण पर बंधी। उसने साँप का फंसाव देखा। ‘ज़्यादा मूसा खा गयौ, बीच फंस गयौ।’ उसकी निगाह छिटकी और साँप की कटी पूँछड़ी पर ठिठक गई थी। पूँछड़ी पर चींटी दल टूटा था, घिरे घन सा। तमाशाई सपेरे के गिर्द थे। साँप पकड़ने वाला सपेरा नहीं, पूंगी बजाने वाला तमाशगीर हो।
नींव के बाहर फैली मिट्टी पर चिंतातुर बैठा लखीनाथ हथेली पर चिबुक टिकाये था।
‘आज आया ऊंट पहाड़ के नीचे’ वाली कहावत उसे रह-रह कर याद आई। उसने छान-छप्पर की आती-बाती, घरों के ओने-कोने, फैक्ट्रियों के पाइपों में भड़े (घुसे), बिल-बाँबी सुस्ताते साँप पकड़े थे। आज का खौफ़, उसे दिन में तारे दिखाई देने लगे थे। यहाँ वह चुनौती नहीं थी, जिसे वह खेल समझता आया था, अपितु जान पर खेलने जैसा शहीदाना क़दम था। अभिनेता के द्वारा पर्दे पर रबड़ का साँप पकड़ कर विजयोल्लास की दर्शक-तृप्ति भी यहाँ नहीं थी। नींव के बिल में घुसे पूँछड़ी कटे विकराल रूप नाग को पकड़ कर टोकरी में बंद करने जैसा साहस दिखाना होगा।
वह कनपटी पर अँगुली रखे जुगत साधता रहा, साँप पकड़ आये। सकत (सूझ) बूझता रहा, साँप काबू आये। उसने कानिपानाथ को याद कर दोनों कानों के कुण्डल छुए। झोपड़ी के बाहर चौतरी पर रूपे नाग देवताओं का स्मरण किया। भाई और गुरु सरूपानाथ को याद करना वह नहीं भूला। फूल और प्रसाद की मनौतियाँ मन ही मन बोल दी थीं।
पंडितजी ने सेठजी की ओर इस नज़र निहारा, सपेरा निरा है। बेजा लाये। खामखाह वक़्त बीता। मुहूर्त टलवा दो, दस-पाँच दिन। कीड़ा-काँटा एक जगह नहीं टिकता।
पंडितजी की तंज करती आँखें देख कर सेठजी ने लखीनाथ की ओर अनुरोध और आदेश मिश्रित निगाह भरी।
लखीनाथ की सूझ, अबूझ रही। कई दफ़ा ऐसे अवसर सामने होते हैं, तब समझदार की समझ पीछे हटने लगती है। मेधा पर ज़ोर देकर हल खोजा जाता है।
उसकी आँखें उधर घूमीं और गर्दन ने झटका खाया। मानो करंट दौड़ा हो, शरीर की शिराओं में। करंट! रोम-रोम चुनौती की स्वीकारोक्ति का संचार था।
वह सपेरा है। पटेबाज है। आसपास की सपेरा कालबेलिया, घुमक्कड़, खानाबदोश बस्तियों में उसका काम है। साँप पकड़ने में सरूपानाथ की तरह नाम है। सपेरा ने साँप से घबरा कर मुँह मोड़ लिया, वह सपेरा नहीं, कुजात हुआ। उसने साँस खींच कर साँस छोड़ी– "माँ को दुनिया में सबसे असल मान्यो गयौ हैं। माँ सपेरन को जायो-जनो है, लखीनाथ।"
सेठ सुकुंददास, मुकुंददास, मिलनदेवी, सूरतदेवी, रिस्तेदारों, आगुन्तकों का हूजूम एकत्र था, नज़रें लखीनाथ पर बंधी थीं।
लखीनाथ ने हथेली पर हथेली थपकी। उठा। अंगड़ाई ली- ‘लखी! कर या मर यार।‘
सबने उसकी ओर देखा। उसने नाग की ओर देखा।
लखीनाथ की निगाह वहाँ पडे़ पाइपों पर गई। आठ-आठ फीट लंबे लोहे के दो पाइपों को उसने उठा लिया। पाइप, संबल-सहारा। नींव में उतर साँप को पकड़ कर बाहर आने का सेतु। उसने दोनों पाइप नींव में एक साथ खड़े किये और नीचे उतर गया था। आँखें नींव में क्रेन्द्रित हुईं। सपेरा कैसे पकड़ेगा साँप?
लखीनाथ नींव में खड़ा था। नाग बिल में अड़ा था। दोनों के तौर-गौर एक हुए। साँप का सिमटा फण लहराया। फंसी काया कसमसाई। उसके क्रोध और कराह जाग उठे थे। लखीनाथ ने आँखें गड़ायीं। सूझी।
सरिया हाथ में लिए खड़ा ठेकेदार पैनी नज़र उसे ही देखे जाता था। लखीनाथ ने उसकी ओर हाथ बढ़ाया– "सरिया दो, ठिकेदार जी।"
धर्म-दीन के धनी सेठजी ने काँपते कंठ उसे टोका– "नहीं, लखीनाथ नहीं, साँप मारना नहीं है। पकड़ना है, जिंदा। मेहनताना ड्योढ़ा लो, भले।"
मिलनदेवी घूँघट बना कर साँस रोके देखे जा रही थी। चिंता और कौतुक से।
लखीनाथ ने सहजता से कहा– "सेठजी नाग म्हारो देवता होवै। इको दियो हम खावां। ना मैं इने मारूं, ना मैं छेडूं। माटी हटा-हटा, खुरच-खुरच जगा बनाऊंगौ। हाथ खोंस फण पकड़ सकूँ।"
ठेकेदार से सरिया लेकर लखीनाथ ने कानों के कुण्डल छुए और आराध्य कानिपानाथ को सुमरा। सरिया मार-मार उसने नाग के फण के थोड़ी दूर अंदर की ओर से मिट्टी झाड़नी ली। स्पंदन हुआ। साँप में अदावत अरड़ाई। फण काढ़ा और दोहरी जीभ लपलपाई। वह बिल फंसा असहाय था।
लखीनाथ बिल के साथ-साथ इस तरकीब मिट्टी झाड़ता, खुरचता, छीलता गया, साँप खुद ना निकल पाये। वह साँप को फण से पकड़ कर पाइपों पर पैर रखता ऊपर जाये, साँप खिंचा आये। रति-मासा चूक हुई, भाई सरूपा की नाईं काल के मुँह में जाएगा। रमती फिर रांड हो जाएगी। सपरानाथ सरीखे मंडराएँगे।
उसकी आँखों ने कूत की। जे़हन सधा। यक़ीन पगा। बिल के साथ-साथ साँप के पास-पास मिट्टी खुरच गई है। साँप का फंसापन कम हुआ है। उसकी देह हिले मिट्टी हिलती है। नेक (तनिक) बेर, साँप बिल से बाहर हुआ।
लखीनाथ ने सरिया ऊपर फेंक दिया। नाग के लहराते फण के निकट अनुभवी अँगुलियाँ मिट्टी में खोंसी। साँप के फण को तर्जनी तथा अँगूठे की दाब दबाया, अनामिका तथा कानी अँगुली से भींचते दबाव बनाया। मौत का टेंटुआ पकड़ा हो। उसने कितने ही साँप पकड़े थे। उन साँपों जैसा सहमापन, दुबक और कातर यहाँ नहीं थे। बड़ी अकड़ थी और था प्रतिशोध का भाव।
वह पाइपों पर पैर जमाता ऊपर आता गया। साँप अटके रस्से की भाँति उसके हाथों खिंचता आया। एकाएक पाइप डिगा और लखीनाथ का पैर फिसल गया। वह फिर नींव में था।
साँप का जबड़ा उसकी मुट्ठी तले दबा था। नाग और बाघ बडे़ घाघ हुआ करते हैं। सहज काबू नहीं आते। छटपटाहट के साथ साँप ने बलें खाईं। क्रोध से फनफनाता पूछड़ी कटा नाग लखीनाथ के बदन से लिपट गया। उसकी लपेट में नहीं, जबडे़ तले हो। लखीनाथ के पास प्राण-त्राण का एकमात्र उपाय साँप को जकड़े रखना था।
मौत और ज़िंदगी! ज़िंदगी और मौत। सैनिक और शत्रु। शत्रु और सैनिक। सैनिक शत्रु को धराशायी कर स्वयं को सुरक्षित पाता है। कौन धराशायी होगा, कौन सुरक्षित रहेगा। जीवन और मौत का पासा था।
करतबबाज मौत के कुआं में आइटम दिखाया करता है। वह उसके दैनंदिन शो की पार्ट अदायगी होती है। सीना सवानी नींव में सर्प लिपटा खड़ा लखीनाथ, शिवजी की मूर्ति सा प्रतीत हो रहा था। वह कोई खेल-तमाशा या जादुई इल्म नहीं दिखा रहा था। अपने वचन और सपेरा कर्म जान साँसत में डाले था।
ठ्टठ का ठट्ठ हक्का-बक्का हो कर देख रहा था। किसी का मुँह खुला था। किसी के होंठों तले अँगुली दबी थी। कितने हाथ जुड़े थे। कितने ओष्ठ अपने इष्ट के मंत्र बुदबुदा रहे थे। कोई अपना जंतर (ताबीज) पकड़े था। सेठजी, पंडितजी, ठेकेदार सकते में थे। मुहूर्त टल जाता। साँप इधर-उधर हो जाता। सपेरा मरा। हम बंधे।
मिलनदेवी नींव के किनारे आ खड़ी हुई थी। उसने नाग लिपटे महादेव के चित्र देखे थे। मूर्तियाँ देखी थीं। सपेरे के बदन पर विषैले नाग को लिपटा देख वह सदमा गई । गुलाबी रंग की लिपस्टिक लगे उसके ललवई होंठ ना खुल पा रहे थे, ना बंद हो पा रहे थे। अर्द्ध खुले थे। आँखें फटीं-फटीं थीं, प्रस्तर हो। साँसें अटकी थीं। हाथ कलेजा दबाए था। जंगल की झाड़ियों में फंसी वीरान हिरणी की भाँति दुश्चिंताओं से घिरी चौकड़ी भूली थी।
अकस्मात लखीनाथ ने किसी कलाबाज की भाँति दोनों पाइपों पर एक पैर जमाया और पछाड़-सी खाता बाहर आ गिरा था। उसने नाग को वैसे ही जकड़ा था, जैसे नाग ने उसको कसा था। ताकतें तुली थीं, दो पलडे़।
औसान भूले तमाशबीन दूर-दूर जा छिटके थे। भय देख भेड़ें भाग खड़ी होती हैं। धूप-ताप चींटियाँ नहीं ठहरतीं।
लखीनाथ ने साँप को दोनों हाथों से जकड़ लिया था, फण समेत। जितना जोर लखीनाथ में था, उसकी मुट्ठियों में समाया था। इतना दम तो कालिया नाग को काबू करते श्रीकृष्ण ने भी नहीं लगाया होगा। जितना जोर नाग में था, लखीनाथ को मोसने में लगाया था उसने। इतना दमखम कालिया नाग ने कृष्णजी को भींचते नहीं लगाया होगा।
नागों के उस्ताद लखीनाथ सपेरा के सामने नाग उन्नीस निकला। हिम्मत जवाब दे गई थी, उसकी। सपेरा के मतबूत हाथों भिंचता नाग कसाव छोड़ता, निश्तेज हुआ, लटक गया था, कलांत। सहेजने की सूखी फली लटकी हो, डाल से।
आवाज़ें गूँजी– "वाह! वाह! शाबाश! शाबाश! खूब। बहुत खूब।" तालियाँ पिटीं। जयकारे उठे।
अंबर ने सराहा। अवनि ने पीठ थपथपाई। साहसिक करिश्मा अतुल्य कार्य।
टोकरी रखी थी, कपड़ा बंधी। उसने ठेकेदार की ओर गर्दन मार कर इशारा किया– "ठिकेदारजी टोकरी धरी है, कपड़ा बँधी जल्दी खोलो। ढक्कन हटाओ ऊको। नाग बंद करूँगो।"
ठेकेदार ने दूसरे मजदूर की ओर हुक्मराना आँखों से देखा– "लंबू जल्दी कर, टोकरी खोल।"
मजदूर ने तत्परता दिखाई। कपड़े की गाँठ खोली। टोकरी अलग की। टोकरी का ढक्कन दूर रखा।
पूँछड़ी कटे क्रोध भरे नाग का गुस्सा ठण्डा हो गया था, सपेरे के हाथों। विवश मन वह अपना फण समेटता टोकरी के घेर कुण्डली मारता गया। लखीनाथ ने टोकरी का ढक्कन बंद कर कपड़े पर रखा, लपेटा और ऊपर तले दो गाँठें मार दीं, गोल।
पसीना-पसीना और रेतमरेत लखीनाथ ने अपने माथे का श्रम-स्वेद अँगुलियों से सूता और नीचे छींट दिया था।
सेठजी का मन हुआ था, अकल्पनीय साहस के लिये सपेरे की कमर थपक दूँ। बड़ी जात हाथ, छोटी जात कमर की ओर नहीं बढ़ पाये। लखीनाथ का चेहरा मिट्टी और पसीना से लिपड़ा हुआ। दाढ़ी खुंटियायी घास-सी लग रही थी। सेठ मुकुंददास ने टब से जग भरा और उसके हाथ-मुँह धुलवाये। लखीनाथ का धुला चेहरा अब ऐसा लग रहा था मटमैले मेघों से चौदहवीं का चाँद निकला हो। सब उसके चेहरे की ओर देखते रह गये ‘सपेरा‘ और इतना सुंदर। सेठजी ने सौ रुपये का नोट उसको खुशी-खुशी इनाम दिया।
आकुल-व्याकुल हुई मिलनदेवी तो मानो मर कर जी और अपना संसार पा गई थी। सावन-भादो की झड़ी में खुशी के मारे जैसे मोर नाचता है, हर्षोल्लास की घड़ी उसका मन-मयूर नाच उठा था। उसने अपना बटुआ खोला। चाँदी के खनखनाते पाँच सिक्कों में से एक सिक्का खींच लिया। उसने चुटकी से पकड़ा सिक्का लखीनाथ की ओर बढ़ाया और गद्गद हुई बोली– "सपेरा तेरा इनाम।"
अहमभरी कठोरता में आत्मीयता मुलायम थी, बादाम में गिरी सरीकी।
लखीनाथ ने मिलनदेवी की ओर एक नज़र निहारा। ललाट पर लटकी स्वर्ण-बिंदिया से लेकर पैरों की अँगुलियों में पहने स्वर्ण बिछुए तक सोने से लक़दक थी, वह। सोने की गोट-किनारी कढ़ी साड़ी से सजी-धजी थी। मानो किसी देवी की मूर्ति को प्राण-प्रतिष्ठा से पूर्व सजाया-धजाया हो। या सोने की खान हो, जहाँ से निकल कर आई हो, अभी।
ऐसी खूबसूरत स्त्री लखीनाथ अपनी बाईस बरस की उम्र में पहली दफ़ा देख रहा था। कुदरत के हाथों फुरसत में गढ़ी नपी-तुली-सुती काया। सारस सी गर्दन। गदराया जोबन। वह अपने बचपन में दादी, नानी, माँ से परियों और रानियों की सुंदरता के बखान सुना करता था, ‘यो जनानी वो ही तो ना है?‘
मिलनदेवी से रू-ब-रू लखीनाथ की आँखों में उसकी छोटी जात का मान था। मिलन के नयनों में उसकी बड़ी जात का कान (कायदा) था।
मिलनदेवी सिक्के को अँगुलियों की चुटकी में पकड़े लखीनाथ की ओर हाथ बढ़ाये थी।
लखीनाथ ने गर्दन हिलाकर कहा– "ना-ना, सेठाणी जी मेहनतानो पा लियो सेठजी से। खूब घणो दे दियो उनने। ग़रीब की मिनत बरकत करे।"
मिलनदेवी ने अपनी सुरमई आँखें गोल कीं। एक आँख में अनुनय, दूसरी में आग्रह था । ऐसे द्विभाषी नेत्रों के सम्मुख भला कौन पुरुष नतमस्तक नहीं होता।
लखीनाथ ने मिलनदेवी के सिक्के को कुरते की अपनी उस जेब में नहीं रखा, जिसमें सेठजी का नोट रखा था।
वह चाँदी के पाँच सिक्के लाई थी, पंडितजी के लिये। एक लखीनाथ सपेरे को दे दिया था। सबके सब देखते रहे अवाक। सेठजी ने एक बार मिलनदेवी की ओर कड़ा देखा, लेकिन आँखें झुका ली थीं। निःसंतान पत्नी पर पति का ज़्यादा वश नहीं रहता। सेठ सुकुंददास कहते कुछ नहीं कह पाये। क्रोध घूंट, चुप रहे।
लखीनाथ का गेरुवा रंग का कुरता रेत और साँप की लपेट से गंदा-संदा हो गया था। सिर की लटें बिखरी थीं। मिलनदेवी ने हठात् विचारा, यह सपेरा कोई भाण्ड-भगतिया नहीं, जोगी-जति है। अपनी साड़ी के पल्लू से इसकी रेत झाड़ दूँ। अँगुलियों की कंघी से इसकी बिखरी लटें संवार दूँ। संकोच से उसकी आँखें नीची हो गई थीं।
सूरतदेवी की नज़र मिलनदेवी की ओर बराबर बनी थी। उसके द्वारा सपेरे को दिया चाँदी का रुपया और उसकी भंगिमाएँ देखकर उसे जलन हुई। इन दिनों वह उससे बुरी चिढ़ी थी। उसके नये मकान की नींव खुदने पर तो वह कुंठित हो उठी थी। हवा के इस झोंके से तो उसकी कुंठा की लपटें फरफराने लगीं। मुँह बनाया ओर बेहयायी से बोली– "देखना सपेरे के अंश वंश चलाएगी।"
सूरतदेवी के होंठों कही मिलन ने कानों सुन ली थी। दस साल से अपनी कोख को भूली बैठी मिलन की आँखों से लपटें निकलीं। मुहूर्त का कार्यक्रम था, खून का घूँट पीकर रह गई।
लखीनाथ साँप भरी टोकरी अपनी बगल में दबाये जाने को था। मिलनदेवी उसके पास गई और होंठ बुदबुदाते बोली– "भोजन करके जाना सपेरा।"
लखीनाथ ने गर्दन हिलाई और आगे बढ़ गया था।
मिलन ऐसा कह कर जेठानी को और जलाना चाहती थी।
सेठजी छोड़कर आएँगे उसे।
लखीनाथ गाड़ी के पास आ खड़ा हुआ था। उसने गाड़ी का गेट खोला और आगे की सीट पर बैठ गया था, जैसे बैठा आया था, वह।
वह मजदूर अभी गाड़ी में ही बैठा हुआ था, डर भरा। सुध-बुध खोया। सेठजी आए और उससे कहा– "अरे जिस साँप से तू डरा हुआ है न और मरा जाता है बिल्कुल, उसे लखीनाथ ने पकड़ कर अपनी टोकरी में बंद कर लिया है। टोकरी उसकी जाँघों पर रखी है। वह गाड़ी में बैठा है, साँप को दूर कहीं जंगल में छोडे़ंगे। जा, निश्चिंत हो कर काम कर, अब।"
मजदूर गाड़ी से नीचे उतर गया था। उसने लखीनाथ को देखा, उसकी जाँघों पर रखी टोकरी देखी। ठण्डी आह ली और उधर मुड़ गया, जहाँ ठेकेदार खड़ा था।
लखीनाथ को अपनी पास वाली सीट पर साँप की टोकरी जाँघों पर रखे बैठा देख, सेठजी के अंतस में धक हुई। यह धक वह नहीं थी, जो नींव के बिल में घुसे नाग को लेकर थी। गरज नहीं रही। हिकारत के साथ बड़ी जात का हिंस्र अहम पगुरा था।
गाड़ी की डिक्की खोलते हुए उन्होंने लखीनाथ से कहा– "सपेरा डिक्की खोल दी है, मैंने। टोकरी रख दे, उसमें। और पीछे की सीट पर बैठ जा, जहाँ मजदूर बैठा था।"
लखीनाथ को सेठजी का व्यवहार खुदगर्ज लगा। सूल जैसा चुभा। आग उठी।
उसकी मुटिठ्याँ कस गईं, जैसे साँप का फण पकडे़ कसी थीं। उसकी आँखें लाल हुई, जैसे साँप को पकड़ते हुई थीं। उसने आक्रोश भरे गले से कहा– "सेठजी गाड़ी-वाड़ी रहण दो, अपणी। मैं खुद चलो जाऊँगो, अपना पैरां। कोहनी मारे गुड़ ना फूटे।"
वह गाड़ी से नीचे उतरा। टोकरी बगल में दबा ली और मुट्ठी भींचे बढ़ गया था, जंगल की राह।